Wednesday, September 8, 2021

"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब ,तरही मुशायरा

 दोस्तो ! हम इस ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"(श्री द्विजेन्द्र द्विज जी द्वारा संरक्षित) पर तरही मुशायरे का आयोजन कर रहे हैं

बहरे खफ़ीफ में इस बार का तरही मिसरा है -
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़'इ 'लुन
2122 1212 22/112/1121
रदीफ़ -कहाँ
काफिया -वबाल ,विसाल आदि |
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
अगले सोमवार तक आप अपनी गज़लें इन-बाक्स में भेज दें |
Past is nothing but new future with new Calender and New dates. Isnt it ? इतिहास अपने आप को दुहराता है |

Monday, September 6, 2021

अमित अहद की एक ग़ज़ल - Ek ghazal








सहारनपुर के युवा शायर अमित अहद की एक ग़ज़ल

तेरे मेरे ग़म का मंज़र

हर सू है मातम का मंज़र


मुद्दत से इक जैसा ही है

यादों की अलबम का मंज़र


दहशत में डूबा डूबा है

अब सारे आलम का मंज़र


दूर तलक अब तो दिखता है

पलकों पर शबनम का मंज़र


ज़ख्मों के बाज़ार सजे हैं

ग़ायब है मरहम का मंज़र


चीखों के इस शोर में मौला

पैदा कर सरगम का मंज़र


रफ़्ता-रफ़्ता अब आहों में

बदला है मौसम का मंज़र


लाशें ही लाशें बिखरी है

हर सू देख सितम का मंज़र


'अहद' नहीं देखा बरसों से

पायल की छम छम का मंज़र


फेसबुक लिंक अमित अहद -


Friday, August 27, 2021

सदियों का सारांश -ज्ञान पीठ से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह-श्री दविजेंद्र द्विज दारा लिखित


