Monday, April 26, 2010
हसीब सोज़ की ग़ज़लें
1962 में जन्में हसीब "सोज़" बेहतरीन शायर हैं। आप उर्दू के रिसाले "लम्हा-लम्हा"का संपादन भी करते हैं |आप उर्दू में एम.ए. हैं। बदायूं (उ,प्र) के रहने वाले हैं।शायर का असली परिचय उसके शे’र होते हैं और इस शायर के बारे में मैं क्या कहूँ। ये शे’र पढ़के के आप ख़ुद कहेंगे कि बाक़ई हसीब साहब आला दर्ज़े के शायर हैं।
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
रगें दिमाग़ की सब पेट में उतर आईं
ग़रीब लोगों में कोई हुनर नहीं होता
इनकी दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
इतनी सी बात थी जो समंदर को खल गई
का़ग़ज़ की नाव कैसे भंवर से निकल गई
पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई
फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई
इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई
दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया
दुनिया की राये दूसरे दिन ही बदल गई
*हाफ़ज़े-यादाश्त
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
दो
तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसता रहता हूँ
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ
*अहबाब-दोस्त(वहु)
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
Friday, April 23, 2010
प्रेमचंद सहजवाला - परिचय और ग़ज़लें
18 दिसम्बर 1945 को जन्मे प्रेमचंद सहजवाला हिंदी के चर्चित कथाकार हैं। इनके अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । बहुत सी पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और आप अच्छे शायर भी हैं। इनकी दो ग़ज़लें आपकी नज़्र कर रहा हूँ-
एक
ज़िन्दगी में कभी ऐसा भी सफ़र आता है
अब्र इक दिल में उदासी का उतर आता है
शहृ में खु़द को तलाशें तो तलाशें कैसे
हर तरफ भीड़ का सैलाब नज़र आता है
अजनबीयत सी लिपटती है बदन से उस के
रोज़ जब शाम को वो लौट के घर आता है
पहले दीवानगी के शहृ से तारुफ़ रक्खो
बाद उस के ही मुहब्बत का नगर आता है
दो घड़ी बर्फ के ढेरों पे ज़रा सा चल दो
संगमरमर सा बदन कैसे सिहर आता है
जिस के साए में खड़े हो के मेरी याद आए
क्या तेरी राह में ऐसा भी शजर आता है
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
दो
हो गए हैं आप की बातों के हम मुफ़लिस शिकार
है खिज़ां गुलशन में फिर भी लग रहा आई बहार
रोशनी दे कर मसीहा ने चुनी हँस कर सलीब
रोशनी फिर रौंदने आए अँधेरे बेशुमार
रहबरों के हाथ दे दी ज़िन्दगी की सहरो-शाम
ज़िन्दगी पर फिर रहा कोई न अपना इख़्तियार
मिल नहीं पाते नगर की तेज़ सी रफ़्तार में
याद आते हैं वही क्यों दोस्त दिल को बार बार
जिन के साए में लिखी रूदादे-उल्फ़त वक़्त ने
हो गए हैं आज वो सारे शजर क्यों शर्मसार
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
Friday, April 16, 2010
द्विजेन्द्र द्विज जी की ताज़ा ग़ज़ल और तरही मिसरा
द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र कर रहा हूँ। द्विज जी से तो सब लोग वाकिफ़ ही हैं। आप उनकी ग़ज़लें कविता-कोश पर यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी एक नई ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
ग़ज़ल
मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या
कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या
सियासत—दाँ ख़ुदाओं के करम से
रहेगा आदमी अब आदमी क्या ?
बस अब आवाज़ का जादू है सब कुछ
ग़ज़ल की बहर क्या अब नग़मगी क्या
हमें कुंदन बना जाएगी आख़िर
हमारी ज़िन्दगी है आग भी क्या
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या फिर तिश्नगी क्या
नहीं होते कभी ख़ुद से मुख़ातिब
करेंगे आप ‘द्विज’जी ! शाइरी क्या ?
