Wednesday, October 27, 2010

इक़बाल अरशद और इक़बाल बानो

पाकिस्तान के मुलतान शहर के शायर इक़बाल अरशद की एक बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल नज़्र कर रहा हूँ। जब किसी संजीदा शायर की सोच ग़म की खौफ़नाक गहराइयों में डूबती है तभी ऐसी ग़ज़ल की आमद होती है। सच्ची ग़ज़ल वही है जिसमें सुनने वाला तिनके तरह शे’रों के साथ बह जाए।

ग़ज़ल

रगों में ज़हर के नश्तर उतर गए चुप-चाप
हम अहले-दर्द जहाँ से गुज़र गए चुप-चाप

किसी पे तर्के-तअल्लुक का भेद खुल न सका
तेरी निगाह से हम यूँ उतर गए चुप-चाप

पलट के देखा तो कुछ भी न था हमारे सिवा
जो मेरे साथ थे जाने किधर गए चुप-चाप

उदास चहरों में रो-रो के दिन गुजारे मियां
ढली जो शाम तो हम अपने घर गए चुप-चाप

हमारी जान पे भारी था गम का अफ़साना
सुनी न बात किसी ने तो मर गए चुप-चाप

बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

अब इस ग़ज़ल को इक़बाल बानो की दिलकश आवाज़ में सुनिए-




और तरही मुशायरे के मिसरे की एक बार फिर आपको याद दिला देता हूँ-

सोच के दीप जला कर देखो

बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ..आपकी ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा...धन्यवाद

Monday, October 25, 2010

इस बार का तरही मुशायरा

इस बार का तरही मिसरा शायर जनाब मुहम्मद मुनीर ख़ाँ नियाज़ी की ग़ज़ल से लिया गया है। ये रहा मिसरा-

सोच के दीप जला कर देखो

बहर है- चार फ़ेलुन (22x4)
काफ़िया है- आ, पा, जा, खा , जला आदि। ये स्वर साम्य काफ़िया है।
रदीफ़ है- कर देखो ।

पूरा शे’र ऐसे है-

आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो

इस ग़ज़ल को आप गुलाम अली साहब की आवाज़ में सुन भी लीजिए-



तीन दिन के बाद आप ग़ज़लें भेज सकते हैं । बाकी फ़ेलुन की बहर है इसे मात्रिक छंद की तरह इस्तेमाल न करें और लघु से मिसरा न शुरू हो तो बेहतर है। उम्मीद करता हूँ कि ये मुशायरा यादगार होगा और सभी शायर , जो पिछले मुशायरों में हिस्सा ले चुके हैं वो शिरकत करेंगे और नये शायर भी तबअ आज़माई करेंगे।

Monday, October 18, 2010

अमीर खु़सरो और कबीर को ख़िराजे-अक़ीदत-आलोक श्रीवास्तव

आलोक श्रीवास्तव जी ने ये दो ग़ज़लें द्विज जी को भेजी थीं। ये ग़ज़लें आप सब के लिए हाज़िर हैं। आलोक श्रीवास्तव शायरी में अपना एक अलग मुकाम रखते हैं, जिससे हम सब वाकिफ़ हैं और ये नाम किसी परिचय का मुहताज़ नहीं है। पहली ग़ज़ल अमीर खु़सरो की ज़मीन में है। ये ग़ज़ल बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल में है( फ़ऊल फ़ालुन x 4, 12122 x4)।
मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-

आलोक श्रीवास्तव

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां....अमीर ख़ुसरो
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां

ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है
सुलगती सांसे, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां

दूसरी ग़ज़ल बहरे-हज़ज में है और कबीर जी की ज़मीन में कही गई है। ये ग़ज़ल पढ़िये-

आलोक श्रीवास्तव

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ...कबीर
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या

चचा ग़ालिब की जूती हैं, उन्हीं के क़र्ज़दारी हैं
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या

धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या

उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई महंगाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या

तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या


सो ये थी कबीर और अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत आलोक जी की तरफ़ से । कबीर के लिखे को हम शायरी नहीं कह सकते, बल्कि ये बानी है जिसे मंदिरों मे गाया जाता है। लेकिन शायरी महफिलों में गाई जाती हैं, मंदिरों में नहीं। शायद ग़ज़ल के इस स्वभाव को कबीर भाँप गए होंगे और इसी वज़ह से इस विधा से उन्होंने किनारा कर लिया। यही एक ग़ज़ल शायद उनकी मिलती है जिसे उन्होंने प्रयोगवश कहा होगा

संत कबीर :

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?


निदा साहब ने भी कबीर की ज़मीन में ये ग़ज़ल कही है । निदा जी ने अमीर खुसरो की ज़मीन में भी एक-आध ग़ज़ल कही है, जिसे फिर कभी पेश करूँगा। अभी मुलाहिज़ा कीजिए ये ग़ज़ल-


निदा फ़ाज़ली:

ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.

ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.

उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.

किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.

हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या

सोच रहा हूँ कि एक तरही मुशायरा भी करवा दिया जाए। मिसरे का ज़िक्र अगली पोस्ट में करूँगा...धन्यवाद ।

Tuesday, September 14, 2010

राहत इंदौरी साहब की एक और ताज़ा ग़ज़ल















राहत साहब को जब भी sms करके पूछें कि सर, ये आपकी ताज़ा ग़ज़ल ब्लाग पर लगा सकता हूँ? तो तुरंत ..हाँ..में जवाब आ जाता है। सो इस नेक दिल शायर की एक और ग़ज़ल हाज़िर है। मुलाहिज़ा कीजिए -

ग़ज़ल

सर पर बोझ अँधियारों का है मौला खैर
और सफ़र कोहसारों का है मौला खैर

दुशमन से तो टक्कर ली है सौ-सौ बार
सामना अबके यारों का है मौला खैर

इस दुनिया में तेरे बाद मेरे सर पर
साया रिश्तेदारों का है मौला खैर

दुनिया से बाहर भी निकलकर देख चुके
सब कुछ दुनियादारों का है मौला खैर

और क़यामत मेरे चराग़ों पर टूटी
झगड़ा चाँद-सितारों का है मौला खैर

(पाँच फ़ेलुन+ एक फ़े )

Monday, September 6, 2010

राहत साहब की ताज़ा ग़ज़ल
















राहत इंदौरी साहब की कलम से ऐसा लगता है कि ज़िंदगी खु़द बोल रही हो। ख़याल सूफ़ीयों के से और लहज़ा दार्शनिकों जैसा । ऐसी शायरी वाहवाही के मुहताज़ नहीं बल्कि इसे सुनकर ज़िंदगी खु़द टकटकी लगा के देखना शुरू कर देती और धुँध के पार के उजालों को देखकर पलकें झपकती है और वापिस लौट आती है। मुलाहिज़ा कीजिए बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में ये ग़ज़ल-

ग़ज़ल

हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए! कुछ रोज़ जी के देखते हैं

नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं

रोज़ हम एक अंधेरी धुँध के पार
काफ़िले रौशनी के देखते हैं

धूप इतनी कराहती क्यों है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं

टकटकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं

बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं
आइए ज़हर पी के देखते हैं

Friday, July 30, 2010

शिव कुमार बटालवी की 75वीं बर्षगाँठ पर विशेष

















शिव कुमार बटालवी का जन्म
23, जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटियां, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, में हुआ था। 28 साल की उम्र में शिव को 1965 में अपने काव्य नाटक "लूणा " के लिये साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। उन्हे पंजाबी साहित्य का जान कीट्स भी कहा जाता है। केवल 36 साल की उम्र में वो 1973 की 6-7 मई की मध्य रात्रि को अपनी इन पंक्तियों को सच करता हुआ सदा के लिए विदा हो गया-

''असां ते जोबन रूते मरना, मुड़ जाणां असां भरे - भराये,
हिज़्र तेरे दी कर परक्रमा, असां तां जोबन रूते मरना..