 “सदियों का सारांश “ ग़ज़ल संग्रह – श्री द्विजेंद्र द्विज

अगर मैं ये कहूँ कि मैं समीक्षा कर रहा हूँ तो ये अमर्यादित होगा , बस अपने मन की बात करना चाहता हूँ जो कि काफी चलन में भी है | मैं द्विज सर से तकरीबन ३० साल से जुड़ा हुआ हूँ | द्विज जी वो सूर्य हैं जिससे मैनें भी रौशनी हासिल की है तो मेरा कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर हो जाएगा | उनको बधाई देते हुए मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ |
शाइरी वास्तव में जन , गण और मन की व्यथा का सारांश ही तो है और ये व्यथा बाबा आदम के ज़माने से जस की तस बनी हुई है | इस व्यथा से हर कोई वाक़िफ़ होता है लेकिन शाइर इस व्यथा को अपने अंदाज़ में , एक विशेष भाषाई शैली में ,शेर कहकर पाठक को ठीक उसी धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है जिस पर खड़े होकर वो ख़ुद शेर कहता है | एक सच्चा शेर कुछ ऐसा कमाल का चमत्कार करता है कि पाठक को विभोर कर देता है और पढ़ने वाले को लगता है कि ये उसने ही कहा है ,उसके लिए ही है और उसकी ही पीड़ा है , उसके ही जीवन का सारांश है|
अब देखिए द्विज जी कैसे कुरेदते है व्यथा को , कैसे सजाते है व्यथा को , कैसे तंज़ करते हैं और कैसे पाठक के मन में टीस पैदा करते हैं | ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ में ही ये क़ाबलियत है कि वो सब कुछ एक साथ लेकर चलती है ,बह्र भी ,कहन भी , शेरीयत भी ,भाषा भी ,संगीत भी और शाइर के शेर कहने की कुव्वत भी –
तमाम हसरतें सोई रहें सुकून के साथ
चलो कि दिल को बना लें एक मज़ार
हम सब इस खिते में पैदा हुए हैं , हमारी पीड़ा सांझी है और मैं तो ये समझता हूँ कि ये पीड़ा इश्वर की देन नहीं है ये व्यवस्था की देन है ,सियासत की देन है और ये सिलसिला सदियों से वैसा ही है ,कुछ नहीं बदला –
एक अपना कारवाँ है ,एक सी है मुश्किलें
रास्ता तेरा अगर है पुरख़तर मेरा भी है
मैं उड़ानों का तरफ़दार उसे कैसे कहूँ
बाल-ओ –पर है जो परिंदों के कतरने वाला
और द्विज जी के इस शेर को सुनकर एक और उनका शेर मेरे ज़हन में लडकपन से बैठा हुआ है –
पंख पकड़कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समन्दर पार का सपना ,सपना ही रह जाता है
जिसे बाद में द्विज जी ने कुछ इस तरह से इसे संवार कर लिखा -
पंख क़तर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
नील गगन की आंख का सपना ,सपना ही रह जाता है
मैं कई बार उनसे बात करता हूँ और अक़सर पूछता हूँ कि ये दुनिया क्या आदम के ज़माने से ही ऐसी है या फिर अब हुई है ,क्यों अवतारी आत्माएं भी इसे वैसा नहीं बना पाई जैसा शायर चाहता है | तो द्विज जी ने के एक बार बड़ी अच्छा कोट(quote) अंग्रेजी साहित्य का सांझा किया -
“If you know everything then go and commit suicide” When you realized the TRUTH then you left this materialistic world like Budh did.
सो ग़ालिब भी कुछ ऎसी मनोदशा में कहता है –
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
इरादा छोड़ भी दो खुद्कुशी का
नया कुछ नाम रख लो ज़िन्दगी का (द्विज जी )
लेकिन द्विज जी के भीतर का शायर पलायन का रास्ता इख्तियार नही करता , नायक की तरह हार भी नहीं मानता और अंत तक लड़ता है और कहता है –
मैं उस दरख्त का अंतिम वो ज़र्द पत्ता हूँ
जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ़ लड़ना था
द्विज जी की शाइरी , हिन्दी या उर्दू से परहेज़ नहीं करती बल्कि दोनों को दुलारती है –
ताज़गी, खुशबू ,इबादत ,मुस्कुराहट ,रौशनी
किस लिए है आज मेरी कल्पनाओं के खिलाफ़
द्विज जी भले दुष्यंत के हाथ से ग़ज़ल को पकड़कर आगे चलते हैं लेकिन वो इसे और आगे लेकर जाते हैं जहां रिवायत और जदीदियत में फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है और यही उनको दुष्यंत से अलग भी करता है |
किसी को ठौर –ठिकानों में पस्त रखता है
हमें वो पाँव के छालों में मस्त रखता है
जब अख़बार और मीडिया सरकारी जूतियाँ सीधी करने लगे तो शायर चुप नहीं बैठा ,शायद इसलिए कहते हैं कि सच को जानना हो तो उस समय की लिखी कविता कों पढ़ो ,उस समय के लिखे इतिहास या अख़बार को नहीं | सलाम है द्विज जी की इस निर्भीकता को –
किसानों पर ये लाठी भांज कर फसलें उगायेगी
अभी देखा नहीं तुमने मेरी सरकार का जादू
