Monday, September 20, 2021

तरही मुशायरे की चौथी ग़ज़ल : निर्मला कपिला

  

ये हिमाक़त करूं सवाल कहां

तल्ख़ बोलूं मेरी मज़ाल कहां

 

अब नसीमे सहर की उम्र ढली

धड़कनों में रही वो ताल कहां

 

फ़िक्र बच्चों की सूखी रोटी की

दे सके सब्जी और दाल कहां

 

बीता बचपन  गयी जवानी भी

मस्त हिरणी सी अब वो चाल कहां

 

एक अदना किसान हूँ यारो

मैं बताओ कि मालो माल कहां

 

मतलबी हैं यहां सभी रिश्ते

वक़्ते मुश्किल में बनते ढाल कहां

 

ठूंठ बरगद खड़ा हुया तन्हा

होती चौपाल पे रसाल कहां

 

दे गयी प्यार में दगा 'निर्मल'

बेवफा को मगर मलाल कहां

 

Saturday, September 18, 2021

तरही मुशायरे की तीसरी ग़ज़ल- शायर अमित 'अहद' (सहारनपुर)

 


ग़ज़ल

  चाहता है वो अब विसाल कहाँ

हिज्र का है उसे मलाल कहाँ

 इसलिए ही तो हम अकेले हैं

 कोई अपना है हमख़याल कहाँ

 कोई भी ज़ुल्म के ख़िलाफ़ नहीं

खून में पहले सा उबाल कहाँ

  दर्द ए दिल को ग़ज़ल बना देना

 हर किसी में है ये कमाल कहाँ

  यूँ बड़ा तो है ये समंदर भी

माँ के दिल सा मगर विशाल कहाँ

 सिर्फ़ मतलब से फ़ोन करता है

पूछता है वो हालचाल कहाँ

 वक़्त जिसका जवाब दे न सके

 ऐसा कोई 'अहद' सवाल कहाँ 

 

amitahad33@gmail.com

Friday, September 17, 2021

ग़ालिब की जमीन में मुज़फ़्फ़र वारसी की ग़ज़ल

 

मुज़फ़्फ़र वारसी

माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं

इंसान हूँ धड़कते हुये दिल पे हाथ रख
यूँ डूबकर न देख समुंदर नहीं हूँ मैं

चेहरे पे मल रहा हूँ सियाही नसीब की
आईना हाथ में है सिकंदर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब तेरी ज़मीन में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे कद-ए-सुख़न के बराबर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब

दायम  पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं

ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

 क्यों गर्दिश-ए-मुदाम  से घबरा न जाये दिल?

इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र  नहीं हूँ मैं

 या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये

लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर  नहीं हूँ मैं

 हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते

आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

 किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे?

लाल-ओ-ज़मुर्रुदो--ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं

रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यों दरेग़

रुतबे में मेहर-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं

करते हो मुझको मनअ़-ए-क़दम-बोस  किस लिये

क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं?

'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़्वार  हो, दो शाह को दुआ

वो दिन गये कि कहते थे "नौकर नहीं हूँ मैं"


ग़ालिब की ग़ज़ल -- कविता कोष से साभार 



Wednesday, September 15, 2021

तरही मुशायरा : अमरीश अग्रवाल "मासूम" की पहली ग़ज़ल (मैं कहां और ये वबाल कहां) -ग़ालिब

 


 अमरीश अग्रवाल "मासूम"

 इश्क़ का अब मुझे ख़याल कहां

मैं कहां और ये वबाल कहां

 इश्क़ का रोग मत लगाना तुम

हिज्र मिलता है बस विसाल कहां

 बिक गया आदमी का इमां जब

झूठ सच का रहा सवाल कहां

बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें

हुक्मरां को कोई मलाल कहां

मज़हबी वो फ़साद करते हैं

रहबरों से मगर सवाल कहां

दौर "मासूम" ये हुआ कैसा

खो चुका आदमी जमाल कहां

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Tuesday, September 14, 2021

हिन्दी दिवस -२०२१ / Hindi Diwas 2021-Hindi Ghazal


आरज़ू लखनवी - १८७३-१९५१

 कराची के शायर श्री मान आरज़ू लखनवी ने हिंदी ग़ज़ल का बेहतरीन नमूना पेश किया है | जो लोग हिन्दी ग़ज़ल के नाम से कुछ भी परोस रहे हैं उन को इससे सीख लेनी चाहिए की शुद्ध हिंदी के क्लिष्ट या अकलिष्ट शब्द कैसे प्रयोग करें जिससे ग़ज़ल की चाल-ढाल और नज़ाकत पर रत्ती भर भी फ़र्क न पड़े –

ग़ज़ल

 किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी

झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी


कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग

जी बहा ले गया बरसात का पहला पानी


टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ

कही खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी


बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका

आरजू देखते ही मुँह में भर आया पानी


ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम

"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी

हिंदी दिवस पर कविता - दुष्यंत कुमार Hindi Diwas 2021

 

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है
क्यों करूँ आकाश की मनुहार 
अब तो पथ यही है

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए
आज हर नक्षत्र है अनुदार
अब तो पथ यही है

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार
अब तो पथ यही है

नज़्म:  कविता कोष से साभार 

हिन्दी दिवस पर विशेष प्रस्तुति - राम प्रसाद बिस्मिल की एक ग़ज़ल -Hindi Diwas 2021



न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना 
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना

करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख 
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना

लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखुं हिन्दी 
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना 


भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की 
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना 

लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन 
करुं में प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना 

नहीं कुछ ग़ैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना