Tuesday, January 19, 2010
राहत इन्दौरी साहब और अंजुम रहबर
राहत साहब किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। राहत साहब ने एक जनवरी को जीवन के साठ वर्ष पूरे किए हैं। इसी महीने रामकथा वाचक मुरारी बापू ने राहत इंदौरी साहब के गजल संग्रह ‘नाराज’ के हिन्दी संस्करण का विमोचन करते हुए कहा-
राम वही है, जो राहत दे
जो आहत करता है, वह रावण होता है
यही वो मिली-जुली तहजीब है जिसका परिचय राहत साहब और मुरारी बापु ने दिया है।
देव मणि पांडेय जी की बदौलत ये दो ग़ज़लें हमें मिली हैं जो राहत साहब ने ही उन्हें भेजी हैं और इनको राहत साहब की अनुमति से यहाँ छापा जा रहा है। पहली ग़ज़ल बिल्कुल ताज़ा है और आज की ग़ज़ल पर पहली दफ़ा छाया हो रही है। इसके इस शे’र को लेकर कल द्विज जी से भी बात हुई और राहत साहब से भी पहले शे’र देखें-
कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत
कौन देखे शब्दकोश, कौन जाए गहराई में जो आपने कह दिया,जो ख़ुदा ने कह दिया, जो भगवान ने कह दिया, जो उन्होंने quote कर दिया वो हर्फ़े-आख़िर है। हम चाहें भी तो उनके कहे के माअनी नहीं समझ सकते। राहत साहब ने जैसे कहा कि धार्मिक-ग्रंथों में बहुत से हर्फ़ अब तक लोग समझ नहीं पाए हैं लेकिन वो ख़ुदा के, भगवान के शब्द हैं उन्हें सुनना,पढ़ना ही काफ़ी है । एक शे’र कई आयाम समेटे होता है और पाठक उसके अर्थ जुदा-जुदा ले सकता है। यक़ीनन ये शे’र राहत साहब जैसे शायर ही कह सकते हैं और हम भी अब ये कह सकते हैं कि अगर राहत साहब ने कहा है तो हर्फ़े-आखिर है उसके लिए हमें बहस या शब्द-कोश देखने कि ज़रूरत नहीं। इक्तेबास यानि किसी वाक्या को ज्यूँ का त्यूँ बिना किसी बहस के स्वीकार कर लेना है। हिंदी में इसे उद्वरण कह सकते हैं।
आज की ग़ज़ल को राहत साहब भी देखेंगे । आज की ग़ज़ल का जो मक़सद था वो पूरा हो रहा है और ये ब्लाग इन महान शायरों तक पहुँच रहा है जो निसंदेह खुशी की बात है। ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
एक दिन देखकर उदास बहुत
आ गए थे वो मेरे पास बहुत
ख़ुद से मैं कुछ दिनों से मिल न सका
लोग रहते हैं आस-पास बहुत
अब गिरेबां बा-दस्त हो जाओ
कर चुके उनसे इल्तेमास बहुत
किसने लिक्खा था शहर का नोहा
लोग पढ़कर हुए उदास बहुत
अब कहाँ हमसे पीने वाले रहे
एक टेबल पे इक गिलास बहुत
तेरे इक ग़म ने रेज़ा-रेज़ा किया
वर्ना हम भी थे ग़म-शनास बहुत
कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत
ज़ख़्म की ओढ़नी लहू की कमीज़
तन सलामत रहे लिबास बहुत
इक्तेबास-quote,लुगात-शब्दकोश,इल्तेमास-गुज़ारिश
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
दो
हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो
ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो
न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो
तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो
ये और बात के दुशमन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो
हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो
मैं वाक़यात की ज़ंजीर का नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहो का सिलसिला न कहो
ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी हैं राहत
हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
और जगजीत सिंह की आवाज़ में राहत साहब की एक ग़ज़ल सुनिए-
और अब बात करते हैं श्री मति अंजुम रहबर कि जो राहत इन्दौरी साहब की पत्नी हैं और बहुत अच्छी शाइरा भी हैं। उनकी इस ग़ज़ल से तो सारी दुनिया वाकिफ़ है। आप भी पढ़िए-
अंजुम रहबर
सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िज़ूल है.
तेरी नवाज़िशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे क़बूल, खुशी भी क़बूल है
उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िज़ूल है
जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है
और अंजुम जी की आवाज़ में सुनिए-
राहत साहब की वेब-साइट का लिंक -
http://www.rahatindori.co.in/
Wednesday, January 13, 2010
विलास पंडित-ग़ज़लें और परिचय
1965 में जन्में विलास पंडित "मुसाफ़िर" बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और अब तक तीन किताबें परस्तिश,संगम और आईना भी छाया हो चुकी हैं। कई गायकों ने इनके लिखे गीतों को आवाज़ भी दी है। पिछले 25 सालों से साहित्य की सेवा कर रहे हैं।
आज की ग़ज़ल पर इनकी तीन ग़ज़लें हाज़िर हैं- नीचे दिए गए संगीत के लिंक को आन कर लें ग़ज़लों का मज़ा दूना हो जाएगा।
एक
वो यक़ीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रह के जी गया
झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यों मेरा दामन कोई कर सी गया
उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझ कर पी गया
चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
वार जब सैय्याद का खाली गया
लौट कर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया
कोई रहबर है न है मंज़िल कोई
वो "मुसाफ़िर" लौट कर आ ही गया
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
दो
भूल गया है खुशियों की मुस्कान शहर
पत्थर जैसे चहरों की पहचान शहर
बाशिंदे भी अब तक न पहचान सके
ज़िंदा भी है या कि है बेजान शहर
सोच ले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर
ज़िंदा है गाँवो में अब तक सच्चाई
दो और दो को पाँच करे *मीज़ान शहर
उसकी नज़रों में जो "मुसाफ़िर" शायर है
बस ख्वाबों की दुनिया का उनवान शहर
*मीज़ान-पैमाना (scale)
पाँच फ़ेलुन+1 फ़े
तीन
किसी का जहाँ में सहारा नहीं है
ग़मों की नदी का किनारा नहीं है
है अफसोस मुझको मुकद्दर में मेरे
चमकता हुआ कोई तारा नहीं है
ख़ुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ हो
जिसे आसमाँ से उतारा नहीं है
जो चाहो तो चाहत का इज़हार कर दो
अभी मैंने हसरत को मारा नहीं है
यूँ कहने को तो ज़िंदगी है हमारी
मगर एक पल भी हमारा नहीं है
ऐ ! मंज़िल तू ख़ुद क्यूँ करीब आ रही है
अभी वो "मुसाफिर" तो हारा नहीं है
मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम
चार फ़ऊलुन
संगीत और शायरी एक दूसरे के पूरक हैं तो सोचा क्यों न हर पोस्ट के साथ कुछ रुहानी ख़ुराक परोसी जाए । लीजिए सुनिए हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी और विलास जी की ग़ज़लें पढ़ते रहिए-
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शायर का पता-
301, स्वर्ण प्लाज़ा ,प्लाट न.-1109
स्कीम न.114-1,ए.बी रोड
इन्दौर
099260 99019
0731-4245859
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं- महमूद अकरम
शायर होना आसान है लेकिन वली होना बहुत मुशकिल है-
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता
यूँ तो शायरी में गा़लिब का स्थान किसी औलिए से कम नहीं लेकिन ग़ालिब को महफ़िलों में गाया जाता है और कबीर को मंदिरों में। इस फ़र्क को गा़लिब समझते थे।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ..कबीर
पीरो-मुर्शिद, औलिये, संत,फ़कीर और वली इन्हें हम "साईं" कहकर बुलाते हैं, साईं यानि मालिक । पूज्य शिरडी के संत तो "साईं" नाम से ही जाने जाते हैं। साईं रदीफ़ पर एक बहुत सादा और तसव्वुफ़ के रंग में रंगी एक ग़ज़ल आज आपकी नज़्र कर रहा हूँ जिसके शायर हैं जनाब महमूद अकरम जो न्यू जर्सी में रहते हैं। उनकी ये ग़ज़ल दो साल पहले पढ़ी थी,आप भी मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मेरे हक़ में कोई दुआ साईं
बे-रंग हूँ, रंग चढ़ा साईं
मैं कौन हूँ,क्या हूँ, कैसा हूँ?
