Tuesday, September 14, 2021

हिंदी दिवस पर कविता - दुष्यंत कुमार Hindi Diwas 2021

 

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है
क्यों करूँ आकाश की मनुहार 
अब तो पथ यही है

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए
आज हर नक्षत्र है अनुदार
अब तो पथ यही है

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार
अब तो पथ यही है

नज़्म:  कविता कोष से साभार 

हिन्दी दिवस पर विशेष प्रस्तुति - राम प्रसाद बिस्मिल की एक ग़ज़ल -Hindi Diwas 2021



न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना 
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना

करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख 
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना

लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखुं हिन्दी 
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना 


भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की 
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना 

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन 
करुं में प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना 

नहीं कुछ ग़ैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना 







Monday, September 13, 2021

छंद और बहर में क्या अंतर है ? Behar me kaise likhen

छंद - अगर हमें हिन्दी कविता लिखनी है तो छंद का ज्ञान होना बहुत  ज़रूरी है | ग़ज़ल कहने के लिए छंद को समझने की ज़रूरत नहीं है | दोनों एक दुसरे से अलग हैं | ग़ज़ल कहने के लिए बहर को जानना जरूरी है | छंद  या मात्रिक होते हैं या वर्ण आधारित ,जिसमें मात्रओं  की गिनती आदि की जाती है लेकिन बहर  में मात्राएँ नहीं गिनी जाती | बहर का अपना अलग तरीक़ा है ,जिसमें किसी एक मिसरे (पंक्ति ) को छोटी -बड़ी आवाज़ों को एक फिक्स्ड पैटर्न में लिखा जाता है जिसे हम हिन्दी में गुरू -लघु की तरह लिखकर सीख सकते हैं | एक शब्द को कैसे तोड़ना ,कैसे उसका वज्न लिखना आदि सीखा जाता है |


इस विषय को आप इस पोस्ट के लिंक पर जाकर विस्तार से पढ़ सकते हैं -


http://aajkeeghazal.blogspot.com/2010/02/blog-post_06.html

Saturday, September 11, 2021

Ek she'r


 

मिर्ज़ा ग़ालिब और दाग़ देहल्वी: एक ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें

 

ग़ालिब

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल -ए-यार होता

अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता

 

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

 

तेरी नाज़ुकी  से जाना कि बंधा था अ़हद  बोदा

कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार  होता

 

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को

ये ख़लिश  कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

 

ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह

कोई चारासाज़  होता, कोई ग़मगुसार  होता

 

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता

जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता

 

ग़म अगर्चे जां-गुसिल  है, पर  कहां बचे कि दिल है

ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

 

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता

 

हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़ -ए-दरिया

न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता

 

उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना  है वो यकता

जो दुई  की बू भी होती तो कहीं दो चार होता

 

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब

तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

 

दाग़ दहेल्वी


अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता

कभी जान सदक़े होती कभी दिल निछार होता

 

कोई फ़ितना था क़यामत ना फिर आशकार होता

तेरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता


जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता

तुम्हीं मुन्सिफ़ी से कह दो तुम्हे ऐतबार होता

 

ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते

ये वो ज़हर है कि आखिर मै-ए-ख़ुशगवार होता

 

ना मज़ा है दुश्मनी में ,ना ही लुत्फ़ दोस्ती में

कोई ग़ैर, ग़ैर होता ,कोई यार यार होता

 

ये मज़ा था दिल्लगी का, कि  बराबर आग लगती

न तुझे क़रार होता, न मुझे क़रार होता

 

तेरे वादे पर सितमगर, अभी और सब्र करते

अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता

 

ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है, कि हो चारासाज़ कोई

अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता

 

गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी

मुझे क्या उलट ना देता जो ना बादाख़्वार होता

 

 मुझे मानते सब ऐसा कि उदूं भी सजदा करते

दर-ए-यार काबा बनता जो मेरा मज़ार होता

 

तुम्हे नाज़ हो ना क्योंकर ,कि लिया है दाग़का दिल

ये रक़म ना हाथ लगती, न ये इफ़्तिख़ार होता

 

Friday, September 10, 2021

एक ज़मीन में दो शायरों की ग़ज़लें- मोमिन और बशीर बद्र(Momin Khan Momin-Bashir Badr)

 एक ज़मीन में दो शायरों की ग़ज़लें-


 

मोमिन खां मोमिन -

 असर उसको ज़रा नहीं होता 

रंज राहत-फिज़ा नहीं होता 

बेवफा कहने की शिकायत है
तो भी वादा वफा नहीं होता 

जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता 

तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता 

उसने क्या जाने क्या किया लेकर
दिल किसी काम का नहीं होता 

नारसाई से दम रुके तो रुके
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता 

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता 

हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता 

क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ मोमिन
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता 


 बशीर बद्र

 कोई काँटा चुभा नहीं होता

दिल अगर फूल सा नहीं होता

मैं भी शायद बुरा नहीं होता
वो अगर बेवफ़ा नहीं होता

बेवफ़ा बेवफ़ा नहीं होता
ख़त्म ये फ़ासला नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज-कल दिन में क्या नहीं होता


एक शे'र

 


निदा फ़ाज़ली और कबीर-एक ज़मीन दो शायर -Nida Fazli-Kabir

 

निदा फ़ाज़ली और कबीर एक ही ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें-


निदा साहब -

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या


 कबीर -Kabiirdas


हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?


फरहत शहज़ाद साहब का ताज़ा शे'र

 काट कर पैर ,कर दिया आज़ाद जब उसने मुझे

देख सकती थीं जो आंखें ,उनको नम होना पड़ा
फरहत शहजाद साहब |

Thursday, September 9, 2021

राहत इंदौरी साहब के पांच खूबसूरत शेर - Rahat Indori

 

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम

आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

 

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है


हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते

जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते

 

बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए

मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए

 

आते जाते हैं कई रंग मिरे चेहरे पर

लोग लेते हैं मज़ा ज़िक्र तुम्हारा कर के


राहत इंदौरी

1 Jan1950-11 August 2020

आज का शे'र -ग़ालिब /Ghalib


 

Wednesday, September 8, 2021

"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब ,तरही मुशायरा

 दोस्तो ! हम इस ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"(श्री द्विजेन्द्र द्विज जी द्वारा संरक्षित) पर तरही मुशायरे का आयोजन कर रहे हैं

बहरे खफ़ीफ में इस बार का तरही मिसरा है -
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़'इ 'लुन
2122 1212 22/112/1121
रदीफ़ -कहाँ
काफिया -वबाल ,विसाल आदि |
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
अगले सोमवार तक आप अपनी गज़लें इन-बाक्स में भेज दें |
Past is nothing but new future with new Calender and New dates. Isnt it ? इतिहास अपने आप को दुहराता है |

Monday, September 6, 2021

अमित अहद की एक ग़ज़ल - Ek ghazal








सहारनपुर के युवा शायर अमित अहद की एक ग़ज़ल

तेरे मेरे ग़म का मंज़र

हर सू है मातम का मंज़र


मुद्दत से इक जैसा ही है

यादों की अलबम का मंज़र


दहशत में डूबा डूबा है

अब सारे आलम का मंज़र


दूर तलक अब तो दिखता है

पलकों पर शबनम का मंज़र


ज़ख्मों के बाज़ार सजे हैं

ग़ायब है मरहम का मंज़र


चीखों के इस शोर में मौला

पैदा कर सरगम का मंज़र


रफ़्ता-रफ़्ता अब आहों में

बदला है मौसम का मंज़र


लाशें ही लाशें बिखरी है

हर सू देख सितम का मंज़र


'अहद' नहीं देखा बरसों से

पायल की छम छम का मंज़र


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