Monday, June 8, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता- तीसरी किश्त









मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.अंतिम किश्त अभी बाकी है.


ग़ज़ल: एम.बी. शर्मा ‘मधुर’

गर मुक़द्दर लिखा नहीं होता
कोई रुस्तम छुपा नहीं होता

कौन जाने कि आए कब कैसे
मौत का कुछ पता नहीं होता

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता

बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता

हाल मेरा न पूछते आकर
ज़ख़्म फिर से हरा नहीं होता

जानते हैं शराब दोज़ख़ है
नश्अ हर आप-सा नहीं होता

वक़्त नाज़ुक़ वही जहाँ कोई
बीच का रास्ता नहीं होता



ग़ज़ल : पुर्णिमा वर्मन

काश सूरज ढला नहीं होता
दिन मेरा अनमना नहीं होता

धूप में मुस्कुरा नहीं पाते
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता

राह खुद ही निकल के आती है
जब कोई रास्ता नहीं होता

ज़िंदगी का सफ़र न कट पाता
वो अगर हमनवा नहीं होता



ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस की ग़ज़ल

ग़म में गर मुब्तिला नहीं होता
मुझको मेरा पता नहीं होता

जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल खुदा नहीं होता

दर्द का सिलसिला नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता

वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

मैं अगर हूँ तो कुछ अलग क्या है
मैं न होता,तो क्या नहीं होता

दूसरों का बुरा जो करता है
उसका अपना भला नहीं होता

जब तलक आग में न तप जाये
देख , सोना खरा नहीं होता

क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता

हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझसे
क्या कोई हादिसा नहीं होता ?

सीख लेता जो तौर दुनिया के
कोई मुझसे खफा नहीं होता

ये ज़मीं आसमान हो जाये
ठान ही लो तो क्या नहीं होता

जो न गुज़रा तुम्हारी सोहबत में
पल वही खुश-नुमा नहीं होता

कैसे निभती खिजां के मौसम से
दिल अगर फूल-सा नहीं होता

जिंदगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता

हौसला-मंद कब के जीत चुके
काश!मैं भी डरा नहीं होता

बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता

डोर टूटेगी किस घड़ी 'मुफलिस'
कुछ किसी को पता नहीं होता



ग़ज़ल: चन्द्रभान भारद्वाज

प्यार में यूँ दिया नहीं होता;
दिल अगर फूल सा नहीं होता

प्यार की लौ सदा जली रहती
इसका दीया बुझा नहीं होता

एक सौदा है सिर्फ घाटे का
प्यार में कुछ नफा नहीं होता

रात करवट लिये गुजरती है,
दिन का कुछ सिलसिला नहीं होता

ज़िन्दगी भागती ही फिरती है
प्यार का घर बसा नहीं होता

लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता

पहले हर बात का भरोसा था
अब किसी बात का नहीं होता

प्यार का हर धड़ा बराबर है
कोई छोटा बड़ा नहीं होता

पूरी लगती न 'भारद्वाज' गज़ल
प्यार जब तक रमा नहीं होता



ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

ग़म ग़ज़ल मे ढला नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

होता है सिर्फ वो मेरे दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता

कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता

सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता

हम से सब कुछ बयान होता है
पर बयाँ मुद्दआ नहीं होता

हम न होते तो गेसु-ए- सुम्बुल
इतना सँवरा- सजा नहीं होता

याद रखना कि भूल ही जाना
बस में कुछ बा-खु़दा नहीं होता

चाहने से किसी के हम सफरो
कभी अच्छा-बुरा नहीं होता

ज़ख्म-ए-दिल कैकटस है सहरा का
कब भला ये हरा नहीं होता

हम जुनूं केश से कभी नय्यर
इश्क का हक़ अदा नहीं

20 comments:

सतपाल ख़याल said...

काबिले-गौर अशआर:
एम.बी. शर्मा ‘मधुर’
बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता
पुर्णिमा वर्मन
मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता
डी.के. मुफ़लिस
बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता
चन्द्रभान भारद्वाज
लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता
ख़ुर्शीदुल हसन
कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता
तहे-दिल से मैं सब शायरों का शुक्रिया अदा करता हूँ.