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
एक ग़ज़ल
अश्क़ बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी
द्विज जी की आवाज़ में सुनिए-
बहुत समय हो गया तरही मुशायरे को,सो तरही मिसरा भी आज दे देते हैं। अब बात करते हैं अगले तरही मिसरे कि सो ये है चार फ़ेलुन का मिसरा-
कौन चला बनवास रे जोगी
रदीफ़- रे जोगी
काफ़िया- सन्यास,वास,रास,आस आदि
पूरा शे’र है
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
राहत इन्दौरी साहब की ये ग़ज़ल है जो पिछली बार शाया हुई है। आप अपनी ग़ज़लें 27 अप्रैल के बाद भेजें ताकि ग़ज़ल मांजने और निखारने का समय सब को मिल सके और अच्छी ग़ज़लों का सब आनंद ले सकें।
Monday, April 12, 2010
राहत इन्दौरी साहब की नई ग़ज़ल
राहत इन्दौरी किसी तआरुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। उनकी एक ताज़ा ग़ज़ल, उनकी इजाज़त के साथ शाया कर रहा हूँ। छोटी बहर की बेहद खूबसूरत ग़ज़ल है । लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विशवास रे जोगी
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
ये साँसों का बन्दी जीवन
किस को आया रास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख हैं बाराह मास रे जोगी
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
चार फ़ेलुन की बहर
और राहत साहब को सुन भी लीजिए-
Monday, April 5, 2010
जनाब नवाज़ देवबन्दी
जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ में हर किसी ने इस खूबसूरत ग़ज़ल-
तेरे आने कि जब ख़बर महके
तेरी खुश्बू से सारा घर महके
को ज़रूर सुना होगा। इस ग़ज़ल के शायर हैं जनाब नवाज़ देवबन्दी । ऐसी बेमिसाल कहन के मालिक जनाब मुहम्मद नवाज़ खान उर्फ़ नवाज़ देवबन्दी का जन्म 16 जुलाई 1956 को उत्तर प्रदेश में हुआ। उर्दू में आपने एम.ए किया फिर बाद में पी.एच.डी की। दो ग़ज़ल संग्रह "पहला आसमान" और "पहली बारिश" प्रकाशित हुए हैं। इनकी शायरी गुलाबों पर बिखरे ओंस के क़तरों की तरह है। हज़ारों मुशायरों में शिरक़त करने वाले देवबन्दी साहब का हर शे’र ताज़गी और सुकून समेटे रहता है-
अंजाम उसके हाथ है आग़ाज़ कर के देख
भीगे हुए परों से ही परवाज़ कर के देख
गो वक़्त ने ऐसे भी मवाक़े हमें बख़्शे
हम फिर भी बज़ुर्गों के सिराहने नहीं बैठे
ओ शहर जाने वाले ! ये बूढ़े शजर न बेच
मुमकिन है लौटना पड़े गाँव का घर न बेच
ऐसी सादा अल्फ़ाज़ी में इतने पुरअसर शे’र कहना क़ाबिले-तारीफ़ है। मुझे बहुत खुशी है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लें शाया करने की अनुमति हमें दी। ये पोस्ट आज की ग़ज़ल का एक सुनहरा पन्ना है।
ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
सच बोलने के तौर-तरीक़े नहीं रहे
पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे
वैसे तो हम वही हैं जो पहले थे दोस्तो
हालात जैसे पहले थे वैसे नहीं रहे
खु़द मर गया था जिनको बचाने में पहले बाप
अबके फ़साद में वही बच्चे नहीं रहे
दरिया उतर गया है मगर बह गए हैं पुल
उस पार आने-जाने के रस्ते नहीं रहे
सर अब भी कट रहे हैं नमाज़ों में दोस्तो
अफ़सोस तो ये है कि वो सजदे नहीं रहे
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
एक और नायाब ग़ज़ल-
वो अपने घर के दरीचों से झाँकता कम है
तअल्लुका़त तो अब भी हैं मगर राब्ता कम है
तुम उस खामोश तबीयत पे तंज़ मत करना
वो सोचता है बहुत और बोलता कम है
बिला सबब ही मियाँ तुम उदास रहते हो
तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फ़ासिला कम है
फ़िज़ूल तेज़ हवाओं को दोष देता है
उसे चराग़ जलाने का हौसला कम है
मैं अपने बच्चों की ख़ातिर ही जान दे देता
