Saturday, October 11, 2008

श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' की ग़ज़लें और परिचय













परिचय:
3 जून 1941 को अलीगढ़ (उ०प्र०) में जन्में श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' सूचना विज्ञान में एम.एस. सी, व एम.फ़िल हैं और आप दिल्ली-विश्व विद्यालय के पटेल चैस्ट इंस्टीट्यूट से सेवा निवृत हुए हैं। आपने युगोस्लाव छात्रवृत्ति पर युगोस्लाव भाषा का विशेष अध्ययन किया है और इस भाषा की काव्य रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया हैं युगोस्लाव भाषाओं में भारतीय विषयों से संबंधित रचनाओं आदि पर शोध कार्य भी किया है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में साहित्यिक, वैज्ञानिक गोष्ठियों व गतिविधियों से संबंधित भ्रमण भी किये।युगोस्लाव दूरदर्शन पर भारत-संबंधित वार्ताएँ, आकाशवाणी पर साक्षात्कार व नियमित काव्य पाठ । आप मुख्य-रूप से उर्दू,खड़ी बोली, ब्रजभाषा व अँग्रेज़ी में काव्य रचते हैं, और काव्य के अच्छे समीक्ष्क भी हैं।
मयख़ाना,दर की ठोकरें, तिराहे पर खड़ा दरख़्त (काव्य संग्रह), तुकी-बेतुकी, तू-तू मैं-मैं (हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह) चूहे की शादी (बाल-गीत संग्रह),हम जंगल के फूल(दोहा सतसई) इत्यादि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं और इसके अतिरिक्त आप कई दोहा और ग़ज़ल संकलनों में सहयोगी रचनाकार के रूप में संकलित हो चुके हैं।


प्रस्तुत हैं श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' चार ग़ज़लें :


एक.







यारब ये क्या सुलूक किया दिलबरों के साथ
दानिशवरों को छोड़ दिया,सिरफिरों के साथ

संजीदगी की उनसे तवक़्क़ो न कीजिये
जिनकी तमाम उम्र कटी मसख़रों के साथ

तामीर नया घर तो करें शौक़ से, मगर
रिश्ते न तोड़िएगा पुराने घरों के साथ

पत्थर है बासलीक़ा तो हाज़िर है आईना
बस,शर्त ये है, फ़न भी हो शीशागरों के साथ

ऐवाने—शहनशाह ये खँडहर रहे कभी
तारीख़ हमनवा है, इन्हीं पत्थरों के साथ

हुस्ने-अयाँ के सामने हुस्ने—निहाँ फ़िज़ूल
मुश्किल यही है आज के दीदावरों के साथ

ज़ीनत हैं दिल की ज़ख़्म जो बख़्शे हैं आपने
जैसे नई दुल्हन हो कोई ज़ेवरों के साथ

मंज़िल पे ले के जायें जो नफ़रत की राह से
मुझको सफ़र क़ुबूल न उन रहबरों के साथ

'शैदी'! उन्हीं को कर गया बौना कुछ और भी
बौनों का जो सुलूक था,क़द्दावरों के साथ.

बहरे मुज़ारे : 221,2121,1221,2121

दो









अब्र नफ़रत का बरसता है, ख़ुदा ख़ैर करे
हर तरफ़ क़हर-सा बरपा है, ख़ुदा ख़ैर करे

चुन भी पाए न थे अब तक, शिकस्ता आईने,
संग फिर उसने उठाया है, ख़ुदा ख़ैर करे

जो गया था अभी इस सिम्त से लिए ख़ंजर
जाने क्या सोच के पलटा है, ख़ुदा ख़ैर करे

क़ातिले—शहर के हमराह हज़ारों लश्कर
हाकिमे-शहर अकेला है, ख़ुदा ख़ैर करे

लोग इस गाँव के उस गाँव से मिलें कैसे ?
दरमियाँ ख़ून का दरिया है, ख़ुदा ख़ैर करे

किसलिये नींद में अब डरने लगे हैं बच्चे?
ख़्वाब आँखों में ये कैसा है, ख़ुदा ख़ैर करे

उम्रभर आग बुझाता रहा जो बस्ती में
घर उसी शख़्स का जलता है, ख़ुदा ख़ैर करे

जाने उस शख़्स ने देखे हैं हादसे कैसे
आह भर कर वो ये कहता है 'ख़ुदा ख़ैर करे'

कितना पुरशोर था , माहौल शहर का, 'शैदी'
नागहाँ किसलिये चुप-सा है, ख़ुदा ख़ैर करे.

बहर—ए— रमल का एक ज़िहाफ़=2122,1122,1122,112

तीन.