निर्मला कपिला said...

लाजवाब मधुर जी
हाल मेरा ना पूछ्ह्ते आकर
जख्म फिर से हरा ना होता
कौन जाने आये कब कैसे
मौत का पता नहिन होता
और पूर्णिमा जि का
राह खुद ही निकल के आति है
जब कोई रास्ता नहिं होता
मुफ्लिस जी ने तो कमाल कर दिया
वक्त करता है फैसले सारे
कोई अछ्ह बुरा नहीं होता
ज़िन्दगी क्या है चंम्द समझौते
कर्ज़ फिर भी अदा नहीं होता इस अशार ने तो दिल छूलिय है
भा्रद्वाज जी का बेह्त्रीन अशार
लोग सदियोम की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता
और नय्यर सहिब का कमाल
हम ना होते तो ये गेसु-ए-सुम्बल
इतना सँवरा सजा ना होता
कौन पढता इबारतें दिल की
चेहरा गर आईना ना होता
बहुत ही खूब्सूरत गज़लों के लिये शुक्रिया और मुबारकवाद्

नीरज गोस्वामी said...

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता
वक़्त नाज़ुक़ वही जहाँ कोई
बीच का रास्ता नहीं होता
:एस.बी.शर्मा 'मधुर'

राह खुद ही निकल के आती है
जब कोई रास्ता नहीं होता
:पूर्णिमा बर्मन

वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता

जिंदगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता

बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता
:मुफलिस साहेब

लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता
: चन्द्र भान भारद्वाज

सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता
:खुर्शिदुल हसन नय्यर

आपकी पोस्ट के समंदर में गोता लगा कर ये कुछ मोती चुन लाया हूँ...एक से बढ़ कर एक उम्दा शायरों ने शिरकत की है आपके तरही मुशायरे में...और क्या ग़ज़ब के शेर कहें हैं...मुफलिस साहेब अपनी ग़ज़लों में तो कहर ढाते ही हैं आज तरही ग़ज़ल में भी धूम मचाते देखे गए हैं...

सतपाल जी आपके इस प्रयास की जितनी तारीफ की जाये कम है...बहुत बहुत मुबारकबाद कबूल करें...
नीरज

jogeshwar garg said...

इस किश्त की तमाम ग़ज़लें बहुत उम्दा और बेहतरीन हैं
मज़ा आ गया
ख़याल साहब का शुक्रिया

admin said...

सभी गजलें एक से बढकर एक हैं। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

Hai sabhi ka kalam qabil e daad
Deta hoon sab ko main mubarakbad
Ahmad Ali Barqi Azmi

manu said...

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता

बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता

जानदार तेवर,,,,मधुर साहिब के,,,


मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता

बेहतरीन शे'र,,,
मौसम से हर दिन का क्या रिश्ता बनाया है,,,

जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल खुदा नहीं होता
और,,
जो न गुज़रा तुम्हारी सोहबत में
पल वही खुश-नुमा नहीं होता
अंदाजे मुफलिस लाजवाब,,,,बेदिली,बेकसी,अकेलापन,,,कमाल कहा है,,,


पहले हर बात का भरोसा था
अब किसी बात का नहीं होता,,,भारद्वाज जी का ये शे'र बहुत पसंद आया,,,,

कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता
नय्यर साहिब का ये शे'र मन को छो गया,,,,,

सभी गजलें दिल से कही गयी हैं,,,सभी शे'र खूबसूरत बन पड़े हैं,,,,
अगली किश्त का इन्तेजार है,,,,
और उस्सेभी ज्यादा है अगले मिसरे का,,,,
अब के ज़रा लम्बी बहर में दीजिये न सतपाल जी,,,,
:)

तेजेन्द्र शर्मा said...