और फिर देखो ये हिम्मत और ज़ब्त –
रू –ब-रू हमसे हमेशा रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार सम्भाले हुए हैं
इन्हें भी कब का अंधेरा निगल गया होता
हमारे अज्म ने रखे हैं हौसले रौशन
अनछूहे सिम्बल और कहन की बेमिसाल बानगी ये शेर –
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकंदर को सिकंदर नहीं रहने देता
देखो शायर कैसे आंखे मिलाकर आसमान से सवाल पूछता है, ये मग़रूर आस्मां हमारे राहबरों जैसा ही तो है -
जुरअत करे ,कहे तो कोई आसमान से
पंछी कहां गए ,जो न लौटे उड़ान से
खामुशी की बर्फ़ में अहसास को जमने न दे
गुफ़्तगू की धुप में आकर पिघलकर बात कर
आप जैसे– जैसे द्विज जी की ग़ज़लें पढ़ते जायेंगे वैसे एक सुरूर सा तारी हो जाएगा आप पर और फिर एक से एक शेर कभी बारिश तो कभी बिजली बनकर कौंदेंगे, आपको खुश भी करेंगे ,उदास भी और पहाड़ की तरह अडिग रहने का उपदेश भी देंगे |
गिरा है आंख से जो एक आंसू
वही क़तरा समन्दर हो गया तो
यहां भी मुंतज़िर कोई नहीं था
मिला ये क्या मुझे घर वापसी से
गमे-जाना , ग़में –दुनिया से आख़िर
ग़ज़ल में किस तरह घुल –मिल गया है
ज़ब्त जब इम्तिहान तक पहुंचा
ग़म भी मेरा बयान तक पहुंचा
औज़ार बाँट कर ये सभी तोड़ - फोड़ के
रक्खोगे किस तरह भला दुनिया को जोड़ के
वास्तव में ग़म चाहे कोई भी हो ज़िंदगी का ही ग़म है, उसे रिवायती अंदाज़ में कहो या फिर जदीद शाइरी के हवाले से , जुड़ा वो हमेशा ज़िंदगी से ही होगा | कुछ आप बीती , कुछ जगबीती सब कुछ मिला- जुला , यही कुछ द्विज जी की ग़ज़लों में भी है ,हर रंग है इनमें और एक अपना अलहदा रंग भी है -
मैं भी रंगने लगा हूँ बालों को
वो भी अब झुर्रियां छुपाती है
माँ , मैं ख़्वाबों से खौफ़ खाता हूँ
क्यों मुझे लोरियां सुनाती है ?
अब ख़त्म हो चुका तक़रीर का वो जादू
सारा बयान तेरा सस्ता –सा चुटकुला है
बीते कल को अपनी दुखती पीठ पर लादे हुए
ढोयेंगे कल आने वाले कल को भी थैलों में लोग
यक़ीनन हो गया होता मैं पत्थर
सफ़र में मुड़के पीछे देखता जो
और एक मेरा पसंदीदा शेर जो द्विज जी के पहले ग़ज़ल संग्रह “जन गण मन” से है , जो मुझे बेहद पसंद है -
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिंधती हैं उंगलियाँ भी जिसे टांकते हुए
और शायद सारांश भी यही है ज़िन्दगी के सदियों के सफ़र का कि बस चलते रहो, जैसे कोई नदी दिन –रात चलती है , चलना आदत भी है , मजबूरी भी है और शायद गतिशीलता, आधार भी है जीवन का –
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या और तिश्नगी क्या
आगे बढ़ने पे मिलेंगे तुझे कुछ मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ
और मुझे आस है कि अभी बहुत कुछ अनकहा है द्विज जी के पास जो फिर से एक और ग़ज़ल संग्रह में फिर से महकेगा |बड़ी खूबसूरती के साथ ज्ञानपीठ ने इसे छापा है और विजय कुमार स्वर्णकार जी ने कम शब्दों में वो सब कुछ कह दिया जो “सदियों का सारांश” का सार है | हिमाचल , जो बर्फ और सेबों के लिए जाना जाता है वो अब द्विज जी की ग़ज़लों से भी जाना जाएगा और हिमाचल भी ग़ज़ल से वैसे ही महकेगा जैसे दिल्ली और लखनऊ महकते हैं अगर कुछ खाद –पानी हिमाचल का भाषा विभाग भी डाले तो ग़ज़ल हिमाचल में और फल –फूल सकती है |
धुंध की चादर हटा देंगे अभी सूरज मियाँ
फिर पहाड़ों पर जगेगी धूप भी सोई हुई
सादर
सतपाल ख़याल
*(उद्दित सारे शेर “सदियों का सारांश “ से लिए गए हैं , आप इसे अमेजन से ख़रीद सकते हैं )

Thursday, September 15, 2016

मेरी एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र

ग़ज़ल

हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है?
क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है?

किसने जाना है, जो तू जानेगा
क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है?

दर-बदर खाक़ छानते हो तुम
इतना भटके हो पर मिला क्या है?

खोज लेंगे अगर बताए कोई
उसके घर का मगर पता क्या है?

एक अर्जी खुशी की दी थी उसे
उस गुज़ारिश का फिर हुआ क्या है?

हम ग़रीबों को ही सतायेगी
ज़िंदगी ये तेरी अदा क्या है?

मुस्कुरा कर विदाई दे मुझको
वक़्ते-आखिर है , सोचता क्या है?

दर्द पर तबसिरा किया उसने
हमने पूछा था बस दवा क्या है?

बेवफ़ा से ही पूछ बैठे "ख़याल"
क्या बाताये वो अब वफ़ा क्या है?