Friday, September 10, 2021

निदा फ़ाज़ली और कबीर-एक ज़मीन दो शायर -Nida Fazli-Kabir

 

निदा फ़ाज़ली और कबीर एक ही ज़मीन में दोनों की ग़ज़लें-


निदा साहब -

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या


 कबीर -Kabiirdas


हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?


फरहत शहज़ाद साहब का ताज़ा शे'र

 काट कर पैर ,कर दिया आज़ाद जब उसने मुझे

देख सकती थीं जो आंखें ,उनको नम होना पड़ा
फरहत शहजाद साहब |

Thursday, September 9, 2021

राहत इंदौरी साहब के पांच खूबसूरत शेर - Rahat Indori

 

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम

आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

 

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है

चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है


हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते

जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते

 

बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए

मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए

 

आते जाते हैं कई रंग मिरे चेहरे पर

लोग लेते हैं मज़ा ज़िक्र तुम्हारा कर के


राहत इंदौरी

1 Jan1950-11 August 2020

आज का शे'र -ग़ालिब /Ghalib


 

Wednesday, September 8, 2021

"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब ,तरही मुशायरा

 दोस्तो ! हम इस ब्लॉग "आज की ग़ज़ल"(श्री द्विजेन्द्र द्विज जी द्वारा संरक्षित) पर तरही मुशायरे का आयोजन कर रहे हैं

बहरे खफ़ीफ में इस बार का तरही मिसरा है -
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़'इ 'लुन
2122 1212 22/112/1121
रदीफ़ -कहाँ
काफिया -वबाल ,विसाल आदि |
"मैं कहां और ये वबाल कहां " ...ग़ालिब
अगले सोमवार तक आप अपनी गज़लें इन-बाक्स में भेज दें |
Past is nothing but new future with new Calender and New dates. Isnt it ? इतिहास अपने आप को दुहराता है |

Monday, September 6, 2021

अमित अहद की एक ग़ज़ल - Ek ghazal








सहारनपुर के युवा शायर अमित अहद की एक ग़ज़ल

तेरे मेरे ग़म का मंज़र

हर सू है मातम का मंज़र


मुद्दत से इक जैसा ही है

यादों की अलबम का मंज़र


दहशत में डूबा डूबा है

अब सारे आलम का मंज़र


दूर तलक अब तो दिखता है

पलकों पर शबनम का मंज़र


ज़ख्मों के बाज़ार सजे हैं

ग़ायब है मरहम का मंज़र


चीखों के इस शोर में मौला

पैदा कर सरगम का मंज़र


रफ़्ता-रफ़्ता अब आहों में

बदला है मौसम का मंज़र


लाशें ही लाशें बिखरी है

हर सू देख सितम का मंज़र


'अहद' नहीं देखा बरसों से

पायल की छम छम का मंज़र


फेसबुक लिंक अमित अहद -


Friday, August 27, 2021

सदियों का सारांश -ज्ञान पीठ से प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह-श्री दविजेंद्र द्विज दारा लिखित


