Sunday, August 2, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-अंतिम किश्त








अंतिम दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.

पूर्णिमा वर्मन

जोर हवाओं का कश्ती को जब वापस ले आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

कितने हैं जो काट सकें तूफ़ानों को पतवारों से
तेज़ हवा में आगे बढ़ना सबसे कब हो पाता है

सागर गहरा नाव पुरानी मन में जागे डर रह रह
एक भरोसा ऊपरवाले का ही पार लगाता है

बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है

दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है

सतपाल ख़याल

शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है

जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है

देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है

तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है

रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है

चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है

Tuesday, July 28, 2009

सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है-तीसरी किश्त







भूपेन्द्र कुमार जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ इस किश्त की शुरूआत करते हैं..

इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है


हाज़िर हैं अगली चार तरही ग़ज़लें:

एक: एम.बी.शर्मा मधुर

बुलबुल के सुर बदले से सय्याद का मन घबराता है
सुर्ख स्याही बन जब खूं तारीख़ नई लिखवाता है

उलफ़त की राहों पे अक्सर देखे मैंने वो लम्हे
जब मैं दिल को समझाता हूँ दिल मुझ को समझाता है

दिलकश चीज़ें तोडेंगी दिल कौन यहां नावाकिफ़ है
फिर भी क्या मासूम लगें दिल धोखा खा ही जाता है

मेहनत के हाथों ने दाने हिम्मत के तो बीज दिए
बाकी रहती रहमत उस की देखें कब बरसाता है

सीना तान के चलने वाले खंजर से कब खौफ़ज़दा
आंख झुका कर वो चलता जो मौत से आंख चुराता है

घर की तल्ख़ हकीकत जब जब पांओं की ज़ंजीर बने
सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दो: भूपेन्द्र कुमार

जेबें ख़ाली हों तो अपना पगला मन अकुलाता है
भरने गर लग जाएँ तो वह बोझ नहीं सह पाता है

इन्सानों की आँखों में भी दरिय़ा सी तुग़ियानी है
पानी लेकिन आँखों का अब कमतर होता जाता है

इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है

महलों में रहने वाला जब कहता है संतोषी बन
झुग्गी में रहने वाला तब मन ही मन मुस्काता है

टीवी चैनल बन जाएँ जब सच्चाई के व्यापारी
सच दिखलाने में आईना मन ही मन शरमाता है

बारिश के पानी में देखूँ, जब भी काग़ज़ की कश्ती
मुझको अपना बीता बचपन बरबस याद आ जाता है

इस जीवन में केवल उसका सपना पूरा होता है
चट्टानें बन कर पल-पल जो लहरों से टकराता है

तूफ़ानों से डर कर जो भी साहिल पर रहता उसका
सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है

तीन: गौतम राजरिशी

शाम ढ़ले जब साजन मेरा बन-ठन कर इतराता है
चाँद न जाने क्यूं बदली में छुप-छुप कर शर्माता है

रोटी की खातिर जब इंसां दर-दर ठोकर खाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

देखा करता है वो हमको यूं तो छुप-छुप के अक्सर
राहों में मिलता है जब भी फिर क्यूं आँख चुराता है

तैर के दरिया पार करे ये उसके बस की बात नहीं
लहरों की गर्जन सुन कर जो साहिल पर थर्राता है

रस्ते में आते-जाते वो आँखें भर देखे जब भी
ख्वाहिश की धीमी आँचों को और जरा सुलगाता है

उसको यारों की गिनती में कैसे रखना मुमकिन हो
काम निकल जाने पर जो फिर मिलने से कतराता है

सूरज गुस्से में आकर जब नींद उड़ाये धरती की
बारिश की थपकी पर मौसम लोरी एक सुनाता है

चार: कवि कुलवंत सिंह

मेरा दिल आवारा पागल नगमें प्यार के गाता है
ठोकर कितनी ही खाई पर बाज नही यह आता है

मतलब की है सारी दुनिया कौन किसे पहचाने रे
कौन करे अब किस पे भरोसा, हर कोई भरमाता है

खून के रिश्तों पर भी देखो छाई पैसे की माया
देख के अपनो की खुशियों को हर चेहरा मुरझाता है