खिलते फूल सलोने देख !
रंगो-बू के दोने देख !

ये पुरख़ार बिछौने देख !
आया हूँ मैं सोने देख

दुख, तन्हाई ,यादें ,जाम
मेरे खेल-खिलौने देख !

जागेगा तो रोयेगा
मत तू ख़्वाब सलोने देख !

वो तो पानी जैसा है
पहुँचा कोने-कोने देख !

हीरे का दिल टूट गया
दाम वो औने-पौने देख !

सब पाने की धुन में हैं
हम आये हैं खोने, देख !

वो तेरे ही अंदर है
मन के सारे कोने देख

लगता वो मासूम मगर
उसके जादू- टोने देख !

22, 22, 22 2(I)

चार.







कैसे ख़ूनी मंज़र हैं
फूलों पर भी ख़ंजर हैं

नाज़ुक़ शीशा तोड़ दिया
पत्थर, कितने पत्थर हैं

बढ़े हौसले बाज़ों के
सहमे हुए कबूतर हैं

बस्ती के सारे दुश्मन
बस्ती के ही अंदर हैं

सारी बस्ती पहन सके
इतने उसके तन पर हैं

दीवाने का सर है एक
दुनिया भर के पत्थर हैं

प्यास किसी की बुझा सके?
माना, आप समंदर हैं

जो ईंटें हैं मंदिर में
वही हरम के अंदर हैं

जिनमें मोती बनने थे
वे ही कोखें बंजर हैं .

22, 22, 22 2

Monday, September 29, 2008

प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की ग़ज़लें और परिचय











जन्म: 24 सितम्बर 1947
निधन: 24 जुलाई 2006


परिचय:

24 सितम्बर, 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में जन्मे श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' ने 1968 में पंजाब इंजीनियरिंग कालेज से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में डिग्री की. 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह) के चर्चित कवि, ग़ज़लकार 'परवेज़' की अनुभव सम्पन्न दृष्टि में 'बनिये की तरह चौखट पर पसरते पेट' से लेकर जोड़, तक्सीम और घटाव की कसरत में फँसे, आँकड़े बनकर रह गये लोगों की तक़लीफ़ें, त्रासदी और लहुलुहान हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से, पढ़ने-सुनने वाले की रूह तक उतर जाने क्षमता रखती हैं.

हिमाचल के बहुत से युवा कवियों के प्रेरणा—स्रोत व अप्रतिम कवि श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' 24 जुलाई, 2006 इस संसार को अलविदा कह गये.

प्रस्तुत है उनके ग़ज़ल संग्रह 'रास्ता बनता रहे' से सात ग़ज़लें:

ग़ज़ल 1








सब के हिस्से से उन्हें हिस्सा सदा मिलता रहे
चाहते हैं लोग कुछ, ये सिलसिला चलता रहे

चन्द लोगों की यही कोशिश रही है दोस्तो
आदमी का आदमी से फ़ासला बढ़ता रहे

खल रहा है इस शहर में आदमी को आदमी
इस शहर में कब तलक अब हादसा टलता रहे

आने वाला कल मसीहा ले के आएगा यहाँ
दर्द सीने में अगर बाक़ायदा पलता रहे

अपनी आँखों से हमें भी खोलनी हैं पट्टियाँ
फ़ायदा क्या है कि अन्धा क़ाफ़िला चलता रहे

वक़्त तो लगता है आख़िर पत्थरों का है पहाड़
मेरा मक़सद है वहाँ इक रास्ता बनता रहे.

बहर—ए—रमल
(2122,2122,2122,212)

ग़ज़ल 2.









हर गवाही से मुकर जाता है पेट
उनकी जूठन तक उतर जाता है पेट

इस तरह कुछ साज़िशें करते हैं वो
सर से पाओं तक बिखर जाता है पेट

ज़हनो-दिल को ठौर मिलती ही नहीं
सारे बिस्तर पर पसर जाता है पेट

हर सुबह हर शाम बनिये की तरह
मेरी चौखट पे ठहर जाता है पेट

मेरे हाथों से महब्बत है उन्हें
उनकी आँखों में अखर जाता है पेट

चीख़ता रहता है दिन भर दर्द से
रात आती है तो मर जाता है पेट

हार कर ख़ुद भूख से अक्सर मुझे
दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट

बेअदब हूँ , बेहया हूँ , बेशर्म हूँ
तोहमतें हर बार धर जाता है पेट

रमल: (2122,2122,2121)

ग़ज़ल 3.










हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
संसद केवल फटा हुआ इक छाता है

भूख अगर गूँगेपन तक ले जाए तो
आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है

लेकिन अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा
प्रजातंत्र से जनता का क्या नाता है

बीवी है बीमार , सभी बच्चे भूखे
बाप मगर घर जाने से कतराता है

परम्पराएँ अंदर तक हिल जाती हैं
सन्नाटे में जब कोई चिल्लाता है

क्यूँ न वह प्रतिरोध करे सच्चाई का
अपने खोटे सिक्के जो भुनवाता है.

बहर—मुतदारिक
(२२,२२,२२,२२,२२,२)

ग़ज़ल 4.











हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग

एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग

घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग

बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग

धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग

ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग

आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग

रमल: (2122,1122,1122,1121)

ग़ज़ल 5










जब कभी उनको उघाड़ा जाएगा
हर दफ़ा हमको लताड़ा जाएगा

जो नहीं रुकते किसी तरह उन्हें
ऐसा लगता है कि गाड़ा जाएगा

पीपलों की पौध ढूँढी जाएगी
फिर उन्हें जड़ से उखाड़ा जाएगा

झूठ को आबाद करने के लिए
हर हक़ीक़त को उजाड़ा जाएगा

हम गुफ़ाओं को ग़नीमत मान लें
इस क़दर मौसम बिगाड़ा जाएगा.

रमल:(2122,2122,212)

ग़ज़ल 6.











ये कौन सी फ़ज़ा है ये कौन सी हवा
छाँवों का हर दरख़्त झुलसता चला गया

तुमसे मिले हुए भी हुईं मुद्दतें मगर
ख़ुद से मिले हुए भी तो अरसा बहुत हुआ

अहदे वफ़ा के साथ करें हम भी क्या सुलूक
तेरा भी क्या पता है मेरा भी क्या पता

मेरे सवाल जब न किताबों से हल हुए
मैंने तो ज़िन्दगी को मदरसा बना लिया

चलने को चल रहे हैं ज़माने के साथ हम
दिल में दबा हुआ बराबर गुबार-सा.

बहरे-मज़ारे:(1121,2121,1221,212)


ग़ज़ल 7.













ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा
अजीब शख़्स था वहमो—गुमान में ही रहा

तमाम उम्र कोई था निगाह में लेकिन
वो एक तीर जो अपनी उड़ान में ही रहा

कहाँ सुकून था लेकिन कहाँ तलाश किया
हर एक शख़्स फ़क़त आनबान में ही रहा

जहाँ भी मुड़ के कभी हमने ध्यान से देखा
बला का दोस्त भी अपने मचान में ही रहा

वो चार साल का बचपन गुज़र गया जब से
हर एक लम्हा किसी इम्तहान में ही रहा

शहर में करते तो हम किससे गुफ़्तगू करते
कि हमक़लम भी तो अपनी दुकान में ही रहा

बढ़ा के देख लिया हाथ हर दफ़ा हमने
सभी का हाथ तो अपनी थकान में ही रहा

कहीं पे शोर उठा या कहीं पे आग लगी
ज़हीन आदमी अपने मकान में ही रहा.

मजतस:(1212,1122,1212,112)

Saturday, September 27, 2008

तीन ग़ज़लें: द्विजेन्द्र द्विज









ग़ज़ल १

अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा

फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा

‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर
‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा

क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा

ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा




ग़ज़ल २

बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम

आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम

जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम

आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम

ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम

मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम




ग़ज़ल ३

कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में

वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में

ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में

घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में

धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में

जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में

सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में

सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में

Friday, September 26, 2008

जयंती- सरदार भगत सिंह



‘‘पिस्तौल और बम कभी इन्कलाब नहीं लाते,
बल्कि इन्कलाब की तलवार
विचारों की सान पर तेज़ होती है !’’
-भगतसिंह


एक शे’र जो भगत सिंह ने लिखा था-
कमाले बुज़दिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना
गरा ज़रा सी जूरत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता।
उभरने ही नहीं देती यह बेमाइगियां दिल की
नहीं तो कौन सा कतरा है, जो दरिया हो नहीं सकता।


सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 - 23 मार्च 1931) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे । इन्होने केन्द्रीय असेम्बली की बैठक में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया । जिसके फलस्वरूप भगत सिंह को 23 मार्च 1931) को इनके साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया । सारे देश ने उनकी शहादत को याद किया। इस महानायक को कोटि-कोटि नमन.