 “सदियों का सारांश “ ग़ज़ल संग्रह – श्री द्विजेंद्र द्विज

अगर मैं ये कहूँ कि मैं समीक्षा कर रहा हूँ तो ये अमर्यादित होगा , बस अपने मन की बात करना चाहता हूँ जो कि काफी चलन में भी है | मैं द्विज सर से तकरीबन ३० साल से जुड़ा हुआ हूँ | द्विज जी वो सूर्य हैं जिससे मैनें भी रौशनी हासिल की है तो मेरा कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर हो जाएगा | उनको बधाई देते हुए मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ |
शाइरी वास्तव में जन , गण और मन की व्यथा का सारांश ही तो है और ये व्यथा बाबा आदम के ज़माने से जस की तस बनी हुई है | इस व्यथा से हर कोई वाक़िफ़ होता है लेकिन शाइर इस व्यथा को अपने अंदाज़ में , एक विशेष भाषाई शैली में ,शेर कहकर पाठक को ठीक उसी धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है जिस पर खड़े होकर वो ख़ुद शेर कहता है | एक सच्चा शेर कुछ ऐसा कमाल का चमत्कार करता है कि पाठक को विभोर कर देता है और पढ़ने वाले को लगता है कि ये उसने ही कहा है ,उसके लिए ही है और उसकी ही पीड़ा है , उसके ही जीवन का सारांश है|
अब देखिए द्विज जी कैसे कुरेदते है व्यथा को , कैसे सजाते है व्यथा को , कैसे तंज़ करते हैं और कैसे पाठक के मन में टीस पैदा करते हैं | ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ में ही ये क़ाबलियत है कि वो सब कुछ एक साथ लेकर चलती है ,बह्र भी ,कहन भी , शेरीयत भी ,भाषा भी ,संगीत भी और शाइर के शेर कहने की कुव्वत भी –
तमाम हसरतें सोई रहें सुकून के साथ
चलो कि दिल को बना लें एक मज़ार
हम सब इस खिते में पैदा हुए हैं , हमारी पीड़ा सांझी है और मैं तो ये समझता हूँ कि ये पीड़ा इश्वर की देन नहीं है ये व्यवस्था की देन है ,सियासत की देन है और ये सिलसिला सदियों से वैसा ही है ,कुछ नहीं बदला –
एक अपना कारवाँ है ,एक सी है मुश्किलें
रास्ता तेरा अगर है पुरख़तर मेरा भी है
मैं उड़ानों का तरफ़दार उसे कैसे कहूँ
बाल-ओ –पर है जो परिंदों के कतरने वाला
और द्विज जी के इस शेर को सुनकर एक और उनका शेर मेरे ज़हन में लडकपन से बैठा हुआ है –
पंख पकड़कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समन्दर पार का सपना ,सपना ही रह जाता है
जिसे बाद में द्विज जी ने कुछ इस तरह से इसे संवार कर लिखा -
पंख क़तर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
नील गगन की आंख का सपना ,सपना ही रह जाता है
मैं कई बार उनसे बात करता हूँ और अक़सर पूछता हूँ कि ये दुनिया क्या आदम के ज़माने से ही ऐसी है या फिर अब हुई है ,क्यों अवतारी आत्माएं भी इसे वैसा नहीं बना पाई जैसा शायर चाहता है | तो द्विज जी ने के एक बार बड़ी अच्छा कोट(quote) अंग्रेजी साहित्य का सांझा किया -
“If you know everything then go and commit suicide” When you realized the TRUTH then you left this materialistic world like Budh did.
सो ग़ालिब भी कुछ ऎसी मनोदशा में कहता है –
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
इरादा छोड़ भी दो खुद्कुशी का
नया कुछ नाम रख लो ज़िन्दगी का (द्विज जी )
लेकिन द्विज जी के भीतर का शायर पलायन का रास्ता इख्तियार नही करता , नायक की तरह हार भी नहीं मानता और अंत तक लड़ता है और कहता है –
मैं उस दरख्त का अंतिम वो ज़र्द पत्ता हूँ
जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ़ लड़ना था
द्विज जी की शाइरी , हिन्दी या उर्दू से परहेज़ नहीं करती बल्कि दोनों को दुलारती है –
ताज़गी, खुशबू ,इबादत ,मुस्कुराहट ,रौशनी
किस लिए है आज मेरी कल्पनाओं के खिलाफ़
द्विज जी भले दुष्यंत के हाथ से ग़ज़ल को पकड़कर आगे चलते हैं लेकिन वो इसे और आगे लेकर जाते हैं जहां रिवायत और जदीदियत में फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है और यही उनको दुष्यंत से अलग भी करता है |
किसी को ठौर –ठिकानों में पस्त रखता है
हमें वो पाँव के छालों में मस्त रखता है
जब अख़बार और मीडिया सरकारी जूतियाँ सीधी करने लगे तो शायर चुप नहीं बैठा ,शायद इसलिए कहते हैं कि सच को जानना हो तो उस समय की लिखी कविता कों पढ़ो ,उस समय के लिखे इतिहास या अख़बार को नहीं | सलाम है द्विज जी की इस निर्भीकता को –
किसानों पर ये लाठी भांज कर फसलें उगायेगी
अभी देखा नहीं तुमने मेरी सरकार का जादू
और फिर देखो ये हिम्मत और ज़ब्त –
रू –ब-रू हमसे हमेशा रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार सम्भाले हुए हैं
इन्हें भी कब का अंधेरा निगल गया होता
हमारे अज्म ने रखे हैं हौसले रौशन
अनछूहे सिम्बल और कहन की बेमिसाल बानगी ये शेर –
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकंदर को सिकंदर नहीं रहने देता
देखो शायर कैसे आंखे मिलाकर आसमान से सवाल पूछता है, ये मग़रूर आस्मां हमारे राहबरों जैसा ही तो है -
जुरअत करे ,कहे तो कोई आसमान से
पंछी कहां गए ,जो न लौटे उड़ान से
खामुशी की बर्फ़ में अहसास को जमने न दे
गुफ़्तगू की धुप में आकर पिघलकर बात कर
आप जैसे– जैसे द्विज जी की ग़ज़लें पढ़ते जायेंगे वैसे एक सुरूर सा तारी हो जाएगा आप पर और फिर एक से एक शेर कभी बारिश तो कभी बिजली बनकर कौंदेंगे, आपको खुश भी करेंगे ,उदास भी और पहाड़ की तरह अडिग रहने का उपदेश भी देंगे |
गिरा है आंख से जो एक आंसू
वही क़तरा समन्दर हो गया तो
यहां भी मुंतज़िर कोई नहीं था
मिला ये क्या मुझे घर वापसी से
गमे-जाना , ग़में –दुनिया से आख़िर
ग़ज़ल में किस तरह घुल –मिल गया है
ज़ब्त जब इम्तिहान तक पहुंचा
ग़म भी मेरा बयान तक पहुंचा
औज़ार बाँट कर ये सभी तोड़ - फोड़ के
रक्खोगे किस तरह भला दुनिया को जोड़ के
वास्तव में ग़म चाहे कोई भी हो ज़िंदगी का ही ग़म है, उसे रिवायती अंदाज़ में कहो या फिर जदीद शाइरी के हवाले से , जुड़ा वो हमेशा ज़िंदगी से ही होगा | कुछ आप बीती , कुछ जगबीती सब कुछ मिला- जुला , यही कुछ द्विज जी की ग़ज़लों में भी है ,हर रंग है इनमें और एक अपना अलहदा रंग भी है -
मैं भी रंगने लगा हूँ बालों को
वो भी अब झुर्रियां छुपाती है
माँ , मैं ख़्वाबों से खौफ़ खाता हूँ
क्यों मुझे लोरियां सुनाती है ?
अब ख़त्म हो चुका तक़रीर का वो जादू
सारा बयान तेरा सस्ता –सा चुटकुला है
बीते कल को अपनी दुखती पीठ पर लादे हुए
ढोयेंगे कल आने वाले कल को भी थैलों में लोग
यक़ीनन हो गया होता मैं पत्थर
सफ़र में मुड़के पीछे देखता जो
और एक मेरा पसंदीदा शेर जो द्विज जी के पहले ग़ज़ल संग्रह “जन गण मन” से है , जो मुझे बेहद पसंद है -
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिंधती हैं उंगलियाँ भी जिसे टांकते हुए
और शायद सारांश भी यही है ज़िन्दगी के सदियों के सफ़र का कि बस चलते रहो, जैसे कोई नदी दिन –रात चलती है , चलना आदत भी है , मजबूरी भी है और शायद गतिशीलता, आधार भी है जीवन का –
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या और तिश्नगी क्या
आगे बढ़ने पे मिलेंगे तुझे कुछ मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ
और मुझे आस है कि अभी बहुत कुछ अनकहा है द्विज जी के पास जो फिर से एक और ग़ज़ल संग्रह में फिर से महकेगा |बड़ी खूबसूरती के साथ ज्ञानपीठ ने इसे छापा है और विजय कुमार स्वर्णकार जी ने कम शब्दों में वो सब कुछ कह दिया जो “सदियों का सारांश” का सार है | हिमाचल , जो बर्फ और सेबों के लिए जाना जाता है वो अब द्विज जी की ग़ज़लों से भी जाना जाएगा और हिमाचल भी ग़ज़ल से वैसे ही महकेगा जैसे दिल्ली और लखनऊ महकते हैं अगर कुछ खाद –पानी हिमाचल का भाषा विभाग भी डाले तो ग़ज़ल हिमाचल में और फल –फूल सकती है |
धुंध की चादर हटा देंगे अभी सूरज मियाँ
फिर पहाड़ों पर जगेगी धूप भी सोई हुई
सादर
सतपाल ख़याल
*(उद्दित सारे शेर “सदियों का सारांश “ से लिए गए हैं , आप इसे अमेजन से ख़रीद सकते हैं )

Thursday, September 15, 2016

मेरी एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र

ग़ज़ल

हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है?
क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है?

किसने जाना है, जो तू जानेगा
क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है?

दर-बदर खाक़ छानते हो तुम
इतना भटके हो पर मिला क्या है?

खोज लेंगे अगर बताए कोई
उसके घर का मगर पता क्या है?

एक अर्जी खुशी की दी थी उसे
उस गुज़ारिश का फिर हुआ क्या है?

हम ग़रीबों को ही सतायेगी
ज़िंदगी ये तेरी अदा क्या है?

मुस्कुरा कर विदाई दे मुझको
वक़्ते-आखिर है , सोचता क्या है?

दर्द पर तबसिरा किया उसने
हमने पूछा था बस दवा क्या है?

बेवफ़ा से ही पूछ बैठे "ख़याल"
क्या बाताये वो अब वफ़ा क्या है?



Wednesday, October 14, 2015

रूबाई



रूबाई
पहले दो मिसरे मतले की तरह होते हैं. दोनो मे काफ़िया इस्तेमाल होता है और तीसरे को छोडकर चौथे मे काफ़िया इस्तेमाल होता है.चारो मिसरों मे भी काफ़िए का प्रयोग हो सकता है.रुबाई मे
चौथे मिसरे मे अपनी बात खत्म करनी होती है नही तो रूबाई किता बन जायेगी. ये बहुत अहम बात है.

