“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
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“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
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आरज़ू
लखनवी - १८७३-१९५१
ग़ज़ल
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी
कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी
बहा ले गया बरसात का पहला पानी
टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ
कही
खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी
बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका
आरजू
देखते ही मुँह में भर आया पानी
ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम
"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी
छंद - अगर हमें हिन्दी कविता लिखनी है तो छंद का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है | ग़ज़ल कहने के लिए छंद को समझने की ज़रूरत नहीं है | दोनों एक दुसरे से अलग हैं | ग़ज़ल कहने के लिए बहर को जानना जरूरी है | छंद या मात्रिक होते हैं या वर्ण आधारित ,जिसमें मात्रओं की गिनती आदि की जाती है लेकिन बहर में मात्राएँ नहीं गिनी जाती | बहर का अपना अलग तरीक़ा है ,जिसमें किसी एक मिसरे (पंक्ति ) को छोटी -बड़ी आवाज़ों को एक फिक्स्ड पैटर्न में लिखा जाता है जिसे हम हिन्दी में गुरू -लघु की तरह लिखकर सीख सकते हैं | एक शब्द को कैसे तोड़ना ,कैसे उसका वज्न लिखना आदि सीखा जाता है |
इस विषय को आप इस पोस्ट के लिंक पर जाकर विस्तार से पढ़ सकते हैं -
ग़ालिब
ये
न थी हमारी क़िस्मत के विसाल -ए-यार होता
अगर
और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे
वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि
ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी
नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अ़हद बोदा
कभी
तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई
मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये
ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये
कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई
चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता
रग-ए-संग
से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे
ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म
अगर्चे जां-गुसिल है, पर
कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़
गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ
किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म
बुरी बला है
मुझे
क्या बुरा था मरना? अगर
एक बार होता
हुए
मर के हम जो रुस्वा, हुए
क्यों न ग़र्क़ -ए-दरिया
न
कभी जनाज़ा उठता,
न
कहीं मज़ार होता
उसे
कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो
दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये
मसाइल-ए-तसव्वुफ़,
ये
तेरा बयान "ग़ालिब”
तुझे
हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता
दाग़ दहेल्वी
अजब
अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी
जान सदक़े होती कभी दिल निछार होता
कोई
फ़ितना था क़यामत ना फिर आशकार होता
तेरे
दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता
जो
तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता
तुम्हीं
मुन्सिफ़ी से कह दो तुम्हे ऐतबार होता
ग़म-ए-इश्क़
में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये
वो ज़हर है कि आखिर मै-ए-ख़ुशगवार होता
ना
मज़ा है दुश्मनी में ,ना ही लुत्फ़ दोस्ती में
कोई
ग़ैर, ग़ैर होता ,कोई यार यार होता
ये
मज़ा था दिल्लगी का, कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता, न मुझे क़रार होता
तेरे
वादे पर सितमगर, अभी और सब्र करते
अगर
अपनी ज़िंदगी का हमें ऐतबार होता
ये
वो दर्द-ए-दिल नहीं है, कि हो चारासाज़ कोई
अगर
एक बार मिटता तो हज़ार बार होता
गए
होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे
क्या उलट ना देता जो ना बादाख़्वार होता
दर-ए-यार
काबा बनता जो मेरा मज़ार होता
तुम्हे
नाज़ हो ना क्योंकर ,कि लिया है “दाग़”
का
दिल
ये
रक़म ना हाथ लगती, न ये इफ़्तिख़ार होता
मोमिन खां मोमिन -
असर उसको ज़रा नहीं होता
बशीर बद्र
कोई काँटा चुभा नहीं होता
निदा फ़ाज़ली और कबीर एक ही ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें-
काट कर पैर ,कर दिया आज़ाद जब उसने मुझे
शाख़ों से टूट
जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह
दे कि औक़ात में रहे
रोज़ तारों को
नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
हाथ ख़ाली हैं
तिरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते
बीमार को मरज़
की दवा देनी चाहिए
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए
आते जाते हैं
कई रंग मिरे चेहरे पर
लोग लेते हैं मज़ा ज़िक्र तुम्हारा कर के
राहत इंदौरी
1 Jan1950-11 August 2020