मेरे मित्र नीरज गोस्वामी ने मेरा एक महत्वपूर्ण काम कर दिया कि मेरी पसन्द के शेरों को अपने पत्र के साथ रेखांकित कर दिया। सभी ग़ज़लकारों को मेरी तरफ़ से अच्छी ग़ज़लों के लिये बधाई।

सतपाल जी ग़ज़ल विधा पर एक छोटी सी बहस ज़रूर होनी चाहिये। क्या हिन्दी ग़ज़ल में शब्दों का उर्दू तल्लफ़ुज़ केवल वज़न पूरा करने के लिये आना चाहिये या नहीं। - नश्अ, हादिसा, मसअला, मुद्दआ, राबिता, आदि शब्दों का इस्तेमाल क्या ज़रूरी है।

हम हिन्दी में उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी, यानि कि दुनियां की तमाम भाषाओं से शब्द लें। मगर जब एक बार उनका तल्लफ़ुज़ तय हो जाए तो अपनी ग़ज़ल के लिये मेरा को मिरा न करें।

यहां सवाल हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों के इस्तेमाल का बिल्कुल नहीं है। सही तल्लफ़ुज़ की बात हो रही है।

उम्मीद है मेरे मित्र लोग इस विषय पर अपनी राय ज़रूर देंगे

तेजेन्द्र शर्मा
कथा यू.के. लन्दन

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

नश्अ, हादिसा, मसअला, मुद्दआ, राबिता,

इन शब्दों के लिए हिन्दी शब्द भी सुझाइये.

"अर्श" said...

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता

मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता

अब हुजुर मुफलिस जी के बारे में क्या कहूँ कौन सा शे'र चुनु अपने आप में कशमकश में हूँ ...

वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

और ज़रा इस शे'र पे गौर फरमाएं मुफलिस जी के ... उफ्फ्फ्फ़ क्या कमाल का लिखा है ....
हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझसे
क्या कोई हादिसा नहीं होता ?

बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता

ज़िन्दगी भागती ही फिरती है
प्यार का घर बसा नहीं होता

हम से सब कुछ बयान होता है
पर बयाँ मुद्दआ नहीं होता

सभी के सभी शईरों ने क्या कमाल के अश'आर निकालें है बहोत खूब ये कुछ नायाब शे'र जो मेरे दिल के बेहद करीब...निकालें... बहोत बहोत बधाई सतपाल जी आपके बगैर तो कुछ मुमकिन नहीं था...

अर्श

Unknown said...

behtreen!
behtreen!
behtreen!

सतपाल ख़याल said...

एक शायर होने के नाते मेरे लिए सबसे ज्यादा अहम ये बात है कि जो मैं कहना चाहता हूँ..is that conveyed or not?

और अगर ये छूट मेरा को मिरा या तेरा को तिरा या मात्रा गिराने की छूट मुझसे छीन ली जाएगी तो मै अपनी बात इतनी सहजता से नहीं कह पाउँगा.और ये नहज़ उर्दू मे हीं नहीं हिंदी मे भी है मसलन : कबीरा खुद को कहीं-कहीं कबिरा कह देते हैं और इधर मिर्ज़ा को मीरज़ा क देते हैं.
तो शायर होने के नाते मैं इस छूट के पक्ष मे हूँ.
2.उच्चारण की बात शुरू करने से पहले...
भाषा या तो किताबी होगी या आम बोलचाल की तो आम बोलचाल की भाषा मे लिखा साहित्य ज्यादा सराहा जाता है जैसे कबीर को हमने अपनाया.आम बोलचाल की भाषा से मिठास तो आ जाती है लेकिन
किताबी भाषा हाशिये पर चली जाती है उस किताबी भाषा को बचाने के लिये भाषा पंडितों का जन्म हुआ और इसी पंडिताई से उनकी रोज़ी-रोटी चली.
प्रश्न ये है कि क्या आम बोलचाल की भाषा के मुताबिक हम किताबी भाषा मे बदलाव लाएँ या किताबी भाषा के मुताबिक आम बोलचाल की भाषा में?