मूल मीटर है:
2222 222 222

अब इसमे तीन मुजाहिफ़ कहें या इस्तेमाल होने वाली सूरतें हैं

एक:....
22 11 2 222 222

दूसरी सूरत:

2222 2112(1212) 222

तीसरी सूरत:

2222 222 2112 (1)

and as by sh RP sharma ji:
"S" denoted for guru 2 and I for laghu 1


rub

फिराक गोरखपुरी की लिखी हुई 'रूप' की स्र्बाइयां

दीवाली की शाम घर पुते और सजे
चीनी के खिलौने, जगमगाते लावे
वो रूपवती मुखड़े पे लिए नर्म दमक
बच्चों के घरौंदे में जलाती है दिए
मंडप तले खड़ी है रस की पुतली
जीवन साथी से प्रेम की गांठ बंधी
महके शोलों के गिर्द भांवर के समय
मुखड़े पर नर्म छूट सी पड़ती हुई

ये हल्के सलोने सांवलेपन का समां
जमुना जल में और आसमानों में कहां
सीता पे स्वयंवर में पड़ा राम का अक्स
या चांद के मुखड़े पे है जुल्फों का धुआं

मधुबन के बसंत सा सजीला है वो रूप
वर्षा ऋतु की तरह रसीला है वो रूप
राधा की झपक, कृष्ण की बरजोरी है
गोकुल नगरी की रास लीला है वो रूप

जमुना की तहों में दीपमाला है कि जुल्फ
जोबन शबे - क़द्र ने निकाला है कि जुल्फ
तारीक़ो - ताबनाक़* शामे हस्ती (अंधेरी तथा प्रकाशमान)
जिंदाने - हयात* का उजाला है कि जुल्फ (जीवन रूपी कारागार)

भीगी ज़ुल्फों के जगमगाते कतरे
आकाश से नीलगूं शरारे फूटे
है सर्वे रवां* में ये चरागां*का समां (१. बहती नदी २. दीपमाला)
या रात की घाटी में जुगनू चमकें

है तीर निगाह का कि फूलों की छड़ी
कतरे हैं पसीने के कि मोती की लड़ी
कोमल मुस्कान और सरकता घूंघट
है सुबहे - हयात* उमीदवारों में खड़ी ( जीवन प्रभात)

ये रंगे निशात, लहलहाता हुआ गात
जागी - जागी सी काली जुल्फेंा की ये रात
ऐ प्रेम की देवी ये बता दे मुझको
ये रूप है या बोलती तस्वीरे हयात

जब प्रेम की घाटियों में सागर उछले
जब रात की वादियों में तारे छिटके
नहलाती फिजां का आई रस की पुतली
जैसे शिव की जटा से गंगा उतरे

किस प्यार से होती है खफा बच्चे से
कुछ त्यौरी चढ़ाए हुए, मुंह फेरे हुए
इस रूठने पर प्रेम का संसार निसार
कहती है ' जा तुझसे नहीं बोलेंगे'

चौके की सुहानी आंच, मुखड़ा रौशन
है घर की लक्ष्मी पकाती भोजन
देते हैं करछुल के चलने का पता
सीता की रसोई के खनकते बर्तन
1. लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे



2. दोशीज़: ए बहार मुसकुराए जैसे
मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे
ये शान ए सुबकरवी, ये ख्नुशबू ए बदन
बल खाई हुई नसीम गाए जैसे



3. ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे



4. मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा
गुलगूँ रुख्नसार की बलाऎं लेता
रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़
गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना



5. माँ और बहन भी और चहीती बेटी
घर की रानी भी और जीवन साथी
फिर भी वो कामनी सरासर देवी
और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली



6. अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी
जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी
ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप
जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी



7. हम्माम में ज़ेर ए आब जिसम ए जानाँ
जगमग जगमग ये रंग ओ बू का तूफ़ाँ
मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव
तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ



8. चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें
चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें
जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन
पलकोँ की ओट मुस्कुराती आँखें



9. तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख



10. भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख



लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे



दोशीज़-ए-बहार मुस्कुराए जैसे
मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे
ये शान ए सुबकरवी, ये ख़ुशबू-ए-बदन
बल खाई हुई नसीम गाए जैसे



ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़ जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे



मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा
गुलगूँ रुख़सार की बलाएँ लेता
रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़
गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना



माँ और बहन भी और चहेती बेटी
घर की रानी भी और जीवन साथी
फिर भी वो कामनी सरासर देवी
और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली



अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी
जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी
ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप
जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी



हम्माम में ज़ेर ए आब जिस्म ए जानाँ
जगमग जगमग ये रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ
मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव
तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ



चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें
चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें
जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन
पलकों की ओट मुस्कुराती आँखें



तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख
जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख
जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:
दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख



भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख
दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख
ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी
गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख




किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी
हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी
माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में
बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी




किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए
इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे




है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी
कन्या है , सुहागन है जगत माता


हौदी पे खड़ी खिला रही है चारा
जोबन रस अंखड़ियों से छलका छलका
कोमल हाथों से है थपकती गरदन
किस प्यार से गाय देखती है मुखड़ा


वो गाय को दुहना वो सुहानी सुब्हें
गिरती हैं भरे थन से चमकती धारें
घुटनों पे वो कलस का खनकना कम-कम
या चुटकियों से फूट रही हैं किरनें

मथती है जमे दही को रस की पुतली
अलकों की लटें कुचों पे लटकी-लटकी
वो चलती हुई सुडौल बाहों की लचक
कोमल मुखड़े पर एक सुहानी सुरखी

आंखें हैं कि पैग़ाम मुहब्बत वाले
बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले
पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा
किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले


आँगन में सुहागनी नहा के बैठी हुई
रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली
जाड़े की सुहानी धूप खुले गेसू की
परछाईं चमकते सफ़हे* पर पड़ती हुई

मासूम जबीं और भवों के ख़ंजर
वो सुबह के तारे की तरह नर्म नज़र
वो चेहरा कि जैसे सांस लेती हो सहर
वो होंट तमानिअत** की आभा जिन पर

अमृत वो हलाहल को बना देती है
गुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है

प्यारी तेरी छवि दिल को लुभा लेती है
इस रूप से दुनिया की हरी खेती है
ठंडी है चाँद की किरन सी लेकिन
ये नर्म नज़र आग लगा देती है


सफ़हे – माथा, तमानिअत - संतोष

प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती है पलक
बैठी हुई है सिरहाने, माँद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ
पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक

चेहरे पे हवाइयाँ निगाहों में हिरास*
साजन के बिरह में रूप कितना है उदास
मुखड़े पे धुवां धुवां लताओं की तरह
बिखरे हुए बाल हैं कि सीता बनवास

पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग
पानी हचकोले ले के भरता है तरंग
कांधों पे, सरों पे, दोनों बाहों में कलस
मंद अंखड़ियों में, सीनों में भरपूर उमंग

ये ईख के खेतों की चमकती सतहें
मासूम कुंवारियों की दिलकश दौड़ें
खेतों के बीच में लगाती हैं छलांग
ईख उतनी उगेगी जितना ऊँचा कूदें
निदा जी के अनुसार:
रुबाई एक काव्य विधा का नाम है. रुबाई अरबी शब्द रूबा से निकला है. जिसका अर्थ होता है चार.
रुबाई चार पंक्तियों की कविता है जिसकी पहली दो और चौथी पंक्तियाँ तुकात्मक होती है और तीसरी लाइन आज़ाद रखी जा सकती है. डॉक्टर इक़बाल की एक रुबाई है

रगों में वो लहू बाक़ी नहीं है
वो दिल वो आरजू बाकी नहीं है
नमाजो-रोज़-ओ-कुर्बानिओ-हज
ये सब बाक़ी है तू बाक़ी नहीं है

रुबाई का अपना एक छंद होता है.

