Monday, September 1, 2008

दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर विशेष















आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज पहली सितम्बर को हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि तथा हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल विधा के संस्थापक दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर उनको स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनके कालजयी ग़ज़ल संग्रह साये में धूप की भूमिका, जिसमें उन्होंने अपनी हिन्दी ग़ज़लों की भाषा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं.



मैं स्वीकार करता हूँ…

—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.

—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है.

—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ.

—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है. हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है. परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे संकोच तो है,पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारण यह है कि पत्र—पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म—विश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.

…और कमलेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह सिलसिला यहाँ तक न आ पाता. मैं तो—

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,

कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए.

—दुष्यन्त कुमार

और अब प्रस्तुत हैं उनकी पाँच ग़ज़लें :






कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये






ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा*

यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा






हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब






मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।





हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।



द्विज.

Friday, August 29, 2008

अहमद फ़राज़ साहेब को श्रद्दाँजलि




14 जनवरी 1931 को पाकिस्तान मे जन्मे अहमद फ़राज़
( वास्तविक नाम: सैय्यद अहमद शाह)
25 अगस्त 2008 को इस दुनिया से विदा हो गए.आज पूरा भारत इस शख्स के जाने से गमज़दा है. सन 2004 मे हिलाले-इम्तियाज़ से नवाजे गए थे फ़राज़.ये शायर अपनी अमिट शाप छोड़कर इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गया.









तेरी बातें ही सुनाने आये
दोस्त भी दिल ही दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आये








रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

**







अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें








दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों







बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा







अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे
**






बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है



बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से
जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू











उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना


यादें


**



फ़राज़ साहेब की एक बेहतरीन ग़ज़ल:

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर कर देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुग्नू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं बन सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्कान में
पलंग ज़ावे उसकी कमर को देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहरवाँ-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
"फ़राज़" आओ सितारे सफ़र के देखते हैं









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Tuesday, August 12, 2008

सतपाल ख्याल की ग़ज़लें और परिचय
















परिचय:

1974 को तलवाड़ा जिला होशियार पुर (पंजाब) में जन्में सतपाल 'ख़्याल' अपनी मूल प्रकृति से शायर हैं. 17—18 वर्ष की उम्र से शे'र कहते आए हैं , लेकिन कहते कम और सुनते ज़्यादा हैं.यही वजह है कि आहिस्ता—आहिस्ता इनकी ग़ज़लों का अपना एक अलग अंदाज़ दिखाई देने लगा है. पिछले कुछ वर्षों से ग़ज़ल के गंभीर विद्यार्थी के रूप में जो ज्ञान इन्होंने अर्जित किया है, उसे इनकी ग़ज़लों में देखा जा सकता है. शेर कहते हैं लेकिन तथाकथित नक़्क़ादों की तरह उधार माँग कर ओढ़े हुए उस्तादाना अंदाज़ में जगह—जगह अजीब—ओ—गरीब टिप्प्णियाँ नहीं करते फिरते. पिछले कई महीनों से कई रचनाकारों को आज की ग़ज़ल के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने वाले सतपाल 'ख़्याल' और इनकी ग़ज़लों को आपके लिए प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. —
द्विजेन्द्र 'द्विज'

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ग़ज़ल १

हमारे दिल की मत पूछो बड़ी मुश्किल में रहता है
हमारी जान का दुश्मन हमारे दिल में रहता है

सुकूँ मिलता है हमको बस तुम्हारे शह्र में आकर
यहीं वो नूर सा चेहरा कहीं महमिल में रहता है

कोई शायर बताता है कोई कहता है पागल भी
मेरा चर्चा हमेशा आपकी महफ़िल में रहता है.

वो मालिक है सब उसका है वो हर ज़र्रे में है ग़ाफ़िल !
वही दाता में मिलता है वही साइल में रहता है.

वो चुटकी में ही करता है तुम्हारी मुश्किलें आसाँ
खुदा को चाहने वाला कभी मुश्किल में रहता है!


**महमिल:पर्दा. साइल: याचक
बहरे हजज़
****




ग़ज़ल २

वो आ जाए ख़ुदा से की दुआ अक्सर
वो आया तो परेशाँ भी रहा अक्सर

ये तनहाई ,ये मायूसी , ये बेचैनी
चलेगा कब तलक ये सिलसिला अक्सर

न इसका रास्ता कोई ,न मंजिल है
‘महब्बत है यही’ सबने कहा अक्सर

चलो इतना ही काफ़ी है कि वो हमसे
मिला कुछ पल मगर मिलता रहा अक्सर

वो ख़ामोशी वही दुख है वही मैं हूँ
तेरे बारे में ही सोचा किया अक्सर

ये मुमकिन है कि पत्थर में ख़ुदा मिल जाए
मिलेगी बेवफ़ा से पर ज़फ़ा अक्सर
(हजज)
****












ग़ज़ल ३

मत ज़िक्र कर तू सबसे मत पूछ हर किसी को
ज़ख्मों का तेरे मरहम मालूम है तुझी को

बख़्शी ख़ुशी जो मुझको सबको वो बख़्श मालिक
जो ग़म दिए हैं मुझको देना न वो किसी को

पूछे नहीं मिलेगा कोई निशाँ ख़ुदा का
ढूँढो तो है ये मुमकिन पा जाओ रौशनी को.