आप शब्द का origin देखें फिर उस भाषा की कद्र करते हुए उसका उच्चारण भी ग्रहण कर लें. लेकिन हिंदी और उर्दू आपस मे गुथीं हुईं है और हमारे अपने अहम हैं,

सो मैं तो सबसे ज्याद कहन पर ज़ोर देता हूँ उसके बाद ये सब..अगर आप शे’र मे शहर को शह्र कह लें लेकिन असल बात तो content है कि आपने कहा क्या. हाँ इतना ज़रूर है ये शब्द जैसे नशा या नशाअ तो इनको तो हम नशा करके भी कह सकते हैं.ग़ज़ल मे सबसे ज़रूरी है कि इसकी नज़ाकत और लहज़े का ख्याल रखा जाए.

ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

Rajat Narula said...

सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता


Bahut sunder rachna hai!

रंजना said...

सारी की सारी गज़लें एक से बढ़कर एक....बहुत बहुत बेहतरीन...बड़ा ही आनंद आया पढ़कर....आभार.

गौतम राजऋषि said...

अहा....तीसरी किश्‍त तो लाजवाब शेरों से भरी पड़ी है...किस पे दाद दें किसको छोड़ें..

पुर्णिमा जी का "रोज दिन एक-सा नहीं होता" कहने का अंदाज़ तो एकदम नायाब है।

और मुफ़लिस साब का "ये ज़मीं आसमान हो जाये
ठान ही लो तो क्या नहीं होता" और "जिंदगी क्या है, चंद समझौते क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता" पर तो सारी दाद कम पड़ जाये।

उधर तेजेन्द्र जी के सवाल तो वही बरसों की चलने वाली बहस हैं
और जैसा कि सतपाल जी ने कहा है तो..फूलों की कहानी तितली की ज़बानी कहने में कुछ तो समझौते करने ही पड़ेंगे, वर्ना इस अफ़साने को सुनेगा कौन, गुनेगा कौन...????

sanjiv gautam said...

एक से बढकर एक बधाई।

Anonymous said...

तेजेंद्र जी,
हर भाषा ,हर लिपि का अपना सौंदर्य होता है.उसको बिगाड़ना कवि का
धर्म नहीं है.कवि का धर्म है उसके सौंदर्य को बरक़रार रखना.स्कूल में बच्चों
को शब्द लिखना सिखाया जाता है.अगर अध्यापक ही स्पेल्लिंग गलत लिखने
लगें तो बच्चे क्या ख़ाक सही लिखना सीखेंगे? "तेरा" या "मेरा" को "तिरा" या
"मिरा लिखना जायज़ नहीं है हिंदी में.चलो मान लेते है इसे जायज़ लेकिन
हिंदी गज़लकारों के लिए एक और भी कठिनाई है .वो है "मेरा" और "तेरा" के
" रा" को भी दबाया जाता है. क्या "मेरा" और "तेरा" को "मेर"
और "तेर" लिखना अच्छा लगेगा?,"हमारा" और " तुम्हारा" के " रा" को भी दबाया जाता है . क्या " हमार" और "तुम्हार" लिखना अच्छा लगेगा?
हिंदी का शब्द कोष बड़ा विशाल है.उसमें हजारों ही ऐसे कर्णप्रिय सरल और सुगम शब्द हैं जो ग़ज़ल के स्वरूप को सौंदर्य
प्रदान करने में समर्थ हैं.चूँकि ग़ज़ल उर्दू से हिंदी में आयी है इसलिए ये समझना कि उर्दू शब्दावलि के बिना ग़ज़ल ग़ज़ल नहीं है, तर्कसंगत नहीं है.
तहजीबों तमद्दुन है फ़क़त नाम के लिए
गुम हो गयी शाइस्त्गी दुनिया की भीड़ में
---------------------
अज़्म को मेरे समझता ये जमाना कैसे
ज़र की मीज़ान पे तुलती है हर औकात यहाँ
ध्यान देने वाली बात ये है कि दोनों शेर हिंदी कवियों
के हैं .जिन शब्दों को उर्दू जानने वाले नहीं समझते हैं उन्हें हिंदी भाषी कैसे
समझ पायेंगे.ग़ज़ल इन दोहों जैसी भी कही जा सकती है--
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गयी मैं भी हो गई लाल
---------------------
जो मैं यह जानती प्रीत किये दुःख होय
नगर ढंढोरा पीटती प्रीत न कीजे कोय
------------------
बांह छुडाय जात हो निबल समझ के मोहि
हिरदय से जब जाओगे तब समझूंगा तोहे
अंत में एक बात और.शायद १९५७ की बात है.
मैं अपनी एक ग़ज़ल लेकर उर्दू के मशहूर उस्ताद शायर पंडित मेला राम
" वफ़ा" जी के पास गया था. एक शेर पर उन्होंने टोक दिया .शेर था-
न इतना नाज़ कर दौर -ऐ -खुशी पर
मुसीबत पूछ कर आती नहीं है
वे बड़े प्यार से बोले-" क्या तुझे हिंदी आती है?"
जवाब में मैंने कहा था" नहीं ,हजूर"
"देख बेटे,तू हिंदी में पढता -लिखता है .उर्दू में शेर कहेगा तो
सब कुछ बनावटी लगेगा.हिंदी में प्यारे -प्यारे शेर कहने की कौशिश कर."
पंडित मेला राम "वफ़ा" जी मेरे "नाज़" शब्द के अशुद्ध
उच्चारण पर प्रसन्न नहीं थे."नाज़" को मैंने "नाज" कहा था.
Pran sharma