इस छंद के बारे में कहा जाता है, 251 ईसवी सन में अरब के एक इलाक़े में सुल्तान याकूब का लड़का गोलियों से खेल रहा था. एक गोली के लुढ़कने पर उसने ख़ुशी में कुछ लफ्ज़ कहे थे. इन लफ्ज़ों में एक ख़ास लय थी. उस समय के शायर रोदकी ने इसी लय में तीन पंक्तियाँ जोड़ दीं और इस तरह रुबाई और इस का छंद वजूद में आया.

पहली रुबाई अरब की देन ज़रूर है, लेकिन इस विधा को शोहरत ईरान में मिली. ईरान में 12वीं सदी, उमर ख़ैयाम की रुबाइयों के लिए मशहूर है. उमर ख़ैयाम खुरासाँ में नेशपुर के निवासी थे. उसके नाम के साथ ख़ैयाम का जुड़ाव, शायर के पिता के पेशे की वजह से था. ख़ैयाम के पिता इब्राहीम ख़ेमे (तंबू) बनाने का काम करते थे और ख़ैयाम को फारसी में 'ख़ेमा' के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है.

उमर ख़ैयाम की रूबाइयों की शोहरत में, अंग्रेज़ी भाषा के कवि एडवर्ड फिट्ज जेराल्ड (1809-1883) का बड़ा हाथ है. जेराल्ड ख़ुद भी अच्छे कवि थे लेकिन कविता के पाठकों में वह अपनी कविताओं से अधिक ख़ैयाम की रूबाइयों के अनुवादक के रूप में अधिक पहचाने जाते हैं. जीवन की अर्थहीनता में व्यक्तिगत अर्थ की खोज, खैयाम की रूबाइयों का केंद्रीय विषय है. इस एक विषय को अलग-अलग प्रतीकों और बिम्बों के ज़रिए उन्होंने बार-बार दोहराया है.

फिराक़ गोरखपुरी का शेर है,

ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ

वह उदास होने के लिए सोच की शर्त रखते थे और ख़ैयाम इस सोच को भूलकर साँसों को गँवारा बनाते हैं. एक स्तर पर ख़ैयाम की यह सोच हिंदू मत में माया-दर्शन से भी मिलती-जुलती नज़र आती है. अंतर सिर्फ़ इतना है 'माया' कबीर के शब्दों में ठगनी है जो आत्मा और परमात्मा के बीच दीवार उठाती है और ख़ैयाम की फ़िलॉसफ़ी में इस संसार में जीवन के अर्थहीन होने का मातम ज़रूर करती है.

मगर वह इस मातम-खुशी का एक पहलू भी खोज निकालते हैं और वह है ख़ैयाम का जाम. पश्चिम में ये छोटी कविताएँ काफी लोकप्रिय हुईं. नौजवानों को इनमें विद्रोह और नैतिकता के पाखंड को बेनकाब करने करने का रास्ता नज़र आया. उन्हें इनके लिए ये रुबाइयाँ 'विक्टोरियन कल्चर' के ख़िलाफ़ एक मंच देती थी. इन रूबाइयों के प्रशंसकों में टनीसन ने इनकी तारीफ में एक कविता लिखी और थॉमस हार्डी ने 88 वर्ष की उम्र में मरने से पहले ख़ैयाम की एक रुबाई सुनने की इच्छा प्रकट की थी.

ख़ैयाम और मधुशाला

हरिवंश राय बच्चन भी ईरान के इस बोहेमियन महाकवि के जादू से नहीं बच सके. बच्चन जी की मुलाक़ात उमर ख़ैयाम की रूबाइयो से, फारसी भाषा में नहीं हुई. वह उमर खैयाम से फिट्ज जेराल्ड के अनुदित अंग्रेज़ी रूप के माध्यम से मिले थे. बच्चन जी अंग्रेज़ी के शिक्षक थे और अंग्रेज़ी के कवि यीट्स पर उन्होंने कैब्रिज से डॉक्ट्रेट की डिग्री भी प्राप्त की थी. शेक्सपियर के कई नाटकों का हिंदी में अनुवाद भी किया था.

जेराल्ड की तरह उन्होंने भी रुबाई के विशेष छंद को छोड़कर अपने ही मीटर में मधुशाला की चौपाइयों की रचना की है. ये भावभूमि के स्तर पर भी खैयाम के प्रतीकों और संकेतों के बावजूद ख़ैयाम से अलग भी है और छह सौ साल में जो समय बदला है, उस बदलाव से जुड़ी हुई भी हैं. मधुशाला की रूबाइयो का प्रथम पाठ बच्चन जी ने सन् 1934-35 में बनारस में किया था. अपने प्रथम पाठ से अब तक मधुशाला स्वर्ण जयंती से गुजर के हीरक जयंती मना चुकी है. 1984 में इसकी स्वर्ण जयंती के अवसर पर उन्होंने एक नई रुबाई भी लिखी थी

घिस-घिस जाता कालचक्र में हर मिट्टी के तनवाला
पर अपवाद बनी बैठी है मेरी यह साक़ी बाला
जितनी मेरी उम्र वृद्ध मैं, उससे ज़्यादा लगता हूँ
अर्धशती की होकर के भी षोडष वर्षी मधुशाला

मधुशाला हिंदी काव्य साहित्य के संसार में अपना मेयार आप है. यह अकेली किताब है जो अपने जन्म से अब तक कई जन्म ले चुकी है और आज तक पाठकों के साथ चलती-फिरती है और बातचीत में मुहाविरों की तरह इस्तेमाल होती है.

बच्चन जी ने कई विधाओं में लिखा है और स्तरीय लिखा है लेकिन यह वह पुस्तक है जो अमिताभ के जन्म से पहले वजूद में आई थी और उनकी फ़िल्मी शोहरत के बगैर भी जनजन में मशहूर है. पहले भी थी और अब भी है. इस पुस्तक की लोकप्रियता का एक कारण तो इन रुबाइयों में वे अनोखे प्रतीक है, हाला, प्याला, साक़ी बाला आदि और दूसरा आकर्षण इसकी शब्दावली है जिसमें आम आदमी अपने दुख-सुख का इजहार करता है. इन्ही के साथ इन रूबाइयों का मुख्य पात्र धर्म-जात के घेरे से बाहर होकर सदभाव की रौशनी फैलाता है. होश वालों की दुनिया में वह ऐसा बेहोश है जो न हिंदू है न मुसलमान सिर्फ इंसान है और वह इंसान जितना सूफ़ी है और उतना ही रिंद है.