फ़िल्मी सितारों के जन्मदिन मनाने वाली युवा पीढ़ी और बम धमाकों से मरे लोगों के बीच खड़े होकर बार-बार विलायती सूट बदलने वाली सियासत और सब कुछ सहन करने वाले आम आदमी के लिए ही भगत सिंह ने अपनी कुर्बानी दी थी?? ?
भगत सिंह ने अपनी माँ से सही कहा था कि माँ! आजादी से कोई खास फ़र्क नही पड़ेगा बस गोरे लोगों की जगह अपने लोग आ जायेंगे.

पाश की कविता आज के दौर का कितना सही खाका खेंचती है...

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना.
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से काम पर निकलना
और काम से घर जाना
सबसे खतरनाक़ होता है
हमारे सपनों का मर जाना.



भगत सिंह के शब्द याद रखें:
‘मैं यथार्थवादी हूं। मैं अपनी अंत प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं। ..प्रयत्न तथा प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।’

बेहतर कल के सपने लिए... भारत

Thursday, September 25, 2008

द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ग़ज़ल









ग़ज़ल

अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
किसी भी सिम्त से उस पर कोई पत्थर नहीं आता

अँधेरों से उलझ कर रौशनी लेकर नहीं आता
तो मुद्दत से कोई भटका मुसाफ़िर घर नहीं आता

यहाँ कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुंध बाँटी है
नज़र अब इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता

जो सूरज हर जगह सुंदर—सुनहरी धूप लाता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता

अगर इस देश में ही देश के दुशमन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता

जो ख़ुद को बेचने की फ़ितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता

अगर ज़ुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे ज़ुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता

ग़ज़ल को जिस जगह 'द्विज', चुटकुलों सी दाद मिलती हो
वहाँ फिर कोई भी आए मगर शायर नहीं आता

द्विजेंन्द्र द्विज

Wednesday, September 24, 2008

रामधारी सिंह दिनकर- जन्म दिवस पर विशेष












श्री रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय ज़िले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ.गद्य की उनकी चर्चित किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' पर उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार और वर्ष 1972में 'उर्वशी' प्रबंध काव्य पर ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया.इसके अतिरिक्त हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, दिल्ली और हारे को हरिनाम और शुद्ध कविता की खोज आदि प्रमुख कृतियाँ उन्होंने लिखीं. 24 अप्रैल 1974 को दिनकर का उनका देहांत हो गया .

‘‘हृदय छोटा हो,
तो शोक वहाँ नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,जिसका भाग्य खुलता है"


रामधारी सिंह दिनकर

Saturday, September 20, 2008

एक ज़मीन दो शायर : संत कबीर और निदा फ़ाज़ली









संत कबीर :

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?








निदा फ़ाज़ली:

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.

दो-ग़जला: एक ज़मीन और एक ही बहर , एक ही शायर द्वारा लिखी गई दो ग़ज़लों को दो-ग़ज़ला कहते हैं. इनकी ज़मीन एक है . माफ़ी चाहता हूँ ये दोनो ग़ज़लें दो-ग़ज़ला नहीं हैं.द्विज जी को धन्यावाद ग़ल्ती को ठीक करवाने के लिए.

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Dwij said

प्रिय सतपाल

अच्छा किया आपने वो दो—ग़ज़ला शीर्षक बदल दिया.
कबीर साहिब की ज़मीन में निदा फ़ाज़ली साहिब की ग़ज़ल भी अच्छी है
लेकिन आख़िरी शे’र?
‘मीर’ साहिब की ग़ज़ल मेहदी हसन साहिब की आवाज़ में
बचपन से सुनता आ रहा हूँ
:
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ—सा कहाँ से उठता है

मीर’ इश्क़ एक भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है?

अब इसके बाद:
हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का—भारी क्या

फ़ाज़ली साहिब का शेर यूँ ही —सा लगा . मुझे समझ नहीं आया. शायद मैं इसे उनके तरीक़े से महसूस नहीं कर पा रहा हूँ. कोई मुझे समझाये वो क्या कहना चाहते हैं, जनाबे मीर से मुत्तफ़िक़ न होकर.
ग़ालिब के शेर:
ये मसायल—ए—तसव्वुफ़, ये तेरा ब्यान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़ार होता.

के बाद गुलज़ार साहिब का:
बड़े सूफ़ियों —से ख्याल थे और बयाँ भी उसका कमाल था
मैने कब कहा कि वली था वो एक शख़्स था बादाख़ार था
भी मुझे आजतक समझ नहीं आया
और
ग़ालिब के:
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं,है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने”

के बाद ‘मख़्मूर’ देहलवी का

“मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता”
बस यूँ ही—सा लग रहा है.
ये बड़े शायर बज़ुर्गों को कब बख़्शेंगे?


Dwij