Anonymous said...

प्‍यारे भाई सतपाल जी,

पक्ष और प्रतिपक्ष ससद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

बाबा दुष्‍यंत का यह शे'र मुझे इसलिए प्रासंगिक लग रहा है क्‍योंकि बहस वही सार्थक होती है जो काम की बात पर हो। मेरा साफ तौर पर मानना है कि अच्‍छी ग़ज़ल, कविता कहानी या किसी भी कृति में बहस की गुंजाइश नहीं होती। पांडित्‍य की जुगाली करनी हो तो बात और है। शब्‍द लिए जाएं और ग़ज़ल में मीटर के हिसाब से पूरे हों, क्‍या इतना काफी नहीं है। कृपया किसी काम की बात पर बहस चलाए। मैं योगदान दूंगा। ग़ज़ल में कौन कितना योगदान कर रहा है या पहले किसने किया है यह सभी देख ही रहे हैं।

सादर

नवनीत

Anonymous said...

श्री तेजेंद्रजी का प्रश्न बहुत सटीक है और हिंदी कवियों खास कर हिंदी ग़ज़लकारों के सामने एक चुनौती भी है. इस विषय पर अनेक बार अनेक मौकों पर बहस हो चुकी है और आगे भी होती रहेगी. बेशक ग़ज़ल हिंदी की विधा नहीं है. हिंदी में हजारों ग़ज़लें लिखे जाने के बाद भी अनेक विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों ने इस विधा को स्वीकार नहीं किया है अंगीकार करना तो दूर की बात. महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर में एक शोधार्थी को मैंने प्रेरित किया था हिंदी ग़ज़ल विषय पर शोध करने के लिए किन्तु उसे अनुमति नहीं मिली. फिर भी हिंदी ग़ज़ल एक लोकप्रिय विधा बन चुकी है जिसे न केवल कवियों ने अपितु श्रोताओं/पाठकों ने भी सहज स्वीकार एवं अंगीकार कर लिया है. ग़ज़ल की बह्र के वजन को साधने के लिए शब्दों को तोड़-मरोड़ कर उन पर अत्याचार करना आम बात है. उर्दू भाषा और लिपि का मिजाज़ ऐसा करने वालों की सहज भाव से मदद भी करता है. हालांकि कभी कभी ऐसा करना बहुत जरूरी भी हो जाता है फिर भी मेरा मानना है कि ऐसा अपवाद स्वरुप ही किया जाना चाहिए. यह एक स्थायी आदत नहीं बनानी चाहिए. किन्तु इस पर कुछ भी टिप्पणी करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने के सामान है क्योंकि उर्दू के नामी-गिरामी उस्ताद शायरों ने धड़ल्ले से इस आज़ादी का आनंद उठाया है. इसलिए गुस्ताखी माफ़. जहां तक हिंदी कविताओं का [समस्त विधाएं] प्रश्न है उसमे इस आज़ादी का लाभ लेने की प्रवृत्ति बहुत अधिक नहीं है. कभी कभी मज़बूरी या जल्दबाजी में ऐसा किया जाता रहा है. हनुमान चालीसा की एक चौपाई देखिये: "सूक्ष्म रूप धरि सिय हि दिखावा विकट रूप धरि लंक जरावा" सिया को सिय और लंका को लंक लिख कर मात्राएँ बराबर की गयी है. "संकट ते हनुमान