Friday, May 14, 2010
तीसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
मुफ़लिस साहब के इस खूबसूरत शे’र -
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
के साथ तीसरी क़िस्त हाज़िर है जिसमें जोगेश्वर गर्ग जी की ग़ज़ल भी का़बिले-गौ़र है।साथ ही दूसरी क़िस्त में चंद्र रेखा ढडवाल के इस खूबसूरत शे’र के लिए उनको बधाई देना चाहता हूँ।
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
लीजिए ये अगली दो ग़ज़लें-
डी.के.'मुफ़लिस'
ओढ़ लिया संन्यास रे जोगी
फिर भी मन का दास रे जोगी
काश ! कभी पूरी हो पाए
जीवन की हर आस रे जोगी
पल-पल वक़्त के नाज़ उठाना
तुझ को क्या एहसास रे जोगी
सारा जग है भूल-भुलैयाँ
आया किसको रास रे जोगी
काम कभी आ ही जाता है
सपनों का विन्यास रे जोगी
बस्ती में हर आँख रूआँसी
कौन चला बनवास रे जोगी
लुक-छिप सब को नाच नचाये
कौन रचाए रास रे जोगी
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
'मुफ़लिस' जब से दूर गया वो
ग़म आ बैठा पास रे जोगी
जोगेश्वर गर्ग
जो बन्दा बिंदास रे जोगी
दुनिया उसकी दास रे जोगी
इतना ध्यान हमेशा रखना
कौन बना क्यों ख़ास रे जोगी
ज्ञान समंदर उतना गहरा
जितनी जिसकी प्यास रे जोगी
भौंचक अवध समझ नहीं पाया
कौन चला वनवास रे जोगी
दुनियादारी ढोते ढोते
फूली अपनी श्वास रे जोगी
इसका- उसका, किस किस का तू
कर बैठा विश्वास रे जोगी
जिसको खुद पर खूब भरोसा
ईश्वर उसके पास रे जोगी
"जोगेश्वर" को भूल न जाना
इतनी सी अरदास रे जोगी
दूसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
दूसरी क़िस्त में तीन शाइराओं की ग़ज़लें एक साथ मुलाहिज़ा कीजिए-
देवी नांगरानी
ओढे शब्द लिबास रे जोगी
आई ग़ज़ल है रास रे जोगी
धूप में पास रहे परछाईं
शाम को ले सन्यास रे जोगी
छल से जल में आया नज़र जो
चाँद लगा था पास रे जोगी
हिम्मत टूटी,दिल भी टूटा
टूटा जब विश्वास रे जोगी
सहरा के लब से जा पूछो
होती है क्या प्यास रे जोगी
जीस्त ने जब गेसू बिखराए
खोया होश हवास रे जोगी
’देवी’ मत ज़ाया कर इनको
पूंजी इक इक स्वास रे जोगी
चंद्र रेखा ढडवाल(धर्मशाला हिमाचल प्रदेश)
जितने खिले मधुमास रे जोगी
उतने हुए बे-आस रे जोगी
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
मेघ बरसते थे,दिन बीते
अब तो बरसती प्यास रे जोगी
साथ प्रिया बन-बन डोले तो
काहे का बनवास रे जोगी
हमको अयोध्या में रहते भी
देख मिला बनवास रे जोगी
जिसने शिलाओं को तोड़ा हो
वो ही करे अब न्यास रे जोगी
खेत भी होंगे राजसिंहासन
आम जो होंगे ख़ास रे जोगी
आज इस गाँवों कल उस नगरी
क्यों बँधवाई आस रे जोगी
खेल रहा था खेल फ़क़त तू
हमने किया विश्वास रे जोगी
सारा जबीन
जब से गया बनवास रे जोगी
टूटी प्रीत की आस रे जोगी
सब सखियां ये पूछ रही हैं
कौन चला बनवास रे जोगी
धन दौलत नहीं मांगूं तुझसे
मांगूं तेरा पास रे जोगी
किस को समझूँ अब मैं दोषी
कुछ भी न आया रास रे जोगी
लौटेगा तू 'सारा' की है
आँखों में विश्वास रे जोगी
Monday, May 10, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी- पहली क़िस्त
"कौन चला बनवास रे जोगी" राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल से लिए इस मिसरे पर कई शायरों ने ग़ज़लें कहीं है या यों कहो कि राहत साहब की ज़मीन पर शायरों ने हल चलाने की हिम्मत की है। कई ग़ज़लें आईं है जो कि़स्तों मे पेश की जाएँगी।पहले हाज़िर हैं दो ग़ज़लें-
एम.बी.शर्मा "मधुर"
यूँ लेकर सन्यास रे जोगी
आएँ न भगवन पास रे जोगी
मन का द्वार न खुल पाया तो
वन भी कारावास रे जोगी
रावण आज अयोध्या में जब
राम ले क्यूँ बनवास रे जोगी
जो दुनिया से भागा उसपे
कौन करे विश्वास रे जोगी
युग बीते जो मिट न सकी वो
जीवन अनबुझ प्यास रे जोगी
जो ख़ुद से ही हारा उसको
कौन बँधाए आस रे जोगी
इंसानों में ज़ह्र जब इतना
साँपों में क्या ख़ास रे जोगी
सत्य ‘मधुर’ भी कड़वा लगता
आए किसको रास रे जोगी
पवनेंद्र "पवन"
बाहर योग-अभ्यास रे जोगी
भीतर भोग-विलास रे जोगी
रात सुरा यौवन की महफ़िल
दिन को है उपवास रे जोगी
घर में चूल्हे-सी,जंगल में
दावानल-सी प्यास रे जोगी
सन्यासी के भेस में निकला
इन्द्रियों का दास रे जोगी
झोंपड़ छोड़ महल में रहना
ये कैसा सन्यास रे जोगी
मर्यादा को बंधन समझा
घर को कारावास रे जोगी
लोग हैं जितने ख़ास वतन में
उन सब का तू ख़ास रे जोगी
घर सूना कर ख़ूब रचाता
वृंदावन में रास रे जोगी
जब सुविधाएँ पास हों सारी
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
दूर ‘पवन’ को अब भी दिल्ली
तेरे बिल्कुल पास रे जोगी
Tuesday, May 4, 2010
अनवारे इस्लाम-परिचय और ग़ज़लें
1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी चार ग़ज़लें हाज़िर हैं-