मैं कुछ भी नहीं समझा साईं
मेरी रात तो थी तारीक बहुत
मेरा दिन बे-नूर हुआ साईं
था छेद प्याले के अंदर
नहीं आँख में अश्क बचा साईं
वही तश्ना-लबी, वही खस्ता-तनी
मेरा हाल नहीं बदला साईं
गुम-कर्दा राह मुसाफ़िर हूँ
मुझे कोई राह दिखा साईं
मेरे दिल में नूर ज़हूर करे
मेरे मन में दीया जला साईं
मेरी झोली में फल-फूल गिरें
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं
मेरे तन का सहरा महक उठे
मेरी रेत में फूल उगा साईं
मुझे लफ़्ज़ों की ख़ैरात मिले
मेरा हो मज़मून जुदा साईं
मेरे दिल में तेरा दर्द रहे
हो जाए दिल दरिया साईं
कोई नहीं फ़क़ीर मेरे जैसा
कहाँ दहर में तुझ जैसा साईं
मेरी आँख में एक सितारा हो
मेरे हाथ में गुल-दस्ता साईं
तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं
तेरे फूल महकते रहें सदा
तेरा जलता रहे दीया साईं
अब बात जब तसव्वुफ़ की चली है तो एक सूफ़ी कलाम सुनिए । ऐसे कलाम पर हज़ारों दीवान न्यौछावर, हज़ारों अशआर कुर्बान। इसे गाया है सूफ़ी गायक हंस राज हंस ने, जिसकी आवाज़ सुनते ही फ़क़ीरों की सोहबत का सा अहसास होता है-
Friday, January 8, 2010
डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़लें
1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.
"आज की ग़ज़ल" के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इनकी 4 ग़ज़लें
एक
दूर के चर्चे न कर तू पास ही की बात कर
अपना घर तू देख पहले फिर किसी की बात कर
आ बता देता हूँ मैं,क्या चीज़ है ज़िंदादिली
मौत के साये तले तू ज़िंदगी की बात कर
तू ख़ुदा को पा चुका है मान लेता हूँ मगर
मैं तो ठहरा आदमी तू आदमी की बात कर
गुम न कर इन मंदिरों और मस्जिदों में तू वजूद
इन अँधेरों से निकलकर रौशनी की बात कर
ख़ुद-ब-ख़ुद लगने लगेगा ख़ुशनुमा तुझको जहान
हो पराई या कि अपनी तू ख़ुशी की बात कर
ताज का पत्थर नहीं तू रंग फीका क्यों पड़े
बात उल्फ़त की चले तो मुफ़लिसी की बात कर
जब कभी भी बात अपनी हो तुझे करनी ‘मधुर’
दश्त में चलते हुए इक अजनबी की बात कर
बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल):
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
दो
इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम
फिर माँगते चिराग़ रहे ज़िन्दगी से हम
कुछ है कि निभ रहे हैं अभी ज़िन्दगी से हम
वर्ना क़रीब मौत के तो हैं कभी से हम
क़तरे तमाम धूप के पीता रहा बदन
तब रू-ब-रू हुए हैं कहीं चाँदनी से हम
जो रुख़ बदलने के लिए कोई वजह नहीं
कह दो कि पेश आ रहे हैं बेरुख़ी से हम
बस रंज है तो है यही ,हैं सब को जानते
कह सकते भी नहीं हैं मगर ये किसी से हम
बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
तीन
सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है
बदलना वो अपना बयाँ जानता है
है ग़र्ज़ अपनी-अपनी ही पहचान सबकी
कि कोई किसी को कहाँ जानता है
हैं अंगार लब और लफ़्ज़ उसके शोले
महब्बत की जो दास्ताँ जानता है
दिलों की है बस्ती फ़क़त अपनी मस्ती
जहाँ के ठिकाने जहाँ जानता है
चलो हम ज़मीं के करें ख़्वाब पूरे
हक़ीक़त तो बस आसमाँ जानता है
मुत़कारिब-चार फ़ऊलुन (122x4)
मसम्मन सालिम
चार
ख़ता है वफ़ा तो सज़ा दीजिए
वगर्ना वफ़ा को वफ़ा दीजिए
नहीं आपको भूल सकता कभी
किसी और को ये सज़ा दीजिए
मुसाफ़िर हूँ मैं आप मंज़िल मेरी
कोई रास्ता तो दिखा दीजिए
है अब जीना-मरना लिए आपके
जो भी फ़ैसला है सुना दीजिए
लिखे हर्फ़ दिल पे मिटेंगे नहीं
मेरे ख़त भले ही जला दीजिए
सताए हुए दिल के सपने-सा हूँ
निगाहों से अपनी शफ़ा दीजिए
बहरे-मुतका़रिब( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
संपर्क-
दूरभाष:01892-265558,
मोबाइल :9816275575
Wednesday, January 6, 2010
एक ज़मीन में दो शायर
एक ज़मीन में दो शायरों की बराबर के मेयार की ग़ज़लें बड़ी मुशकिल से मिलती हैं। ये दोनों ग़ज़लें एक ही ज़मीन में हैं लेकिन दोनों बेमिसाल और लाजवाब हैं। पढ़िए, सुनिए और लुत्फ़ लीजिए-
पहली ग़ज़ल जनाब- अहमद नदीम कासमी की -
ग़ज़ल
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उट्ठूंगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमाने-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमअ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