कहते हैं अब सारी दुनिया सिमटी मुट्ठी में लेकिन
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

आँख में मेरी आते आंसू जब भी करता याद उसे
दूर नही वह मुझसे लेकिन पास नही आ पाता है

Saturday, July 25, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-दूसरी किश्त







पेश है अगली चार ग़ज़लें:

एक : शहादत अली निज़ामी

गै़र की आँखों का आसूं भी नींद उड़ा कर जाता है
दर्द ज़माने भर का मेरे दिल में ही क्यों आता है

सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता है

गांव के कच्चे-पक्के रस्ते मुझको याद आते हैं
डाली पर जब कोई परिंदा मीठे बोल सुनाता है

बेताबी बेचैनी दिल की दर्दो अलम और बर्बादी
मेरा हमदम मेरी खातिर ये सौगातें लाता है

रिश्तों की जज़ीर कहां उड़ने देती है पंछी को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

सुनते हैं ये बात निज़ामी का है सब से याराना
नग़मे जो हर रोज वफ़ा के अपनी लय मे गाता है

दो : दर्द देहलवी

रोने वाले के दिल में कब कोई ग़म रह पाता है
बारिश में तो सारा कूड़ा-कर्कट ही बह जाता है

मौतों का शैदाई होकर मरने से घबराता है
ये ही तो इक रस्ता है जो उसके घर तक जाता है

होने को तो हो जाता है लफ़्ज़ों में कुछ अक्स अयाँ
लेकिन उसका हुस्न मुक्कमल शे’र मे कब ढल पाता है

बस्ती-बस्ती, सहरा -सहरा पानी जो बरसाता है
इन्सानों को करबो-बला के मंज़र भी दिखलाता है

सोना लगने लगती है जब देश की मिट्टी आँखों को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दर्द अदब से शे’र भी सुनना सीख न पाया है अब तक
अहले-सुखन की महफ़िल में तू शाइर भी कहलाता है

तीन : विरेन्द्र क़मर बदर पुरी

मां की बीमारी का मंज़र सामने जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

मुट्ठी बांध के आने वाला हाथ पसारे जाता है
बतला अम्मी वो बनजारा आखिर ये क्यों गाता है

बस इक सांस का झगड़ा है सब, आए, आए ,न आए
नादां है इन्सान खनकते सिक्कों पर इतराता है

कितनी सच्ची कितनी झूटी है ये बात खु़दा जाने
सुनते तो हम भी आए हैं अच्छा वक्त भी आता है

छोड़ कमर यह दानिशवर तो उंची-ऊंची हांके हैं
सीधी सच्ची बात प्यार की क्यों इनको समझाता है

चार : देवी नांगरानी

हरियाली के मौसम में जब दौरे-खिजां आ जाता है
शाख पे बैठा पंछी उसके साए से घबराता है

कोई वो गद्दार ही होगा शातिर बनके खेले जो
परदे के पीछे कठपुतली को यूं नाच नचाता है

नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देख ये मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है

साहिल-साहिल, रेती- रेती , जन्मों से प्यासी-प्यासी
प्यास बुझाने का फन " देवी" बादल को क्या आता है

Monday, July 13, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-पहली किश्त








मिसरा-ए-तरह "सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है" पर पहली चार ग़ज़लें.

एक: डॉ दरवेश भारती

इक दूजे का ही तो सहारा वक़्त पे काम आ जाता है
वक़्त पडा जब भी मैं दिल को, दिल मुझ को बहलाता है

राहे-वफ़ा में जाने-वफ़ा का साथ न जब मिल पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

जिनके सहारे बीत रहा है ये संघर्ष भरा जीवन
लम्हा-लम्हा उन यादों का ही मन को महकाता है

चाहे जितनी अंध-गुफाओं में हम क़ैद रहे लेकिन
ध्यान किसी का जब आता है अँधियारा छट जाता है

जीवन और मरण से लड़ने बीच भँवर जो छोड़ गया
क्या देखा मुझमें अब मेरी सिम्त वो हाथ बढाता है

कोई जोगी हो या भोगी या कोई संन्यासी हो
खिंचता चला आता है जब भी मन्मथ ध्वज फेहराता है