मगर ग़रीब की जां का मुआवज़ा कम है
बहरे मुजास वा मुज्तस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मु'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन मु'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
गज़ल
ख़ुद को कितना छोटा करना पड़ता है
बेटे से समझौता करना पड़ता है
जब औलादें नालायक हो जाती हैं
अपने ऊपर ग़ुस्सा करना पड़ता है
सच्चाई को अपनाना आसान नहीं
दुनिया भर से झगड़ा करना पड़ता है
जब सारे के सारे ही बेपर्दा हों
ऐसे में खु़द पर्दा करना पड़ता है
प्यासों की बस्ती में शोले भड़का कर
फिर पानी को महंगा करना पड़ता है
हँस कर अपने चहरे की हर सिलवट पर
शीशे को शर्मिंदा करना पड़ता है
पाँच फ़ेलुन+एक फ़े
गज़ल
दिल धड़कता है तो आती हैं सदाएँ तेरी
मेरी साँसों में महकने लगी साँसें तेरी
चाँद खु़द महवे-तमाशा था फ़लक पर उस दम
जब सितारों ने उतारीं थीं बलाएँ तेरी
शे’र तो रोज़ ही कहते हैं ग़ज़ल के लेकिन
आ! कभी बैठ के तुझसे करें बातें तेरी
ज़हनो-दिल तेरे तस्व्वुर से घिरे रहते हैं
मुझको बाहों में लिए रहती हैं यादें तेरी
क्यों मेरा नाम मेरे शे’र लिखे हैं इनमें
चुग़लियाँ करती हैं मुझसे ये किताबें तेरी
बेख़बर ओट से तू झाँक रहा हो मुझको
और हम चुपके से तस्वीर बना लें तेरी
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़’इ’लातुन फ़’इ’लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22
ग़ज़ल
सफ़र में मुश्किलें आएँ तो जुर्रत और बढ़ती है
कोई जब रास्ता रोके तो हिम्मत और बढ़ती है
मेरी कमज़ोरियों पर जब कोई तनक़ीद करता है
वो दुशमन क्यों न हो उस से मुहव्बत और बढ़ती है
अगर बिकने पे आ जाओ तो घट जाते हैं दाम अक़सर
न बिकने का इरादा हो तो क़ीमत और बढ़ती है
बहरे-हज़ज सालिम
चंद अशआर-
अँधेरा ही अँधेरा छा गया है
सवेरा भी उजाला खा गया है
ज़मीं वालों की ओछी हरक़तों पर
समंदर को भी गुस्सा आ गया है
एक खूबसूरत नज़्म देवबन्दी साहब की ज़ुबानी -
कुछ और शे’र-
बज़्में-दिलनवाज़ हो जाती
तुम मेरे शे’र गुनगुनाते तो
हम तो दिलनवाज़ दुशमन को
दोस्तों में शुमार करते हैं
जो झूठ बोलके करता है मुत्मइन सबको
वो झूठ बोलके ख़ुद मुत्मइन नहीं होता
बुझते हुए दीये पे हवा ने असर किया
माँ ने दुआएँ दीं तो दवा ने असर किया
जो तेरे साथ रहके कट जाए वो सज़ा भी सज़ा नहीं लगती
जिसने माँ-बाप को सताया हो उसे कोई दुआ नहीं लगती
धूप को साया ज़मीं को आस्मां करती है माँ
हाथ रखकर मेरे सर पर सायाबां करती है माँ
मेरी ख़्वाहिश और मेरी ज़िद्द उसके क़दमों पर निसार
हाँ की गुंज़ाइश न हो तो फिर भी हाँ करती है माँ
तनहाई का जश्न मनाता रहता हूँ
ख़ुद को अपने शे’र सुनाता रहता हूँ
वो भाषण से आग लगाते रहते हैं
मैं ग़ज़लों से आग बुझाता रहता हूँ
ज़न्नत की कुन्जी है मेरी मुठ्ठी में
अपनी माँ के पैर दबाता रहता हूँ
नोट: आप नवाज़ देवबन्दी साहब का ग़ज़ल संग्रह" पहली बारिश" का हिंदी या उर्दू संस्करण यहाँ फोन करके हासिल कर सकते हैं-09045631819
Monday, March 29, 2010
सुरेन्द्र चतुर्वेदी-ग़ज़लें और परिचय
1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मुंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके अलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं। फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शे’र भी ऐसे ही हैं-
रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं....सुरेन्द्र चतुर्वेदी
इनकी ग़ज़लें पहले भी शाया की थीं जिन्हें आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं-
http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/06/blog-post_26.html
