Tuesday, September 14, 2021
हिंदी दिवस पर कविता - दुष्यंत कुमार Hindi Diwas 2021
हिन्दी दिवस पर विशेष प्रस्तुति - राम प्रसाद बिस्मिल की एक ग़ज़ल -Hindi Diwas 2021
Monday, September 13, 2021
छंद और बहर में क्या अंतर है ? Behar me kaise likhen
छंद - अगर हमें हिन्दी कविता लिखनी है तो छंद का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है | ग़ज़ल कहने के लिए छंद को समझने की ज़रूरत नहीं है | दोनों एक दुसरे से अलग हैं | ग़ज़ल कहने के लिए बहर को जानना जरूरी है | छंद या मात्रिक होते हैं या वर्ण आधारित ,जिसमें मात्रओं की गिनती आदि की जाती है लेकिन बहर में मात्राएँ नहीं गिनी जाती | बहर का अपना अलग तरीक़ा है ,जिसमें किसी एक मिसरे (पंक्ति ) को छोटी -बड़ी आवाज़ों को एक फिक्स्ड पैटर्न में लिखा जाता है जिसे हम हिन्दी में गुरू -लघु की तरह लिखकर सीख सकते हैं | एक शब्द को कैसे तोड़ना ,कैसे उसका वज्न लिखना आदि सीखा जाता है |
इस विषय को आप इस पोस्ट के लिंक पर जाकर विस्तार से पढ़ सकते हैं -
Saturday, September 11, 2021
मिर्ज़ा ग़ालिब और दाग़ देहल्वी: एक ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें
ग़ालिब
ये
न थी हमारी क़िस्मत के विसाल -ए-यार होता
अगर
और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे
वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि
ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी
नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अ़हद बोदा
कभी
तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई
मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये
ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये
कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई
चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता
रग-ए-संग
से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे
ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म
अगर्चे जां-गुसिल है, पर
कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़
गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ
किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म
बुरी बला है
मुझे
क्या बुरा था मरना? अगर
एक बार होता
हुए
मर के हम जो रुस्वा, हुए
क्यों न ग़र्क़ -ए-दरिया
न
कभी जनाज़ा उठता,
न
कहीं मज़ार होता
उसे
कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो
दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये
मसाइल-ए-तसव्वुफ़,
ये
तेरा बयान "ग़ालिब”
तुझे
हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता
दाग़ दहेल्वी
अजब
अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी
जान सदक़े होती कभी दिल निछार होता
कोई
फ़ितना था क़यामत ना फिर आशकार होता
तेरे
दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता
जो
तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता
तुम्हीं
मुन्सिफ़ी से कह दो तुम्हे ऐतबार होता
ग़म-ए-इश्क़
में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये
वो ज़हर है कि आखिर मै-ए-ख़ुशगवार होता
ना
मज़ा है दुश्मनी में ,ना ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई
ग़ैर, ग़ैर होता ,कोई यार यार होता
ये
मज़ा था दिल्लगी का, कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता, न मुझे क़रार होता
तेरे
वादे पर सितमगर, अभी और सब्र करते
अगर
अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता
ये
वो दर्द-ए-दिल नहीं है, कि हो चारासाज़ कोई
अगर
एक बार मिटता तो हज़ार बार होता
गए
होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे
क्या उलट ना देता जो ना बादाख़्वार होता
दर-ए-यार
काबा बनता जो मेरा मज़ार होता
तुम्हे
नाज़ हो ना क्योंकर ,कि लिया है “दाग़”
का
दिल
ये
रक़म ना हाथ लगती, न ये इफ़्तिख़ार होता
Friday, September 10, 2021
एक ज़मीन में दो शायरों की ग़ज़लें- मोमिन और बशीर बद्र(Momin Khan Momin-Bashir Badr)
मोमिन खां मोमिन -
असर उसको ज़रा नहीं होता
बशीर बद्र
कोई काँटा चुभा नहीं होता
निदा फ़ाज़ली और कबीर-एक ज़मीन दो शायर -Nida Fazli-Kabir
निदा फ़ाज़ली और कबीर एक ही ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें-
फरहत शहज़ाद साहब का ताज़ा शे'र
काट कर पैर ,कर दिया आज़ाद जब उसने मुझे
Thursday, September 9, 2021
राहत इंदौरी साहब के पांच खूबसूरत शेर - Rahat Indori
शाख़ों से टूट
जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह
दे कि औक़ात में रहे
रोज़ तारों को
नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
हाथ ख़ाली हैं
तिरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते
बीमार को मरज़
की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए
आते जाते हैं
कई रंग मिरे चेहरे पर
लोग लेते हैं मज़ा ज़िक्र तुम्हारा कर के
राहत इंदौरी
1 Jan1950-11 August 2020
Wednesday, September 8, 2021
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब ,तरही मुशायरा
दोस्तो ! हम इस ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"(श्री द्विजेन्द्र द्विज जी द्वारा संरक्षित) पर तरही मुशायरे का आयोजन कर रहे हैं
Monday, September 6, 2021
अमित अहद की एक ग़ज़ल - Ek ghazal
तेरे मेरे ग़म का मंज़र
हर सू है मातम का मंज़र
मुद्दत से इक जैसा ही है
यादों की अलबम का मंज़र
दहशत में डूबा डूबा है
अब सारे आलम का मंज़र
दूर तलक अब तो दिखता है
पलकों पर शबनम का मंज़र
ज़ख्मों के बाज़ार सजे हैं
ग़ायब है मरहम का मंज़र
चीखों के इस शोर में मौला
पैदा कर सरगम का मंज़र
रफ़्ता-रफ़्ता अब आहों में
बदला है मौसम का मंज़र
लाशें ही लाशें बिखरी है
हर सू देख सितम का मंज़र
'अहद' नहीं देखा बरसों से
पायल की छम छम का मंज़र
फेसबुक लिंक अमित अहद -
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स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
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आदाब ! मुशायरे मे आए सभी शायरों / ग़ज़लकारों का मैं स्वागत करता हूँ . आज हमारे बीच बैठे हैं: सर्व श्री बृज कुमार अग्रवाल , कृश्न कुमार “तूर” ,...