जिस इन्सां की जितनी होती है औकात यहाँ 'दरवेश'
वो भी उस पर उतना ही तो रहमो-करम बरसाता है

दो: जोगेश्वर गर्ग

बहला-फुसला कर वह मुझको कुछ ऐसे भरमाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

अंधियारी काली रातों में उल्लू जब जब गाता है
अनहोनी की आशंका से अपना जी घबराता है

सपने देखो फिर जिद करके पूरे कर डालो लेकिन
उनसे बचना जिनको केवल स्वप्न दिखाना आता है

उलझी तो है खूब पहेली लेकिन बाद में सुलझाना
पहले सब मिल ढूंढो यारों कौन इसे उलझाता है

रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है

पलक झपकने भर का अवसर मिल जाए तो काफी है
वो बाजीगर जादूगर वो क्या क्या खेल दिखाता है

क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है

हर होनी अनहोनी से वह करता रहता रखवाली
ईश्वर तब भी जगता है जब "जोगेश्वर" सो जाता है

तीन: अहमद अली बर्क़ी आज़मी

तुझ से बिछड़ जाने का तसव्वुर ज़हन में जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

शब-ए-जुदाई हिज्र में तेरे कैसे गुज़रती है हमदम
दिल में ख़लिश सी उठती है और सोज़े-दुरूँ बढ जाता है

एक अनजाना ख़ौफ सा तारी हो जाता है शबे-फ़िराक़
जाने तू किस हाल में होगा सोच के दिल धबराता है

कैफो सुरूरो-मस्ती से सरशार है मेरा ख़ान-ए-दिल
मेरी समझ में कुछ नहीं आता तुझसे कैसा नाता है

है तेरी तसवीरे-तसव्वुर कितनी हसीं हमदम मत पूछ
आजा मुजस्सम सामने मेरे क्यूँ मुझको तरसाता है

तेरे दिल में मेरे लिए है कोई न कोई गोशा-ए-नर्म
यही वजह है देख के मुझको तू अक्सर शरमाता है

इसकी ग़ज़लों में होता है एक तसलसुल इसी लिए
रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल अहमद अली बर्क़ी का सब को भाता है

चार: डी. के. मुफ़लिस

सब की नज़रों में सच्चा इंसान वही कहलाता है
जो जीवन में दर्द पराये भी हँस कर सह जाता है

जब उसकी यादों का आँचल आँखों में लहराता है
जिस्म से रूह तलक फिर सब कुछ खुशबु से भर जाता है

पौष की रातें जम जाती हैं जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है

मन आँगन की रंगोली में रंग नए भर जाता है
पहले-पहले प्यार का जादू ख्वाब कई दिखलाता है

रिमझिम-रिमझिम, रुनझुन-रुनझुन बरसें बूंदें सावन की
पी-पी बोल पपीहा मन को पी की याद दिलाता है

व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है

जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है

माना ! रात के अंधेरों में सपने गुम हो जाते हैं
सूरज रोज़ सवेरे फिर से आस के दीप जलाता है

आज यहाँ, कल कौन ठिकाना होगा कुछ मालूम नहीं
जग है एक मुसाफिरखाना, इक आता इक जाता है

मर जाते हैं लोग कई दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है

हों बेहद कमज़ोर इरादे जिनके बस उन लोगों का
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है

धूप अगर है छाँव भी होगी, ऐसा भी घबराना क्या
हर पल उसको फ़िक्र हमारा जो हम सब का दाता है

हँस दोगे तो हँस देंगे सब रोता कोई साथ नहीं
आस जहाँ से रखकर 'मुफ़लिस' क्यूं खुद को तड़पाता है

समीर कबीर की दो ग़ज़लें








समीर कबीर को शायरी विरासत मे मिली है. आप स्व: शाहिद कबीर के बेटे हैं. महज़ 34 साल की उम्र मे बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और अक़्सर पत्र-पत्रिकाओं मे छपते रहते हैं. इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.