मुसलमान और हिंदू दो हैं, एक मगर उनका प्याला
एक मगर उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला
दोनों रहते एक न जब तक मंदिर-मस्जिद को जाता
बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला

मैं मदिरालय के अंदर हूँ मेरे हाथों में प्याला
प्याले में मदिरालय बिंबित करने वाली हाला
इस उधेड़बुन ही में मेरा सारा जीवन बीत गया
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला

एक बार सहारा ग्रुप ने बच्चन जी की वर्षगाँठ मनाई थी. इस आयोजन में एक कवि सम्मेलन भी था. जिसमें मैं भी आमंत्रित था. कवि सम्मेलन के बाद अमिताभ बच्चन को स्टेज पर बुलाया गया और उन्होंने अपनी आवाज़ में कई साज़ों के साथ मधुशाला की कई रूबाइयाँ सुनाईं थी. अमिताभ सुनने से अधिक देखने की चीज़ है. लोगों ने दिल खोलकर उनका स्वागत किया.

अमित जी न रूबाइयों को अपनी धुन में गाया था, लेकिन उन्होंने आकाशवाणी में सुरक्षित, सीनियर बच्चन जी की आवाज़ में बिना साज़ के इन्हें सुना था. उन्हें अमिताभ की प्रस्तुति पसंद नहीं आई. यह भी हो सकता है जब कोई चीज़ आदत बन जाती है तो उसमें थोड़ी सी भी तब्दीली सुनने वालों को सताती है.

मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा



Tuesday, October 13, 2015

ग़ज़ल की बुनियादी संरचना

ग़ज़ल पर प्रस्तुत भूमिका के साथ ही अनेकों सकारात्मक प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई। इन प्रतिक्रियाओं में एक बात अधिकतम पाठकों नें कही कि हम ग़ज़ल की बुनियादी बातों से इस स्तंभ का आरंभ करें, इससे बेहतर तरीके से इस विधा को समझा जा सकेगा। ग़ज़ल क्या है? इस विषय पर बडी चर्चा हो सकती है और हम आगे इस पर परिचर्चा आयोजित भी करेंगे। बहुत बुनियादी बात विजय वाते अपनी ग़ज़ल में कहते हैं:-

हिन्दी उर्दू में कहो या किसी भाषा में कहो
बात का दिल पे असर हो तो ग़ज़ल होती है।

यानी ग़ज़ल केवल शिल्प नहीं है इसमें कथ्य भी है। यह संगम है तकनीक और भावना का। तकनीकी रूप से ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जिसका हर शे'र (‘शे'र’ को जानने के लिये नीचे परिभाषा देखें) अपने आप मे कविता की तरह होता है। हर शे'र का अपना अलग विषय होता है। लेकिन यह ज़रूरी शर्त भी नहीं, एक विषय पर भी गज़ल कही जाती है जिसे ग़ज़ले- मुसल्सल कहते हैं। उदाहरण के तौर पर “चुपके- चुपके रात दि ग़ज़ल पर प्रस्तुत भूमिका के साथ ही अनेकों सकारात्मक प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई। इन प्रतिक्रियाओं में एक बात अधिकतम पाठकों नें कही कि हम ग़ज़ल की बुनियादी बातों से इस स्तंभ का आरंभ करें, इससे बेहतर तरीके से इस विधा को समझा जा सकेगा। ग़ज़ल क्या है? इस विषय पर बडी चर्चा हो सकती है और हम आगे इस पर परिचर्चा आयोजित भी करेंगे। बहुत बुनियादी बात विजय वाते अपनी ग़ज़ल में कहते हैं:-

हिन्दी उर्दू में कहो या किसी भाषा में कहो
बात का दिल पे असर हो तो ग़ज़ल होती है।

यानी ग़ज़ल केवल शिल्प नहीं है इसमें कथ्य भी है। यह संगम है तकनीक और भावना का। तकनीकी रूप से ग़ज़ल काव्य की वह विधा है जिसका हर शे'र (‘शे'र’ को जानने के लिये नीचे परिभाषा देखें) अपने आप मे कविता की तरह होता है। हर शे'र का अपना अलग विषय होता है। लेकिन यह ज़रूरी शर्त भी नहीं, एक विषय पर भी गज़ल कही जाती है जिसे ग़ज़ले- मुसल्सल कहते हैं। उदाहरण के तौर पर “चुपके- चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है” बेहद प्रचलित ग़ज़ल है, ये “ग़ज़ले मुसल्सल” की बेहतरीन मिसाल है। ग़ज़ल मूलत: अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है स्त्रियों से बातें करना। अरबी भाषा की प्राचीग ग़ज़ले अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप थी भी, लेकिन तब से ग़ज़ल नें शिल्प और कथन के स्तर पर अपने विकास के कई दौर दे न आँसू बहाना याद है” बेहद प्रचलित ग़ज़ल है, ये “ग़ज़ले मुसल्सल” की बेहतरीन मिसाल है। ग़ज़ल मूलत: अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है स्त्रियों से बातें करना। अरबी भाषा की प्राचीग ग़ज़ले अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप थी भी, लेकिन तब से ग़ज़ल नें शिल्प और कथन के स्तर पर अपने विकास के कई दौर देख लिये हैं।
ग़ज़ल को समझने के लिये इसके अंगों को जानना आवश्यक है। आईये ग़ज़ल को समझने की शुरुआत सईद राही की एक ग़ज़ल के साथ करते हैं, और सारी परिभाषाओं को इसी ग़ज़ल की रौशनी में देखने की कोशिश करते हैं:
कोई पास आया सवेरे सवेरे
मुझे आज़माया सवेरे सवेरे
मेरी दास्तां को ज़रा सा बदल कर
मुझे ही सुनाया सवेरे सवेरे
जो कहता था कल संभलना संभलना
वही लड़खड़ाया सवेरे सवेरे
कटी रात सारी मेरी मयकदे में
ख़ुदा याद आया सवेरे सवेरे


)शे'र: दो पदों से मिलकर एक शे'र या बैंत बनता है। दो पंक्तियों में ही अगर पूरी बात इस तरह कह दी जाये कि तकनीकी रूप से दोनों पदों के वज्‍़न समान हो। उदाहरण के लिये:

कटी रात सारी मेरी मयकदे में
ख़ुदा याद आया सवेरे सवेरे

शेर की दूसरी पंक्ति का तुक पूर्वनिर्धारित होता है (दिये गये उदाहरण में “सवेरे सवेरे” तुक) और यही तुक शेर को ग़ज़ल की माला का हिस्सा बनाता है।

आ) मिसरा शे'र का एक पद जिसे हम उर्दू मे मिसरा कहते हैं। चलिये शे'र की चीर-फाड करें - हमने उदाहरण में जो शेर लिया था उसे दो टुकडो में बाँटें यानी –

पहला हिस्सा - कटी रात सारी मेरी मयकदे में
दूसरा हिस्सा - ख़ुदा याद आया सवेरे सवेरे