एक
ख़ैरीयत इस तरह बताता है
हाल पूछो तो मुस्कुराता है
कैसे बच्चों को खेलते देखूँ
दिन तो दफ़्तर में डूब जाता है
ज़िक्र करता है हर जगह मेरा
सामने आके भूल जाता है
कल तलक सर छुपाके रखता था
आज वो जिस्म भी छुपाता है
किससे क़ौलो-क़रार कीजेगा
कोई वादा कहाँ निभाता है
तन के चलता है भाई के आगे
सर दरे-ग़ैर पर झुकाता है
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
दो
असल में मुस्कुराना चाहता है
जो बच्चा रूठ जाना चाहता है
हमारी प्यास की गहराइयों में
समंदर डूब जाना चाहता है
वो आना चाहता है पास लेकिन
मुनासिब सा बहाना चाहता है
नहीं मालूम क्या चाहत है उसकी
मगर उसको ज़माना चाहता है
कहीं मिल जाए थोड़ी छांव उसको
वो बंजारा ठिकाना चाहता है
नई तहज़ीब का बेटा हमारा
हमें अब भूल जाना चाहता है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
तीन
दुनिया की निगाहों में ख़यालों में रहेंगे
जो लोग तेरे चाहने वालों में रहेंगे
हम लोग बसायेंगे कोई दूसरी दुनिया
मस्जिद में रहेंगे, न शिवालों में रहेंगे
ऐ वक़्त तेरे ज़ुल्मो-सितम सहके भी खुश हैं
हम लोग हमेशा ही मिसालों में रहेंगे
शैरों में मेरे आज धड़कता है मेरा वक़्त
अशआर मेरे कल भी हवालों में रहेंगे
गुलशन के मुक़द्दर में जो आए नहीं अब तक
वो नक़्श मेरे पाँव के छालों में रहेंगे
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन
22 1 1 22 11 221 122
चार
ये धुआँ जो कि जलते मकानों का है
सब करिश्मा तुम्हारे बयानों का है
तुमको ज़िद्द ही अगर पर कतरने की है
शौक़ हमको भी ऊँची उड़ानों का है
जानता हूँ हवा है मु्ख़ालिफ़ मेरे
पर भरोसा मुझे बादबानों का है
बाँधकर हम परों में सफ़र उड़ चले
इम्तिहान आज फिर आसमानों का है
बहरे-मुतदारिक सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212
इ-मेल
sukhanwar12@gmail.com
Monday, April 26, 2010
हसीब सोज़ की ग़ज़लें
1962 में जन्में हसीब "सोज़" बेहतरीन शायर हैं। आप उर्दू के रिसाले "लम्हा-लम्हा"का संपादन भी करते हैं |आप उर्दू में एम.ए. हैं। बदायूं (उ,प्र) के रहने वाले हैं।शायर का असली परिचय उसके शे’र होते हैं और इस शायर के बारे में मैं क्या कहूँ। ये शे’र पढ़के के आप ख़ुद कहेंगे कि बाक़ई हसीब साहब आला दर्ज़े के शायर हैं।
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
रगें दिमाग़ की सब पेट में उतर आईं
ग़रीब लोगों में कोई हुनर नहीं होता
इनकी दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई
फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई
इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई
दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया
दुनिया की राये दूसरे दिन ही बदल गई
*हाफ़ज़े-यादाश्त
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
दो
तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ
*अहबाब-दोस्त(वहु)
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
Friday, April 23, 2010
प्रेमचंद सहजवाला - परिचय और ग़ज़लें
18 दिसम्बर 1945 को जन्मे प्रेमचंद सहजवाला हिंदी के चर्चित कथाकार हैं। इनके अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । बहुत सी पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और आप अच्छे शायर भी हैं। इनकी दो ग़ज़लें आपकी नज़्र कर रहा हूँ-
एक
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफ़र आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खु़द को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी लिपटती है बदन से उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ़ रक्खो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
दो
हो गए हैं आप की बातों के हम मुफ़लिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रोशनी दे कर मसीहा ने चुनी हँस कर सलीब
रोशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िन्दगी की सहरो-शाम
ज़िन्दगी पर फिर रहा कोई न अपना इख़्तियार
मिल नहीं पाते नगर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में लिखी रूदादे-उल्फ़त वक़्त ने
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
Friday, April 16, 2010
द्विजेन्द्र द्विज जी की ताज़ा ग़ज़ल और तरही मिसरा
द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र कर रहा हूँ। द्विज जी से तो सब लोग वाकिफ़ ही हैं। आप उनकी ग़ज़लें कविता-कोश पर यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी एक नई ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
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