Saturday, November 14, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये परबत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

पूर्णिमा वर्मन

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इख़्लाक़ ,सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक़ के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारें,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंज़िल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं

Friday, November 13, 2009

तरही की दूसरी क़िस्त














मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गिरीश पंकज

मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं

मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं

मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं

कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता यहाँ पंकज
वो सब हो जाता है पूरा अगर हम ठान लेते हैं

चंद्रभान भारद्वाज

हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

उदासी से घिरा चेहरा तेरा अच्छा नहीं लगता
तुझे खुश देखने को बात तेरी मान लेते हैं

न कोई जान लेते हैं न लेते माल ही कोई
फकत वे आदमी का आजकल ईमान लेते हैं

हज़ारों बार आई द्वार तक हर बार लौटा दी
बचाने ज़िन्दगी को मौत का अहसान लेते हैं

सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं

Wednesday, November 11, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं


पूर्णिमा वर्मन

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इखलाक़ सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारे,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंजिल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं

Monday, November 9, 2009

तरही की पहली क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर पहली दो ग़ज़लें


डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी

वे कैसे हैं, कहाँ हैं,हम यह फौरन जान लेते हैं
कभी भी नामाबर का हम नहीं अहसान लेते हैं

बहुत नाज़ुक है उसका शीशा-ए-दिल टूट जाएगा
वो जो कहता है अकसर इस लिए हम मान लेते हैं

मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

फ़िदा होकर हम उसकी शमे-रुख़ पर मिसले-परवाना
फिर उस से मिल के अपनी मौत का सामान लेते हैं

हदीसे-दिलबरी अफसान-ए-हस्ती की है मज़हर
हक़ीक़ी ज़िंदगी से जिसका हम उनवान लेते हैं

नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं

जो हैं इंसानियत के दुशमन ऐ अहमद अली बर्क़ी
वे हैं हैवान जो नौ-ए-बशर की जान लेते हैं

ख़ेरद-अक़्ल,मसल-मुहावरा,मज़हर-निशानी,इज़हार, नौ-ए-बशर-इंसान

डी.के. मुफ़लिस

ख़ुद अपनी राह चलते हैं, ख़ुद अपनी मान लेते हैं
हम अहले-दिल किसी का कब भला अहसान लेते हैं

सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं

मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है
ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं

उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं

कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं

असर रहता है क़ायम मुस्तक़िल तहरीर में उनकी
सुख़नसाज़ी में फ़िक्र-ओ-फ़न का जो मीज़ान लेते हैं

बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की
तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं


अहले-दिल=दिल वासी ,मुख़ालिफ़=विरोधी,मुस्तक़िल=हमेशा, स्थायी, तहरीर=लिखावट ,सुख़नसाज़ी=लेखन प्रक्रिया
फिक्रो फ़न=चिंतन और कला,मीज़ान=तराज़ू ,तर्ज़-ए-बयाँ=कथन शैली


छोटी सी सूचना - दोस्तो ! एक छोटी सी सूचना है , मेरी आवाज़ में मेरी कुछ ग़ज़लें और शे’र रिकार्ड हुए हैं और इसे आप urdu-anjuman पर सुन सकते हैं। समय मिले तो ६ मिंन्ट ज़रूर सुनियेगा ये रहा लिंक-
http://www.bazm.urduanjuman.com/index.php?topic=4279.0

धन्यावाद

Tuesday, November 3, 2009

बलवीर राठी की ग़ज़लें और परिचय











उर्दू अदब को जाने बिना ग़ज़ल कहना बैसा ही है जैसे कबीर को पढ़े बिना दोहा लिखना।गा़लिब से परिचित हुए बगैर कोई ग़ज़ल नहीं कह सकता है। खै़र,आज हम ग़ज़लें पेश कर रहे हैं,1934 में हरियाणा में जन्में बलवीर राठी की, जिनके अब तक ३ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।बज़ुर्ग शायर हैं और बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और हरियाणा साहित्य अकादमी से सम्मान हासिल कर चुके हैं।

एक

गो पुरानी हो चुकी अब होश में आने की बात
लोग फिर भी कर रहे हैं मुझको समझाने की बात

रफ़्ता-रफ़्ता ढल गई है सैंकड़ों नग़मात में
ए दिले-मासूम तेरे एक अफ़साने कि बात

अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग
कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात

ज़िंदगी उलझी हुई है और ही जंजाल में
अब कहां वो साग़रो-मीना की, मयखाने की बात

अजनबी माहौल में अपने तो लब खुलते नहीं
तुम ही छेड़ो आज इस रंगीन अफ़साने की बात

(रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल)

दो

तेज़ लपटों में ढल गया हूँ मैं
कोई सूरज निगल गया हूँ मैं

कितने राहत-फ़िज़ा थे अंगारे
बर्फ लगते ही जल गया हूँ मैं

तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे
उन हदों से निकल गया हूँ मैं

हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं

मत बुलंदी की बात कर "राठी"
अब वहां से फिसल गया हूँ मैं

(बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

तीन

हमें साथ मिल तो गया था किसी का
मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का

कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का

वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है
कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का

अगर साथ होते वो इन रास्तों पर
तो क्या हाल होता मेरी आगही का

मेरे हाल पर मुस्करा कर गए हैं
चलो हक़ अदा हो गया दोस्ती का

बहरे-मुतका़रिब मसम्मन सालिम
(चार फ़ऊलुन )122x4


शायर का पता-
3836 अरबन इस्टेट
जींद- हरियाणा
फोन-01681-247351

Monday, October 26, 2009

गिरीश पंकज-ग़ज़लें और परिचय










1957 में जन्में गिरीश पंकज की अब तक 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और एक ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही प्रकाशित हो रहा है।आप दिल्ली साहित्य अकादमी के सदस्य हैं और सद्भावना दर्पण नामक पत्रिका के संपादक भी हैं। "आज की ग़ज़ल" पर पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-

एक

मै अँधेरे में उजाला देखता हूँ
भूख में रोटी-निवाला देखता हूँ

आदमी के दर्द की जो दे खबर भी
है कहीं क्या वो रिसाला देखता हूँ

हो गए आजाद तो फिर किसलिए मैं
आदमी के लब पे ताला देखता हूँ

हूँ बहुत प्यासा मगर मैं क्या करूं अब
तृप्त हाथों में ही प्याला देखता हूँ

कोई तो मिल जाए बन्दा नेकदिल सा
ढूंढता मस्जिद, शिवाला देखता हूँ

दो

तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा
देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा

देख कर तुमको लगा हरदम मुझे
जन्मों-जन्मो का कोई नाता रहा

दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ
दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा

अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं
जो सदा ही ठोकरे खाता रहा

मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन
मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा

ज़िन्दगी है ये किराये का मकां
इक गया तो दूसरा आता रहा

तीन

आपकी शुभकामनाएँ साथ हैं
क्या हुआ गर कुछ बलाएँ साथ हैं

हारने का अर्थ यह भी जानिए
जीत की संभावनाएं साथ हैं

इस अँधेरे को फतह कर लेंगे हम
रौशनी की कुछ कथाएँ साथ हैं

मर ही जाता मैं शहर में बच गया
गाँव की शीतल हवाएं साथ हैं

ये सफ़र अंतिम हैं खाली हाथ लोग
पर हजारों वासनाएँ साथ हैं

(बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्लों मे कही गई ग़ज़लें)

शायर का पता-
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०

Wednesday, October 21, 2009

जतिन्दर परवाज़ की ग़ज़लें और परिचय













1975 में जन्में जतिन्दर "परवाज़" की तीन ग़ज़लें हम पेश कर रहे हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" भाग-२ में इनकी ग़ज़लें शामिल हैं । युवा शायर हैं और बहुत अच्छे शे’र कहते हैं। आल इंडिया मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं। इनसे अदब को बहुत उम्मीदें हैं। इनका ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही आ रहा है।

एक

शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है

नदी दम तोड़ बैठी तिशनगी से
समंदर बारिशों में भीगता है

कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है

सभी के खून में गैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है

जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है

चलो हम भी किनारे बैठ जायें
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

दो

ख़्वाब देखें थे घर में क्या क्या कुछ
मुश्किलें हैं सफ़र में क्या क्या कुछ

फूल से जिस्म चाँद से चेहरे
तैरता है नज़र में क्या क्या कुछ

तेरी यादें भी अहले-दुनिया भी
हम ने रक्खा है सर में क्या क्या कुछ

ढूढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता
था हमारे भी घर में क्या क्या कुछ

शाम तक तो नगर सलामत था
हो गया रात भर में क्या क्या कुछ

हम से पूछो न जिंदगी 'परवाज़'
थी हमारी नज़र में क्या क्या कुछ

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

तीन

यार पुराने छूट गए तो छूट गए
कांच के बर्तन टूट गए तो टूट गए

सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं
तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए

शहज़ादे के खेल खिलोने थोड़ी थे
मेरे सपने टूट गए तो टूट गए

इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोये
भाग किसी के फूट गए तू फूट गए

छोड़ो रोना धोना रिश्ते नातों पर
कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए

अब के बिछड़े तो मर जाएंगे 'परवाज़'
हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए

पाँच फ़ेलुन+एक "फ़े"


संपर्क -
गाँव - शाहपुर कंडी ,
तहसील - पठानकोट,पंजाब -145029
मोबाइल- +919868985658
ईमेल -jatinderparwaaz@gmail.com