जब बात सूफ़ियों की चली तो कुछ अशआर ज़हन में आ रहे हैं-
ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता
फ़स्ले बहार आई पियो सूफ़ियों शराब
बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए ....आतिश
आज एक और शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा जनाब मुज़फ़्फ़र रिज़मी। इनका एक शे’र जो बेमिसाल है और ऐसी ही किसी फ़कीराना तबीयत में कहा गया होगा-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊंगा....मुज़फ़्फ़र रिज़मी
और जनाब दिलावर फ़िगार ने शायर की मुशकिल को कुछ इस तरह बयान किया है -
दिले-शायर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक
और अब ऐसे ही गुहर जनाब सुरेन्द्र चतुर्वेदी जिनके बारे में गुलज़ार साहब ने कहा -
मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है...गुलज़ार
मुलाहिज़ा कीजिए इनकी तीन ग़ज़लें-
ग़ज़ल
कड़ी इस धूप में मुझको कोई पीपल बना दे
मुझे इक बार पुरखों की दुआ का फल बना दे
नहीं बरसा है मेरे गाँव में बरसों से पानी
मेरे मौला मुझे इस बार तू बादल बना दे
किसी दरगाह की आने लगी खुशबू बदन में
कहीं ऐसा न हो मुझको वफ़ा संदल बना दे
अदब , तहज़ीब अपनी ये शहर तो खो चुका है
तू ऐसा कर कि जादू से इसे जंगल बना दे
जतन से बुन रहा हूँ आज मैं बीते दिनों को
न जाने कौन सा पल याद को मखमल बना दे
बग़ाबत पर उतर आए हैं अब हालात मेरे
कोई आकर मेरे हालात को चंबल बना दे
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 122
ग़ज़ल
ग़र मैं बाज़ार तक पहुँच जाता
अपने हक़दार तक पहुँच जाता
दिन फ़क़ीरी के जो बिता लेता
उसके दरबार तक पहुँच जाता
झांक लेता जो खु़द में इक लम्हा
वो गुनहगार तक पहुँच जाता
रूह में फ़ासला रखा वर्ना
जिस्म दीवार तक पहुँच जाता
मुझमें कुछ दिन अगर वो रह लेता
मेरे क़िरदार तक पहुँच जाता
आयतें उसने ग़र पढ़ी होतीं
वो मेरे प्यार तक पहुँच जाता
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
एक लंबी उड़ान हूँ जैसे
या कोई आसमान हूँ जैसे
हर कोई कब मुझे समझता है
सूफ़ियों की ज़बान हूँ जैसे
मैं अमीरों के इक मोहल्ले में
कोई कच्चा मकान हूँ जैसे
मुझसे रहते हैं दूर-दूर सभी
उम्र भर की थकान हूँ जैसे
बारिशें तेज़ हों तो लगता है
आग के दरमियान हूँ जैसे
लोग हँस-हँस के मुझको पढ़ते हैं
दर्द की दास्तान हूँ जैसे
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
बात सूफ़ियों की हो और बाबा बुल्ले शाह का नाम न आए। सुनिए अबीदा परवीन की सूफ़ी आवाज़ में साईं बुल्ले शाह का क़लाम
धन्यवाद
Monday, March 22, 2010
शाहिद कबीर
जन्म: मई 1932
निधन: मई 2001
किसी अमीर को कोई फ़क़ीर क्या देगा
ग़ज़ल की सिन्फ़ को शाहिद कबीर क्या देगा
लेकिन शाहिद कबीर ने ग़ज़ल को जो दिया है उससे यक़ीनन ग़ज़ल और अमीर हुई है। फ़क़ीर इस दुनिया को वो दे जाते हैं, जो कोई अमीर नहीं दे सकता। फलों से लदी टहनियां हमेशा झुकी हुई मिलती हैं। भले वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें, नग़्में आज भी ज़िंदा हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और" " मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे और ग़ज़लें कहीं हैं.आज ही मैनें ये वीडिओ यू टियूब पे डाला है, आइए शाहिद साहब की आवाज़ में पहले इस रेडियो मुशायरे को सुनते हैं-
इनके ग़ज़ल संग्रह ’पहचान’ से एक कोहेनूर निकाल लाया हूँ। हाज़िर है ये बेमिसाल शे’र-
हर इक हँसी में छुपी खौ़फ़ की उदासी है
समुन्दरों के तले भी ज़मीन प्यासी है
और ये दो ग़ज़लें-
ग़ज़ल
दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदो ! तुम्हें आशियाना मिले