इन दोनो पद स्वतंत्र मिसरे हैं।

थोडी और बारीकी में जायें तो पहले हिस्से यानी कि शे'र के पहले पद (कटी रात सारी मेरी मयकदे में) को 'मिसरा ऊला' और दूसरे पद (ख़ुदा याद आया सवेरे सवेरे) लाइन को 'मिसरा सानी' पारिभाषित करेंगे। हिन्दी में प्रयोग की सुविधा के लिये आप प्रथम पंक्ति तथा द्वतीय पंक्ति भी कह सकते हैं। प्रथम पंक्ति (मिसरा ऊला) पुन: दो भागों मे विभक्त होती है प्रथमार्ध को मुख्य (सदर) और उत्तरार्ध को दिशा (उरूज) कहा जाता है। भाव यह कि पंक्ति का प्रथम भाग शेर में कही जाने वाली बात का उदघाटन करता है तथा द्वितीय भाग उस बात को दूसरी पंक्ति की ओर बढने की दिशा प्रदान करता है। इसी प्रकार द्वितीय पंक्ति (मिसरा सानी) के भी दो भाग होते हैं। प्रथम भाग को आरंभिक (इब्तिदा) तथा द्वितीय भाग को अंतिका (ज़र्ब) कहते हैं।

अर्थात दो मिसरे ('मिसरा उला' + 'मिसरा सानी') मिल कर एक शे'र बनते हैं। प्रसंगवश यह भी जान लें कि “किता” चार मिसरों से मिलकर बनता है जो एक विषय पर हों।

इ) रदीफ रदीफ को पूरी ग़ज़ल में स्थिर रहना है। ये एक या दो शब्दों से मिल कर बनती है और मतले मे दो बार मिसरे के अंत मे और शे'र मे दूसरे मिसरे के अंत मे ये पूरी ग़ज़ल मे प्रयुक्त हो कर एक जैसा ही रहता है बदलता नहीं। उदाहरण के लिये ली गयी ग़ज़ल को देखें इस में “ सवेरे सवेरे ” ग़ज़ल की रदीफ़ है।

बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे गैर-मरद्दफ़ ग़ज़ल कहा जाता है.

ई) काफ़ियापरिभाषा की जाये तो ग़ज़ल के शे’रों में रदीफ़ से पहले आने वाले उन शब्दों की क़ाफ़िया कहते हैं, जिनके अंतिम एक या एकाधिक अक्षर स्थायी होते हैं और उनसे पूर्व का अक्षर चपल होता है।
इसे आप तुक कह सकते हैं जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले आती है और हर शे'र के दूसरे मिसरे मे रदीफ़ से पहले। काफ़िया ग़ज़ल की जान होता है और कई बार शायर को काफ़िया मिलने मे दिक्कत होती है तो उसे हम कह देते हैं कि काफ़िया तंग हो गया। उदाहरण ग़ज़ल में आया, आज़माया, लड़खड़ाया, सुनाया ये ग़ज़ल के काफ़िए हैं.

उ)मतला
ग़ज़ल के पहले शे'र को मतला कहा जाता है.मतले के दोनो मिसरों मे काफ़िया और रदीफ़ का इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण ग़ज़ल में मतला है:-

कोई पास आया सवेरे सवेरे
मुझे आज़माया सवेरे सवेरे

ऊ) मकताअंतिम शे'र जिसमे शायर अपना उपनाम लिखता है मक़्ता कहलाता है.

ए) बहर
छंद की तरह एक फ़ारसी मीटर/ताल/लय/फीट जो अरकानों की एक विशेष तरक़ीब से बनती है.

ऎ) अरकान
फ़ारसी भाषाविदों ने आठ अरकान ढूँढे और उनको एक नाम दिया जो आगे चलकर बहरों का आधार बने। रुक्न का बहुबचन है अरकान.बहरॊ की लम्बाई या वज़्न इन्ही से मापा जाता है, इसे आप फ़ीट भी कह सकते हैं। इन्हें आप ग़ज़ल के आठ सुर भी कह सकते हैं।

ओ) अरूज़
बहरों और ग़ज़ल के तमाम असूलों की मालूमात को अरूज़ कहा जाता है और जानने वाले अरूज़ी.

औ) तख़ल्लुस
शायर का उपनाम मक़ते मे इस्तेमाल होता है. जैसे मै ख्याल का इस्तेमाल करता हूँ।

अं) वज़्न
मिसरे को अरकानों के तराज़ू मे तौल कर उसका वज़्न मालूम किया जाता है इसी विधि को तकतीअ कहा जाता है।


उपरोक्त परिभाषाओं की रौशनी में साधारण रूप से ग़ज़ल को समझने के लिये उसे निम्न विन्दुओं के अनुरूप देखना होगा:
-ग़ज़ल विभिन्न शे'रों की माला होती है। -ग़ज़ल के शेरों का क़ाफ़िया और रदीफ की पाबंदी में रहना आवश्यक है। -ग़ज़ल का प्रत्येक शेर विषयवस्तु की दृष्टि से स्वयं में एक संपूर्ण इकाई होता है। -ग़ज़ल का आरंभ मतले से होना चाहिये। -ग़ज़ल के सभी शे'र एक ही बहर-वज़न में होने चाहिये। -ग़ज़ल का अंत मक़ते के साथ होना चाहिये।

Monday, October 12, 2015

ग़ज़ल- मेरा नज़रिया

फ़ारसी के ये भारी भरकम शब्द जैसे फ़ाइलातुन, मसतफ़ाइलुन या तमाम बहरों के नाम आप को याद करने की ज़रूरत नही है.ये सब उबाऊ है इसे दिलचस्प बनाने की कोशिश करनी है. आप समझें कि संगीतकार जैसे गीतकार को एक धुन दे देता है कि इस पर गीत लिखो. गीतकार उस धुन को बार-बार गुनगुनाता है और अपने शब्द उस मीटर / धुन / ताल में फिट कर देता है बस.. गीतकार को संगीत सीखने की ज़रूरत नहीं है उसे तो बस धुन को पकड़ना है. ये तमाम बहरें जिनका हमने ज़िक्र किया ये आप समझें एक किस्म की धुनें हैं.आपने देखा होगा छोटा सा बच्चा टी.वी पर गीत सुनके गुनगुनाना शुरू कर देता है वैसे ही आप भी इन बहरों की लय या ताल कॊ पकड़ें और शुरू हो जाइये.
हाँ बस आपको शब्दों का वज़्न करना ज़रूर सीखना है जो आप उदाहरणों से समझ जाएंगे.मैं पिछले लेख की ये लाइनें दोहरा देता हूँ जो महत्वपूर्ण हैं. व्याकरण को लेकर हम नहीं उलझेंगे नहीं तो सारी बहस विवाद मे तबदील हो जाएगी हमें संवाद करना है न कि विवाद.

<<हम शब्द को उस आधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय में हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते हैं और समझते हैं, जैसे:

"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.

आ+ का+श.
अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.
जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे ज +हाँ औ+र भी हैं.
(1+2+2 1 + 2+2 1+2+ 2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.
122 122 122 122 <<



तो अब आगे चलते हैं बहरो की तरफ़.
उससे पहले कुछ परिभाषाएँ देख लें जो आगे इस्तेमाल होंगी.


तकतीअ:
वो विधि जिस के द्वारा हम किसी मिसरे या शे'र को अरकानों के तराज़ू मे तौलते हैं.ये विधि तकतीअ कहलाती है.तकतीअ से पता चलता है कि शे'र किस बहर में है या ये बहर से खारिज़ है. सबसे पहले हम बहर का नाम लिख देते हैं. फिर वो सालिम है या मुज़ाहिफ़ है. मसम्मन ( आठ अरकान ) की है इत्यादि.

