Thursday, May 27, 2010
अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
द्विजेन्द्र द्विज
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-
सतपाल ख़याल
आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी
दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी
मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-
इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई
हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।
Wednesday, May 26, 2010
अंतिम क़िस्त से पहले दो तरही ग़ज़लें और
कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-
पूर्णिमा वर्मन
सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी
संजीव सलिल
कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
Tuesday, May 25, 2010
आठवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
इस क़िस्त कि शुरूआत इस ग़ज़ल से कर रहे हैं ,जिसमें जगजीत सिंह ने जोगी शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में पेश किया है। ठीक वैसे ही जैसे शायरों ने इस मुशायरे में जोगी को नचाया।
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
सातवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर" के इस खूबसूरत शे’र के साथ -
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
और माहक साहब के इस फ़लसफ़े-
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
-के साथ हाज़िर हैं सातवीं क़िस्त की तीन ग़ज़लें।
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
प्रीत न आई रास रे जोगी
ले लूँ क्या बनवास रे जोगी
दर-दर यूँ ही भटक रहा हूँ
आता नहीँ क्यों पास रे जोगी
कब तक भूखा प्यासा रहूँ मैं
आ के बुझा जा प्यास रे जोगी
देगा कब तू आख़िर दर्शन
मन है बहुत उदास रे जोगी
कितना बेहिस है तू आख़िर
तुझको नहीं एहसास रे जोगी
मन को चंचल कर देती है
अब भी मिलन की प्यास रे जोगी
छोड़ के तेरा जाऊँ कहाँ दर
मैं तो तेरा दास रे जोगी
सब्र की हो गई हद ‘बर्क़ी’ की
तेरा सत्यानास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
हुक़्म है तेरा ख़ास रे जोगी
मैं तो तेरा दास रे जोगी
जीवन का इक रूप है ये तो
खेले सारे रास रे जोगी
सब कुछ मेरा नाम है तेरे
जो भी मेरे पास रे जोगी
खूब ठिठौली कर लेता है
तू भी है बिंदास रे जोगी
जब से रूठा है तू मुझसे
टूटी मेरी आस रे जोगी
दुनिया को देना है,क्या दें
पत्थर या अल्मास रे जोगी
जोगन तेरी राह तके है
आया सावन मास रे जोगी
बस में होता तो मैं देता
रावण को बनवास रे जोगी
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
तुझको देख के मुझको रब का
होता है एहसास रे जोगी
शायर तो दुनिया में लाखों
एक "मुसाफ़िर" ख़ास रे जोगी
डा.अजमल ख़ान "माहक" लखनऊ से
ओ जोगी तुम ख़ास रे जोगी
हमको तुम से आस रे जोगी
राम सिया संग जाई बसे वन
तज कर भोग विलास रे जोगी
देख रहे हैं अपने सारे
कौन चला बनवास रे जोगी
मोह में जब तुम इतने उलझे
काहे का सन्यास रे जोगी
जिन को भूख की आदत पड़ गई
उनको क्या उपवास रे जोगी
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
ज्ञानी ध्यानी सब दुखियारे
मोह रचाऐ रास रे जोगी
घर छोड़ा पर जग नांहि छूटा
तू माया का दास रे जोगी
सच मिलता रोता- चिल्लाता
सहता है उपहास रे जोगी
“माहक” दुनिया देख रहा है
आई उसको रास रे जोगी
Sunday, May 23, 2010
छटी क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
छ्टी क़िस्त की तीन ग़ज़लें-
योगेन्द्र मौदगिल
तन का क्या विश्वास रे जोगी
तन तो मन का दास रे जोगी
भगवे में भगवान बसे हैं
जटा-जूट विन्यास रे जोगी
उर्मिल पूछ रही लछमन से
कौन दोष मम् खास रे जोगी
जाम-सुराही छूट गये सब
टूट गया अभ्यास रे जोगी
सूरज, चंदा, जुगनू, तारे
किसको किसकी आस रे जोगी
तितली, भंवरे, कोयल, खुशबू
किसको दुनिया रास रे जोगी
मंत्र मणि मंदिर मर्यादा
मन माया मधुमास रे जोगी
पाहुन कुत्ता जांच रहा है
कुत्ता पाहुन-बास रे जोगी
जे विध राखे राम-रमैय्या
सो विध खासमखास रे जोगी
गंगा गये सो गंगादासा
जमना-जमनादास रे जोगी
कूंए में गूंगी परछाई
जगत पे अट्टाहास रे जोगी
चप्पा-चप्पा मौन खड़ा है
कौन चला बनवास रे जोगी
मैच अभी है शेष ’मौदगिल’
अभी हुआ है टास रे जोगी
प्राण शर्मा
जीवन आया रास रे जोगी
मैं क्यों लूँ बनवास रे जोगी
इतनी उदासी अच्छी नहीं है
कुछ तो हो परिहास रे जोगी
सोच ज़रा ये भी ,मधुवन में
क्यों आये मधुमास रे जोगी
तुलसी, केशव, सूर कबीरा
सबके सब थे दास रे जोगी
जीवन के ये भी हिस्से हैं
सुख,दुःख,भोग-विलास रे जोगी
तू न बुरा माने तो पूछूँ
तुझमें क्या है ख़ास रे जोगी
हर कोई दिल को थामे है
कौन चला बनवास रे जोगी
गिरीश पंकज
किनसे रक्खें आस रे जोगी
टूटा हर विश्वास रे जोगी
पतझर से डरता है काहे
आयेगा मधुमास रे जोगी
जीत ले सबका दिल बढ़ कर के
बन जा खासमख़ास रे जोगी
रोती है ये सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा
आता है क्यों रास रे जोगी
प्यार से मिट जाती है दूरी
आयें बैरी पास रे जोगी
मत रोना , होता आया है
सच का तो उपहास रे जोगी
ये तो प्रेम-पियाला पंकज
इसमें है बस प्यास रे जोगी
Wednesday, May 19, 2010
पाँचवीं क़िस्त - कौन चला बनवास रे जोगी
पाँचवीं क़िस्त की ये तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
बाबा कानपुरी
रहता नित उपवास रे जोगी
मन में अति उल्लास रे जोगी
कुछ तो है जो कसक रहा है
क्या मन में संत्रास रे जोगी
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
लेना एक न देना दो पर
नित करता अभ्यास रे जोगी.