छुडावें मन क्रम वचन ध्यान जो लावें" इसमे कर्म को क्रम लिख कर मात्रा सही की गयी है. "जो यह पढें हनुमान चालीसा होई सिद्धि साखी गौरीसा" इसके पहले पद में दो मात्राएं बढ़ रही है जिनके समायोजन के लिए "पढें" को हल्का और "चालीसा" को "चलीसा" पढ़ना पङता है. हनुमानजी और तुलसीदासजी दोनों मुझे क्षमा करें पर ऐसे उदाहरण कबीर, सूरदास, रहीम और रसखान में भी मिल जायेंगे. पद्य और गद्य में यही अंतर है. पद्य रचना करते समय ऐसी समस्याएं आती ही हैं. ग़ज़ल तो और भी कठिन विधा है. कवि अपनी बात एक चौपाई में पूरी नहीं कह पाए तो दो चौपाइयों का जोड़ा बना कर पूरी बात स्पष्ट कर सकता है. किन्तु ग़ज़ल का तो हर शेर अपने आप में पूरी और स्वतंत्र कविता है. उसमे कवि जो बात कहना चाहता है वह पूरी स्पष्ट नहीं हुई तो शेर नाकामयाब हो जाएगा. ग़ज़ल के मिजाज़ के हिसाब से कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि किसी उर्दू शब्द के इस्तेमाल से बात में जो शिद्दत आती है वह भाव उसके पर्यायवाची हिंदी शब्द से प्रकट हो ही नहीं पाता. इसलिए हिंदी ग़ज़लकारों को उर्दू के शब्दों का प्रयोग करना पङता है. पर ऐसा अपवाद स्वरुप ही हो तो अच्छा और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों की बजाय वे ही शब्द काम में लिए जाएँ जो आम हिंदीभाषी को आसानी से समझ में आ जाए. अन्य भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करने से हिन्दी का कोष बढ़ने ही वाला है साथ ही हिंदी की संप्रेषण क्षमता में भी बढोतरी ही होने वाली है. हिंदी एक विशाल बरगद का पेड़ है छुईमुई का पौधा नहीं. जहां तक वज़न का सवाल है उसके नाम पर की जाने वाली तोड़-मरोड़ से बचने के दो उपाय है. एक- आपके शब्द भण्डार की विशालता और दूसरे- आपकी दृढ इच्छा-शक्ति. मेरा अनुभव है कि इस तोड़-मरोड़ से बचा जा सकता है और इस आज़ादी का लाभ अपवाद स्वरुप ही लिया जाना उचित है. जहां तक वर्तनी (स्पेलिंग) का प्रश्न है तो मेरा को मेरा ही लिखना चाहिए मिरा नहीं. पाठक पर भरोसा रखिये वह उसे स्वतः ही मिरा पढ़ लेगा. जोगेश्वर गर्ग. (कृपया इसे बहस में शामिल करें)

KHURSHIDUL HASAN NAIYER said...

muHtaram Satpal jee

aap ne khoob sajaai,y maHfil
har se eh Haq adaa naheN hotaa
jo hai urdu Ghazal se ishq janaab
har ke dil meiN bapaa naheeN hotaa

ek shaandaar maHfil kee aaraai'sh par daad or mubaarak baad, tamaam aHbaab ko khaaS kar Satpal je, Dhwij ji or Barqi ji ke nazr.

khairaNdesh

Khurshidul Hasan Niayer