अरकान और ज़िहाफ़:
अरकानों के बारे में तो हम जान गए हैं कि आठ अरकान जो बनाये गए जो आगे चलकर बहरों का आधार बने. ये इन आठ अरकानों में कोशिश की गई की तमाम आवाज़ों के संभावित नमूनों को लिया जाए.ज़िहाफ़ इन अरकानों के ही टूटे हुए रूप को कहते हैं जैसे:फ़ाइलातुन(२१२२) से फ़ाइलुन(२१२).

मसम्मन और मुसद्द्स :
लंबाई के लिहाज़ से बहरें दो तरह की होती हैं मसम्मन और मुसद्द्स. जिस बहर के एक मिसरे में चार और शे'र में आठ अरकान हों उसे मसम्मन बहर कहा जाता है और जिनमें एक मिसरे मे तीन शे'र में छ: उन बहरों को मुसद्द्स कहा जाता है.जैसे:
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
(122 122 122 122)
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं.
(122 122 122 122)
यह आठ अरकान वाली बहर है तो यह मसम्मन बहर है.

मफ़रिद या मफ़रद और मुरक्कब बहरें :
जिस बहर में एक ही रुक्न इस्तेमाल होता है वो मफ़रद और जिनमे दो या अधिक अरकान इस्तेमाल होते हैं वो मुरक्कब कहलातीं हैं जैसे:
सितारों के अगे यहाँ और भी हैं
(122 122 122 122)
ये मफ़रद बहर है क्योंकि सिर्फ फ़ऊलुन ४ बार इस्तेमाल हुआ है.
अगर दो अरकान रिपीट हों तो उस बहर को बहरे-शिकस्ता कहते हैं जैसे:
फ़ाइलातुन फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ऊलुन

अब अगर मैं बहर को परिभाषित करूँ तो आप कह सकते हैं कि बहर एक मीटर है , एक लय है , एक ताल है जो अरकानों या उनके ज़िहाफ़ों के साथ एक निश्चित तरक़ीब से बनती है. असंख्य बहरें बन सकती है एक समूह से.

जैसे एक समूह है.

122 122 122 122
इसके कई रूप हो सकते हैं जैसे:

122 122 122 12
122 122 122 1
122 122
122 122 1

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Saturday, October 10, 2015

शब्द और ग़ज़ल

ग़ज़ल

ग़ज़ल क्या है, अरूज क्या है ये सब बाद में पहले हम "शब्द" पर चर्चा करेंगे कि शब्द क्या है? शब्द एक ध्वनि है, एक आवाज़ है, शब्द का अपना एक आकार होता है, जब हम उसे लिखते हैं , लेकिन जब हम बोलते हैं वो एक ध्वनि मे बदल जाता है, तो शब्द का आकार भी है और शब्द निरकार भी है और इसी लिए शब्द को परमात्मा भी कहा गया जो निराकार भी है और हर आकार भी उसका है. तो शब्द साकार भी है और निराकार भी. हमारा सारा काव्य शब्द से बना है और शब्द से जो ध्वनि पैदा होती है उस से बना है संगीत अत: हम यह कह सकते हैं कि काव्य से संगीत और संगीत से काव्य पैदा हुआ, दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. काव्य के बिना संगीत और संगीत के बिना काव्य के कल्पना नही कर सकते. और हम काव्य को ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि वो शब्द जिन्हें हम संगीत मे ढाल सकें वो काव्य है तो ग़ज़ल को भी हम ऐसे ही परिभाषित कर सकते हैं कि काव्य की वो विधा जिसे हम संगीत मे ढाल सकते हैं वो गजल है. ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ चाहे कुछ भी हो अन्य विधाओं कि तरह ये भी काव्य की एक विधा है .हमारा सारा काव्य, हमारे मंत्र, हमारे वेद सब लयबद्ध हैं सबका आधार छंद है.

अब संगीत तो सात सुरों पर टिका है लेकिन शब्द या काव्य का क्या आधार है ? इसी प्रश्न का उत्तर हम खोजेंगे.

हिंदी काव्य शास्त्र का आधार तो पिंगल या छंद शास्त्र है लेकिन ग़ज़ल क्योंकि सबसे पहले फ़ारसी में कही गई इसलिए इसका छंद शास्त्र को इल्मे-अरुज कहते हैं. एक बात आप पल्ले बाँध लें कि बिना बहर के ग़ज़ल आज़ाद नज़्म होती है ग़ज़ल कतई नहीं और आज़ाद नज़्म का काव्य में कोई वजूद नहीं है. हम शुरु करते हैं वज़्न से. सबसे पहले हमें शब्द का वज़्न करना आना चहिए. उसके लिए हम पहले शब्द को तोड़ेंगे, हम शब्द को उस अधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय मे हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते है और समझते हैं, जैसे:


"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.
आ+ का+श.

आ: ये एक बड़ी आवाज़ है.
का: ये एक बड़ी आवाज़ है

श: ये एक छोटी आवाज़ है.

और नज़र( न+ज़र)
न: ये एक छोटी आवाज़ है

ज़र: ये एक बड़ी आवाज़ है.

छंद शास्त्र मे इन लंबी आवाज़ों को गुरु और छोटी आवाजों को लघु कहते है और लंबी आवाज के लिए "s" और छोटी आवाज़ के लिए "I" का इस्तेमाल करते हैं. इन्हीं आवाजों के समूह से हिंदी में गण बने. फ़ारसी में लंबी आवाज़ या गुरु को मुतहर्रिक और छोटी या लघु को साकिन कहते हैं .इसी आधार पर हिंदी में गण बने और इसी आधार पर फ़ारसी मे अरकान बने.यहाँ हम लघु और गुरु को दर्शने के लिए 1 और 2 का इस्तेमाल करेंगे.जैसे:


सितारों के आगे जहाँ और भी हैं.
पहले इसे वर्णों मे तोड़ेंगे. यहाँ उसी अधार पर इन्हें तोड़ा गया जैसे उच्चारण किया जाता है.
सि+ता+रों के आ+गे ज+हाँ औ+र भी हैं.

अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.

जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे य+हाँ औ+र भी हैं.

(1+2+2 1 + 2+2 1+2+2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.

122 122 122 122

तो ये 122 क समूह एक रुक्न बन गया और रुक्न क बहुवचन अरकान होता है. इन्ही अरकनों के आधार पर फ़ारसी मे बहरें बनीं.और भाषाविदों ने सभी सम्भव नमूनों को लिखने के लिए अलग-अलग बहरों का इस्तेमाल किया और हर रुक्न का एक नाम रख दिया जैसे फ़ाइलातुन अब इस फ़ाइलातुन का कोई मतलब नही है यह एक निरर्थक शब्द है. सिर्फ़ वज़्न को याद रखने के लिए इनके नाम रखे गए.आप इस की जगह अपने शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे फ़ाइलातुन की जगह "छमछमाछम" भी हो सकता है, इसका वज़्न (भार) इसका गुरु लघु की तरतीब.

ये आठ मूल अरकान हैं , जिनसे आगे चलकर बहरें बनीं.

फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
फ़-ऊ-लुन(1-2-2)

अब भाषाविदों ने यहाँ कुछ छूट भी दी है आप गुरु वर्णों को लघु में ले सकते हैं जैसे मेरा (22) को मिरा(12) के वज्न में, तेरा(22) को तिरा(12)भी को भ, से को स इत्यादि. और आप बहर के लिहाज से कुछ शब्दों की मात्राएँ गिरा भी सकते हैं और हर मिसरे के अंत मे एक लघु वज़्न में ज्यादा हो सकता है. अनुस्वर वर्णों को गुरु में गिना जाता है जैसे:बंद(21) छंद(21) और चंद्र बिंदु को तकतीअ में नहीं गिनते जैसे: चाँद (21)संयुक्त वर्ण से पहले लघु को गुरु मे गिना जाता है जैसे:
सच्चाई (222)
अब फ़ारसी मे 18 बहरों बनाई गईं जो इस प्रकार है:

1.मुत़कारिब(122x4) चार फ़ऊलुन
2.हज़ज(1222x4) चार मुफ़ाईलुन
3.रमल(2122x4) चार फ़ाइलातुन
4.रजज़:(2212) चार मसतफ़इलुन
5.कामिल:(11212x4) चार मुतफ़ाइलुन
6 बसीत:(2212, 212, 2212, 212 )मसतलुन फ़ाइलुऩx2
7तवील:(122, 1222, 122, 1222) फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन x2
8.मुशाकिल:(2122, 1222, 1222) फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
9. मदीद : (2122, 212, 2122, 212) फ़ाइलातुन फ़ाइलुनx2
10. मजतस:(2212, 2122, 2212, 2122) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुनx2
11.मजारे:(1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
12 मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221) मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
13 वाफ़िर : (12112 x4) मुफ़ाइलतुन x4 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
14 क़रीब ( 1222 1222 2122 ) मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
15 सरीअ (2212 2212 2221) मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
16 ख़फ़ीफ़:(2122 2212 2122) फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में .
17 जदीद: (2122 2122 2212) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
18 मुक़ातज़ेब (2221 2212 2221 2212) मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
19. रुबाई
यहाँ पर रुककर थोड़ा ग़ज़ल की बनावट के बारे में भी समझ लेते हैं.

ग़ज़ले के पहले शे'र को मतला , अंतिम को मकता जिसमें शायर अपना उपनाम लिखता है. एक ग़ज़ल मे कई मतले हो सकते हैं और ग़ज़ल बिना मतले के भी हो सकती है. ग़ज़ल में कम से कम तीन शे'र तो होने ही चाहिए. ग़ज़ल का हर शे'र अलग विषय पर होता है एक विषय पर लिखी ग़ज़ल को ग़ज़ले-मुसल्सल कहते हैं. वह शब्द जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे'र के दूसरे मिसरे मे रदीफ़ से पहले आता है उसे क़ाफ़िया कहते हैं. ये अपने हमआवाज शब्द से बदलता रहता है.क़ाफ़िया ग़ज़ल की जान(रीढ़)होता है. एक या एकाधिक शब्द जो हर शे'र के दूसरे मिसरे मे अंत मे आते हैं, रदीफ़ कहलाते हैं. ये मतले में क़ाफ़िए के बाद दो बार आती है. बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे ग़ैर मरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं.पुरी ग़ज़ल एक ही बहर में होती है. बहर को जानने के लिए हम उसके साकिन और मुतहरिर्क को अलग -अलग करते हैं और इसे तकतीअ करना कहते हैं.बहर के इल्म को अरुज़(छ्न्द शास्त्र) कहते हैं और इसका इल्म रखने वाले को अरुज़ी(छन्द शास्त्री).यहाँ पर एक बात याद आ गई द्विज जी अक्सर कहते हैं कि ज़्यादा अरूज़ी होने शायर शायर कम आलोचक ज़्यादा हो जाता है. बात भी सही है शायर को ज़्यादा अरुज़ी होने की ज़रुरत नहीं है उतना काफ़ी है जिससे ग़ज़ल बिना दोष के लिखी जा सके. बाकी ये काम तो आलोचकों का ज्यादा है. यह तो एक महासागर है अगर शायर इसमें डूब गया तो काम गड़बड़ हो जाएगा.
अब एक ग़ज़ल को उदाहरण के तौर पर लेते हैं और तमाम बातों को फ़िर से समझने की कोशिश करते हैं.द्विज जी
की एक ग़ज़ल है :

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते.
अब इस ग़ज़ल में पाँच अशआर हैं.
यह शे'र मतला (पहला शे'र) है:
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

मक़सद, सरहद, बरगद इत्यादि ग़ज़ल के क़ाफ़िए हैं.
"नहीं होते" ग़ज़ल की रदीफ़ है

"मक़सद नहीं होते" "सरहद नहीं होते" ये ग़ज़ल की ज़मीन है.
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नही होते

ये ग़ज़ल का मक़ता (आख़िरी शे'र) है.

और बहर का नाम है "हजज़"

वज़्न है: 1222x4

अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते

यहाँ पर अ के उपर चंद्र बिंदू है सो उसे लघु के वज़न में लिया है, जैसा हमने उपर पढ़ा.

"न" हमेशा लघु के वज्न में लिया जाता है.
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
1222 1222 1222 1222
यहाँ पर ने" को लघु के वज्न में लिया है.और हमसे को हमस के वज्न में लिया है.
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
इस मिसरे में "तो" को लघु के वज्न में लिया है.

बहुत कुछ सीखने को है , ये इल्म तो एक साग़र है . आप उम्र भर सीखते हैं और शुरु में हमने चर्चा की थी कि शब्द परमात्मा है तो परमात्मा को पाने के लिए हम सब जानते हैं कि गुरु का क्या महत्व है. गुरु के बिना ये विधा सीखना मु्श्किल है लेकिन असंभव नहीं. मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि गुरु मिलना भी सबके नसीब मे नहीं होता लेकिन गुरु नहीं है तो हताश होकर लिखना छोड़ देना भी ग़लत है.ये शायरी कोई गणित नहीं है जो किसी को सिखाई जाए कोई भी इसे सीखकर अगर कहे मैं शायर बन जाऊँगा तो वो धोखे में है, ये तो एक तड़प है जो हर सीने मे नहीं होती. बहरें अपने आप आ जाती हैं जब ख़्याल बेचैन होता है.निरंतर अभ्यास लाज़िम है ,यह नहीं कि आज ग़ज़ल लिखो और सोचो कि कल हम शायर बन जाएंगे तो ग़लत होगा. कितने कच्चे चिट्ठे लिखे जाते हैं फाड़े जाते हैं फिर जाकर कहीं माँ सरस्वती मेहरबान होती हैं. आप इस फ़ाइलातुन से घबराए नहीं. बहरें बनने से पहले भी बहरें थीं वो तो एक ताल है जो शायर के अचेतन मे सोई होती है. जब बहर का पता नहीं था उस वक्त की ग़ज़लें निकाल कर देखता हूँ तो कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो बहर मे लिखी गईं थी . आज जब बह्र का पता है तो अब पता चल गया यार ये तो इस बहर मे है. कई शायर ऐसे भी हुए हैं जिन्हें इस का इल्म कम था लेकिन उनकी सारी शायरी वज्न मे है. जब ये बहरें सध जाती है तो सब आसान हो जाता है. बस दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं मश्क(अभ्यास) और सब्र (धैर्य)|

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