
कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-
पूर्णिमा वर्मन
सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी
संजीव सलिल
कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
4 comments:
पूर्णिमा वर्मन जी और संजीव सलिल जो
इस तरही में पढना अच्छा लगा
donon hi gazal bahut achchhi hain
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
आदरणीय पूर्णिमा वर्मन जी, आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी।
रूह को हिलाते हैं आपके ये अश्आर :
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
और आस्था की बात इससे बेहतर किन अल्फाज में हो सकती है:
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
भाई संजीव सलिल जी का भी आभार
खासतौर पर यह शे'र हट कर लगा :
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
आज की ग़ज़ल का भी आभार।
khoovsurat samgam...
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