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
तेरे आने से छाया है
हर सू इक उल्लास रे जोगी
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
मन में है सो पा जाऊँगा
क्याँ छोडूँ मैं आस रे जोगी
दो पल की फुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
ये ही तुझ को खुश कर दे तो
चल मैं तेरा दास रे जोगी
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
चंद्रभान भारद्वाज
कर सूना हर वास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
फैली 'भारद्वाज'उसी की
कण कण बीच सुवास रे जोगी
अज़ीज दोस्तो!
मैं अपनी बात बड़ी हलीमी से रख रहा हूँ, कोई भी इसे अन्यथा न ले । बहस या संवाद किसी नतीजे तक न पहुँचे तो क्या फ़ायदा। बात शुरू हुई थी नास और नाश को लेकर और आदरणीय राजेन्द्र जी ने ही देशज शब्द का इस्तेमाल टिप्पणी में किया। देशज या देशी या देसी शायद एक ही अर्थ के शब्द हों । देशज,वो शब्द जो बिना किसी आधार के (तदभव, तत्सम ,गृहित,अनुकरण) विकसित हो गए हों। जिनकी पैदाइश कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं हो जैसे- घूँट, घपला पेड़,चूहा ठेस, ठेठ, धब्बा पेठा कबड्डी आदि
और आम हिंदी भाषा में तकरीबन 80% तद्भव, 15% तत्सम 13% विदेशी और 2% देशज शब्द इस्तेमाल होते हैं। शब्दकोश में नास का अर्थ है-वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। सूँघना या नसवार, सुँघनी ।
लेकिन ’देशज शब्द’ शब्दकोशों में नहीं मिलते पर अब धीरे-धीरे शामिल किए जा रहे हैं।
नाश यानि नष्ट और अब नास शब्द के कुछ प्रयोग देखें-
जबहिं नाम ह्रदय धरा,भया पाप का नास
मानों चिनगी आग की,परी पुरानी घास ..कबीर
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं .... सूरदास
अब शब्दकोश के लिहाज से ये तो यहाँ नास का प्रयोग ग़लत है या यूँ कहो कि घास’ के साथ तुक मिलाने के लिए कबीर ने नास लिख दिया। लेकिन उन्होंने इसे लिखा वो गुणी और गुरूजन ही हैं हमारे लिए। तुलसी की भाषा को हम क्या कहेंगे कि वो ग़लत है या फिर कबीर ग़लत हैं।
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
शे’र में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है सब जानते हैं , लेकिन इस शब्द के प्रयोग को हम किस आधार पर ग़लत कहेंगे। मेरा ये प्रशन सिर्फ़ राजेन्द्र जी से नहीं है बल्कि सब से है। मैं आप सब से जानना चाहता हूँ ताकि कुछ हम सब सीख सकें।क्या कबीर का ’नास’ कुछ और है? क्या नास तदभव रूप नहीं है या फिर ये देशी है,क्या है? इसे संवाद तक ही सीमित रखें विवाद न समझें और न ही विवाद का रूप दें। ग़ज़ल कहने वाले तो हर बात सलीक़े और अदब से ही कहते हैं और ये मंच है ही ग़ज़ल के लिए।
बात जोगी की हो रही है तो क्यों न लता की आवाज़ में ये गीत-
जाओ रे ! जोगी तुम जाओ रे ...सुना जाए।
Monday, May 17, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी-चौथी क़िस्त
नवनीत जी की इस अरदास-
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
के साथ और राजेन्द्र स्वर्णकार के इस अनूठे और सुंदर शे’र-
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
के साथ हाज़िर है ये चौथी कि़स्त-
नवनीत शर्मा
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
जोग भी मन की ही इच्छा है
तू इच्छा का दास रे जोगी
हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी
काश वो आएँ जिनको सौंपे
पल छिन घड़ियाँ मास रे जोगी
जिनको भूख से रोज उलझना
मजबूरी उपवास रे जोगी
गाँव-नगर जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
सूखीं सपनों की धाराएँ
जैसे दरिया ब्यास रे जोगी
तू माहिर दुनियादारी में
किसको था आभास रे जोगी
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
उससे कहो पहले बन ढूँढे
कौन चला बनवास रे जोगी
राजेन्द्र स्वर्णकार(बीकानेर से)
मन है बहुत उदास रे जोगी
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
पूछ न प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी
अब सम्हाले संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी
पी'मन में रम-रच गया,जैसे
पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी
कौन पराया-अपना है रे
क्या घर और प्रवास रे जोगी
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
छोड़ हमें ’राजेन्द्र’ अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
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