तबीयत से मुझको मिले मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले
समंदर तेरी प्यास बुझती रहे
भटकती नदी को ठिकाना मिले
तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले
फिर इक बार ऐ ! दौरे--फ़ुर्सत मिलें
हमें हो चला इक ज़माना मिले
मिले इस तरह सबसे ’शाहिद कबीर’
कोई दोस्त जैसे पुराना मिले
बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल
अब अपने साथ भी कुछ दूर जाकर देख लेता हूँ
नदी में नाव कागज़ की बहा कर देख लेता हूँ
चलो क़िस्मत नहीं तदबीर ही की होगी कोताही
हवा के रुख़ पे भी कश्ती चलाकर देख लेता हूँ
हवाओं के किले *मिसमार हो जाते हैं, ये सच है
ज़मीं की गोद में भी घर बनाकर देख लेता हूँ
*सुकूते-आब से जब दिल मेरा घबराने लगता है
तो सतहे-आब पर कंकर गिरा कर देख लेता हूँ
कोई ’शाहिद’ जब अपने जुर्म का इक़रार करता है
तो मैं दामन में अपने सर झुका कर देख लेता हूँ
*मिसमार-धवस्त, सुकूते-आब( पानी की खामुशी)
बहरे हज़ज सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
(1222x4)
और अंत में ये ग़ज़ल सुनिए-
पानी का पत्थरों पे असर कुछ नहीं हुआ
रोए तमाम उम्र मगर कुछ नहीं हुआ
एक छोटी सी सूचना- मेरी कुछ ग़ज़लें अनुभूति पर शाया हुईं हैं। समय लगे तो ज़रूर पढ़िएगा।
निधन: मई 2001
किसी अमीर को कोई फ़क़ीर क्या देगा
ग़ज़ल की सिन्फ़ को शाहिद कबीर क्या देगा
लेकिन शाहिद कबीर ने ग़ज़ल को जो दिया है उससे यक़ीनन ग़ज़ल और अमीर हुई है। फ़क़ीर इस दुनिया को वो दे जाते हैं, जो कोई अमीर नहीं दे सकता। फलों से लदी टहनियां हमेशा झुकी हुई मिलती हैं। भले वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें, नग़्में आज भी ज़िंदा हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और" " मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे और ग़ज़लें कहीं हैं.आज ही मैनें ये वीडिओ यू टियूब पे डाला है, आइए शाहिद साहब की आवाज़ में पहले इस रेडियो मुशायरे को सुनते हैं-
इनके ग़ज़ल संग्रह ’पहचान’ से एक कोहेनूर निकाल लाया हूँ। हाज़िर है ये बेमिसाल शे’र-
हर इक हँसी में छुपी खौ़फ़ की उदासी है
समुन्दरों के तले भी ज़मीन प्यासी है
और ये दो ग़ज़लें-
ग़ज़ल
दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदो ! तुम्हें आशियाना मिले
तबीयत से मुझको मिले मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले
समंदर तेरी प्यास बुझती रहे
भटकती नदी को ठिकाना मिले
तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले
फिर इक बार ऐ ! दौरे--फ़ुर्सत मिलें
हमें हो चला इक ज़माना मिले
मिले इस तरह सबसे ’शाहिद कबीर’
कोई दोस्त जैसे पुराना मिले
बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
ग़ज़ल
अब अपने साथ भी कुछ दूर जाकर देख लेता हूँ
नदी में नाव कागज़ की बहा कर देख लेता हूँ
चलो क़िस्मत नहीं तदबीर ही की होगी कोताही
हवा के रुख़ पे भी कश्ती चलाकर देख लेता हूँ
हवाओं के किले *मिसमार हो जाते हैं, ये सच है
ज़मीं की गोद में भी घर बनाकर देख लेता हूँ
*सुकूते-आब से जब दिल मेरा घबराने लगता है
तो सतहे-आब पर कंकर गिरा कर देख लेता हूँ
कोई ’शाहिद’ जब अपने जुर्म का इक़रार करता है
तो मैं दामन में अपने सर झुका कर देख लेता हूँ
*मिसमार-धवस्त, सुकूते-आब( पानी की खामुशी)
बहरे हज़ज सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
(1222x4)
और अंत में ये ग़ज़ल सुनिए-
पानी का पत्थरों पे असर कुछ नहीं हुआ
रोए तमाम उम्र मगर कुछ नहीं हुआ
एक छोटी सी सूचना- मेरी कुछ ग़ज़लें अनुभूति पर शाया हुईं हैं। समय लगे तो ज़रूर पढ़िएगा।
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