दुनिया का मिज़ाज बहुत अजीव है। ये मुर्तियों को बहुत पूजती हैं लेकिन जो सामने है उसकी उपेक्षा करती है। किसी शायर ने सच कहा है-

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

आज शिव की बात याद आती है-"life is a slow suicide जो intellectual है वो धीरे-धीरे मरेगा " यही होता आया है और आगे भी शायद ऐसा ही होगा। ख़ैर! शिव की कही ये गज़ल सुनिए जो कुछ ऐसे ही अहसासों से लबरेज़ है-

Friday, July 23, 2010

स्व: श्री तलअत इरफ़ानी की गज़लें

तिलक राज वशिष्ट उर्फ़ तलअत इरफानी का जन्म पकिस्तान के गुजरांवाला तहसील के गाँव खनानी में हुआ । लेकिन बाद में वो कुरुक्षेत्र में आकर बस गए। नज़्म और ग़ज़ल बड़ी संज़ीदगी से कहते थे । 2003 में वो इस दुनिया को सदा के लिए विदा कह गए। आप स्व: मनोहर साग़र पालमपुरी के भी अज़ीज दोस्त थे । उनकी कुछ गज़लें आपके लिए पेश कर रहा हूँ और ये उस शायर के लिए "आज की ग़ज़ल" की तरफ से श्रदांजलि है।

ये शे’र देखिए "जटा और गंगा" जैसे शब्दों का बेमिसाल प्रयोग-

उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में

और ये देखिए -

छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में

गज़लीयत के साथ-साथ अनोखी और अनूठी कहन -

छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है

रंगे-तसव्वुफ़-

दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है

इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और ये बेमिसाल है -

उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता

खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उड़ी
तलअत तमाम गाँव का नक़्शा संवर गया


खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया

ऐसा शायर शायरी के बारे में क्या कहता है पढ़िए एक छोटी सी खूबसूरत नज़्म-

मैं जब- जब,
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीयत
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपने आप ज़बां में ढल जाता है
दूर अन्धेरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

शिमला की याद में ये शे’र -

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ
दोस्तो! जेबों से बाहर आओ भी

ग़ज़ल कैसी हो? और शे’र कैसे कहा जाया? कहन क्या है और कैसी होनी चाहिए? गज़लीयत क्या है , परवाज़ क्या है ? कल्पना क्या है ? और नये शब्द कैसे प्रयोग किए जाएँ? इन सब सवालों का जवाब हैं तलअत साहब की शायरी।

लीजिए अब ये गज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दास्तानों से

धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से

समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से

यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से

वो अन्दर का सफर था या सराबे-आरज़ू यारो
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से

लचकते बाजुओं का लम्ज़* तो पुरकैफ़ था "तलअत"
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दास्तानों से

लम्ज़-दोष लगाना

बहरे-हज़ज
मुफ़ाईलुऩ x 4

दो

बुझा है इक चिराग़े-दिल तो क्या है
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है

तुम्हीं से जब नही कोई तअल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है

तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है

सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है

कहीं मुँह चूम ले उसका न कोई
वो शायद इस लिए कम बोलता है

हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत
हमी को दर्द ने रुसवा किया है

हयात इक दार है "तलअत" की जिस पर
अज़ल से आदमी लटका हुआ है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

तीन

बदन उसका अगर चेहरा नहीं है
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है

दरख़्तों पर वही पत्ते हैं बाकी
कि जिनका धूप से रिश्ता नहीं है

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है

सभी चेहरे मुक़म्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है

वही रफ़्तार है "तलअत" हवा की
मगर बादल का वह टुकड़ा नहीं है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

चार

बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी

शाख़ों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी

सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी

कुछ लोग रस्सियों के सहारे खड़े रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी

कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी

तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ सूरत)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12