एक








टूटा ये सिलसिला तो मुझे सोचना पड़ा
मिलकर हुए जुदा तो मुझे सोचना पड़ा

क्या-क्या शिकायतें न थी उस बदगुमान से
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

पहले तो *एतमाद हर एक हमसफ़र पे था
जब काफ़िला चला तो मुझे सोचना पड़ा

तय कर चुका था अब न पिऊँगा कभी मगर
जैसे ही दिन ढला तो मुझे सोचना पड़ा

क्या जाने कितने *रोज़नो-दर बे- चिराग़ थे
घर मे दिया जला तो मुझे सोचना पड़ा

जिस आदमी को कहते हैं शायद समीर लोग
उस शख़्स से मिला तो मुझे सोचना पड़ा

*एतमाद - भरोसा ,*रोज़नो-दर -छिद्र और दरवाज़े

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो








अजीब उससे भी रिश्ता है क्या किया जाए
वो सिर्फ़ ख्वाबों मे मिलता है क्या किया जाए

जहां-जहां तेरे मिलने का है गुमान वहां
न ज़िंदगी है न रस्ता है क्या किया जाए

ग़लत नहीं मुझे मरने का मशविरा उसका
वो मेरा दर्द समझता है क्या किया जाए

किसी पे अब किसी ग़म का असर नहीं होता
मगर ये दिल है कि दुखता है क्या किया जाए

कमी न की थी तवज़्ज़ों मे आपने लेकिन
हमारा ज़ख़्म ही गहरा है क्या किया जाए

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

Monday, July 6, 2009

स्व: शाहिद कबीर की ग़ज़लें









जन्म: मई 1932
निधन: मई 2001

शाहिद कबीर बहुत मशहूर शायर थे . इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और"" मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे लिखे.इनके सपुत्र समीर कबीर की बदौलत उनकी गज़लें हम तक पहुँची हैं .हमारी तरफ़ से यही श्रदांजली है इस अज़ीम शायर को जो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें और नग़मे उन्हें हमेशा ज़िंदा रखेंगे.आज की ग़ज़ल पर इस अज़ीम शायर की 4 ग़ज़लें और कुछ अशआर हाज़िर हैं.


एक







हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ

जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ

मैं *कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ

करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ

कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112



दो







तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए

आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए

अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए

कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए

अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


तीन








तमाम उम्र मैं आसेब के असर मे रहा
कि जो कहीं भी नहीं था मेरी नज़र मे रहा

न कोई राह थी अपनी न कोई मंज़िल थी
बस एक शर्ते-सफ़र थी जो मैं सफ़र मे रहा

वही ज़मीं थी वही आसमां वही चहरे
मैं शहर -शहर मे भटका नगर-नगर मे रहा

सब अपने-अपने जुनूं की अदा से हैं मजबूर
किसी ने काट दी सहरा मे कोई घर मे रहा

किसे बताऎं कि कैसे कटे हैं दिन "शाहिद"
तमाम उम्र ज़ियां पेशा-ए-हुनर मे रहा

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112


चार







वो अपने तौर पे देता रहा सजा मुझको
हज़ार बार लिखा और मिटा दिया मुझको

ख़बर है अपनी न राहों कुछ पता मुझको
लिये चली है कोई दूर कि सदा मुझको

अगर है ज़िस्म तो छूकर मुझे यकीन दिला
तू अक्स है तो कभी आइना बना मुझको

चराग़ हूँ मुझे दामन की ओट मे ले ले
खुली हवा मे सरे-राह न जला मुझको

मेरी शिकस्त का उसको ग़ुमान तक न हुआ
जो अपनी फ़तह का टीका लगा गया मुझको

तमाम उम्र मैं साया बना रहा उसका
इस आरजू मैं कि वो मुड़के देखता मुझको

मेरे अलावा भी कुछ और मुझमें था "शाहिद"
बस एक बार कोई फिर से सोचता मुझको

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

चंद अशआर:

