परिचय:
जन्म तिथि: 5 अगस्त,1950
जन्मस्थान: चंदेरी (ज़िला:गुना,म.प्र.)
प्रकाशित ग़ज़ल—संग्रह:लेखनी के स्वप्न(१९७५),एक टुकड़ा धूप(1979),चाँदनी का दु:ख(1986),समन्दर ब्याहने आया नहीं है(1992),भीड़ में सबसे अलग(2003)
संपर्क: समीर काटेज, बी—21,सूर्य नगर,शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर—4740129(म.प्र.)फोन: 094257 90565.
एक.
अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर
खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर
जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर
अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल—फलकर
लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर
कली के प्यार में मर—मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर
घुसे जो लोग काजल—कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर
1222,1222,122(Hazaj ka zihaaf)
दो.
घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए
अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए
मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए
धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए
होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए
इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए
बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.
221,2121,1221,212 (muzaare)
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Wednesday, April 9, 2008
देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय
परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
faailun-faailun-faailun-faailun
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com
ग़ज़ल:
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.
बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.
काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.
कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.
हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.
फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
बज़न :212, 212, 212,212
faailun-faailun-faailun-faailun
Monday, March 31, 2008
कवि कुलवंत जी की एक ग़ज़ल
नाम : कवि कुलवंत सिंह
जन्म: 1967 उतरांचल(रुड़की)
शिक्षा: आई आई टी रुड़की.(अभियंत्रिकी)
प्रकाशित पुस्तकें: निकुंज (काव्य संग्रह)
शिक्षा: आई आई टी रुड़की.(अभियंत्रिकी)
प्रकाशित पुस्तकें: निकुंज (काव्य संग्रह)
रुचियां - कवि सम्मेलनो में भाग लेना। मंच संचालन। क्विज मास्टर। विज्ञान प्रश्न मंच प्रतियोगिता आयोजन। मानव सेवा धर्म - डायबिटीज, जोड़ों का दर्द, आर्थराइटिस, कोलेस्ट्रोल का प्राकृतिक रूप से स्थाई एवं मुफ़्त इलाज।
निवास: मुम्बई.
फ़ोन: 09819173477
href="mailto:singhkw@indiatimes.com">singhkw@indiatimes.com
ग़ज़ल- तप कर गमों की आग में ..
बहर - 2212 1211 2212 12
तप कर गमों की आग में कुंदन बने हैं हम
खुशबू उड़ा रहा दिल चंदन सने हैं हम
रब का पयाम ले कर अंबर पे छा गए
बिखरा रहे खुशी जग बादल घने हैं हम
सच की पकड़ के बाँह ही चलते रहे सदा
कितने बने रकीब हैं फ़िर भी तने हैं हम
छुप कर करो न घात रे बाली नहीं हूँ मैं.
हमला करो कि अस्त्र बिना सामने हैं हम
खोये किसी की याद में मदहोश है किया
छेड़ो न साज़ दिल के हुए अनमने हैं हम.
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