और दूसरी ग़ज़ल है जनाब मुईन नज़र की -
इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चरागां कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा
पूछकर मेरा पता वक़्त राएगाँ न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा
ज़िंदगी मैं भी मुसाफ़िर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँगा
दोनों ग़ज़लें रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल में हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
अब सुनिए गु़लाम अली की आवाज़ में मुईन नज़र की ये खूबसूरत ग़ज़ल-
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Saturday, January 2, 2010
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी - परिचय और ग़ज़लें
(3 अप्रैल, 1915 -11 दिसम्बर, 1982)
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे. आप हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से थे. इनका कलाम बीसवीं सदी, शमअ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था.कुल-हिन्द और हिन्द -पाक मुशायरों में भी इनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था. आपने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था. प्रस्तुत ग़ज़लें उनके मरणोपरान्त हिमाचल भाषा एवं कला संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित संकलन ‘वजूद-ओ-अदम’से ली गई हैं . आज की ग़ज़ल के लिए इनका उर्दू से लिप्यान्तरण ‘द्विज’ जी ने किया है.
‘चाँद’ कुल्लुवी साहब की तीन ग़ज़लें-
एक
हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख
रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख
अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख
मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख
घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख
होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख
आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख
वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख
अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख
राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख
रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख
ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
दो
ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा
जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा
घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा
भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-व किनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा
तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा
मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी अब तो सरूर है बाबा
गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा
कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा
नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा
मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा
छुपा-छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/112
तीन
फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ
वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ
जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ
बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ
जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ
तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ
निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ
वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
Friday, January 1, 2010
नव वर्ष पर-विशेष
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है
अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल -
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-
Jagjit Singh - Garaj Baras Pyasi .mp3 | ||
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