बज गए रात के दो अब तो वो आने से रहे
आज अपना ही बदन ओढ़ के सिया जाए


क्या उनसे निकल जायेगी कमरे की उदासी
फुटपाथ पे बिकते हुए गुलदान बहोत हैं


अब बता तुझसे बिछड़ कर मैं कहाँ जाऊंगा
तुझको पाया था क़बीले से बिछड़कर अपने

दुशमनी में भी दोस्ती के लिए
राह एक दरमियान बनती है

नदी के पानी मे तदबीर बह गई घुलकर
वो अज़्म था जो पहाड़ों को चीर कर निकला


बस इक थकन के सिवा कुछ न मिला मंज़िल पर
सफ़र का लुत्फ़ जो मिलना था रहगुज़र मे मिला



*कोहसार-परबत,*कुंद-बेधार

Friday, June 26, 2009

सुरेन्द्र चतुर्वेदी की ग़ज़लें और परिचय











1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके इलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए इनकी एक ही बहर (बहरे-रमल) में चार ग़ज़लें.

एक








रात को तनहाइयों के साथ घर जाता हूँ मैं
अपने ही अहसास की आहट से डर जाता हूँ मैं

रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं

मैं लहू से रेत पर लिक्खा हुआ इक नाम हूँ
ग़र कोई महसूस कर ले तो उभर जाता हूँ मैं

मैं हूँ शिद्दत खुशबुओं की प्यार से महकी हुई
छू ले कोई तो हवाओं मे बिखर जाता हूँ मैं

एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं

बंद आंखों से किया करता हूँ मैं लाखों सफ़र
लोग अक़्सर सोचते हैं कि किधर जाता हूँ मैं

अपने हिस्से की जिन्हें मैं नींद आया सौंपकर
ग़म है अक़्सर उनके ख्वाबों में भी मर जाता हूँ मैं

दर्द की दरगाह मे करता जियारत जब कभी
करके अशकों से वजू ख़ुद मे बिखर जाता हूँ मैं

दो









आसमां मुझसे मिला तो वो ज़रा सा हो गया
था समंदर मैं मगर बरसा तो प्यासा हो गया

ज़िंदगी ने बंद मुट्ठी इस तरह से खोल दी
ग़म की सारी वारदातों का खुलासा हो गया

नींद मे तुमने मुझे इस तरह आकर छू लिया
इक पुराना ख्वाब था लेकिन नया सा हो गया

जिस घड़ी महसूस तुझको दिल मेरा करने लगा
उम्र मे शामिल मेरे जैसे नशा सा हो गया

अजनबी अहसास मुझको दर्द के दर पर मिला
साथ जब रोये तो वो मुझसे शनासा हो गया

उसके ग़म अलफ़ाज़ की उंगली पकड़कर जब चले
दर्द का ग़ज़लों मे मेरी तर्जुमा सा हो गया

तीन







मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जायेंगी
ये हवन वो है कि जिसमें उँगलियां जल जायेंगी

मानता हूँ आग पानी में लगा सकते हैं आप
पर मगरमच्छों के संग में मछलियाँ जल जायेंगी

रात भर सोया नहीं गुलशन यही बस सोचकर
वो जला तो साथ उसके तितलियाँ जल जायेगीं

जानता हूँ बाद मरने के मुझे फूँकेंगे लोग
मैं मगर ज़िंदा रहूँगा लकड़ियाँ जल जायेंगी

उसके बस्ते में रखी जब मैंने मज़हब की किताब
वो ये बोला अब्बा मेरी कापियाँ जल जायेंगी

आग बाबर की लगाओ या लगाओ राम की
लग गई तो आयतें चौपाइयाँ जल जायेंगी

चार









ये नहीं कि नाव की ही ज़िन्दगी खतरे में है
दौर है ऐसा कि अब पूरी नदी खतरे में है

बच गए मंज़र सुहाने फर्क क्या पड़ जाएगा
जबकि यारों आँख की ही रोशनी खतरे में है

अब तो समझो कौरवों की चाल नादां पाँडवों
होश में आओ तुम्हारी द्रोपदी खतरे में है

अपने बच्चों को दिखाओगे कहाँ अगली सदी
जी रहे हो जिसमें तुम वो ही सदी खतरे में है

मंदिरों और मस्जिदों को घर के भीतर लो बना
वरना खतरे में अज़ाने आरती खतरे में है

ना तो नानक ना ही ईसा, राम ना रहमान ही
पूजता है जो इन्हें वो आदमी ख़तरे में है