सुब्हों को हम भी निकले सूरज उठाके सर पे
रातों को ज़ख्म अपने दिखलाए चांदनी को

बाहर तो दुख ही दुख है भीतर उतर के देखो
आँखों को बंद कर के तुम ढूँढ लो खुशी को.

(221, 2122, 221 , 2122)
****












ग़ज़ल ४

दरिया से तालाब हुआ हूँ
अब मैं बहना भूल गया हूँ.

तूफ़ाँ से कुछ दूर खड़ा हूँ
साहिल पर कुछ देर बचा हूँ

नज़्में ग़ज़लें सपने लेकर
बिकने मैं बाजा़र चला हूँ

हाथों से जो दी थी गाँठें
दाँतों से वो खोल रहा हूँ

यह कह — कह कर याद किया है
अब मैं तुझको भूल गया हूँ

याद ख़्याल आया वो बचपन
दूर जिसे मैं छोड़ आया हूँ.

वज़न:२२ २२ २२ २२
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ग़ज़ल ५

मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी

न अपनों ने कभी चाहा यही तकलीफ़ दोनों की
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी

अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी

न लफ़्जों का वतन कोई न है मज़हब कोई इनका
ये कहते हैं फ़कत दिल की कभी उर्दू कभी हिंदी

महब्बत है वतन उसका , ज़बाँ उसकी महब्बत है
ख़्याल उसने ग़ज़ल कह दी कभी उर्दू कभी हिंदी.

बहरे हजज़
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Tuesday, July 29, 2008

नवनीत शर्मा की ग़ज़लें और परिचय













परिचय:
22 जुलाई 1973 को मनोहर शर्मा साग़र पालमपुरी के घर मारण्डा (पालमपुर) मे जन्में नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश विश्व्विद्यालय से एम. बी. ए. हैं. हिमाचल में हिंदी कविता के सशक्त युवा हस्ताक्षरों में अग्रणी नवनीत शर्मा की कविताओं का जादू तो सुनने —पढ़ने वाले के सर चढ़ कर बोलता ही है ,इनकी ग़ज़लें भी अपने ख़ास तेवर रखती हैं.हिन्दी और पहाड़ी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखने वाले क़लम के धनी नवनीत पिछले ग्यारह वर्षों से समाचार पत्रों के सम्पादन से जुड़े हैं.
संप्रति : मुख्य उप संपादक, दैनिक जागरण, बनोई,तहसील शाहपुर— ज़िला काँगड़ा (हि.प्र.)
मोबाइल नं.: 94180— 40160
**
एक.







अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने
अब जो ग़ुर्बत में है नानी तो नवासे कितने

चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे
रूह के चेहरे पे दिखते हैं मुहाँसे कितने

सच के क़स्बे पे मियाँ झूठ की है सरदारी
अब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने

थे बहुत ख़ास जो सर तान के चलते थे यहाँ
अब इसी शहर में वाक़िफ़ हैं अना से कितने

अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने .

2122,1122,1122 ,112

दो.







अनकही का जवाब है प्यारे
ये जो अंदर अज़ाब है प्यारे

आस अब आस्माँ से रक्खी है
छत का मौसम ख़राब है प्यारे

अश्क, आहें ख़ुशी ठहाके भी
ज़िंदगी वो किताब है प्यारे

रोक लेते हैं याद के हिमनद
दिल हमारा चिनाब है प्यारे

प्यार अगर है तो उसकी हद पाना
सबसे मुश्किल हिसाब है प्यारे

कट चुकी हैं तमाम ज़ंजीरें
फिर भी ख़ाना ख़राब है प्यारे

कौन तेरा है किसका है तू भी
ऐसा कोई हिसाब है प्यारे!
212,212,1222

तीन.









मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से
तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से


यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं
मगर है दूर वो दस्तूर—ए—बंदगी फिर से

गड़ी है ज़िन्दगी दिल में कँटीली यादों —सी
ज़रा निजात मिले, तो हो ज़िंदगी फिर से

बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से

सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से

मुझे भुलाने चले थे वो भूल बैठे हैं
उन्हीं के दर पे मैं पत्थर हूँ दायमी फिर से

1212, 1122, 121 2,112

bahr' mujtas

चार.








यह जो बस्ती में डर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता

तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता

रेत के घर पहाड़ की दस्तक
वाक़िया ये ख़बर नही होता

ख़ुदपरस्ती ये आदतों का लिहाफ़
ख़्वाब तो हैं गजर नहीं होता

मंज़िलें जिनको रोक लेती हैं
उनका कोई सफ़र नहीं होता

पूछ उससे उड़ान का मतलब
जिस परिंदे का पर नहीं होता

आरज़ू घर की पालिए लेकिन
हर मकाँ भी तो घर नहीं होता

तू मिला है मगर तू ग़ायब है
ऐसा होना बसर नहीं होता

इत्तिफ़ाक़न जो शे`र हो आया
क्या न होता अगर नहीं होता.

212,212,1222

पाँच.








वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ
हौसले सब ज़मीन हो जाएँ

ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ
सच अगर बदतरीन हो जाएँ

ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ
हम कहाँ तक महीन हो जाएँ

ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं
लोग जब भी मशीन हो जाएँ

आपको आप ही उठाएँगे
चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ.

212,212,1222


छ:







उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है
हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है

सच के क़स्बे का जो अँधेरा है
झूठ के शहर का सवेरा है

मैं सिकंदर हूँ एक वक़्फ़े का
तू मुक़द्दर है वक्त तेरा है

दूर होकर भी पास है कितना
जिसकी पलकों में अश्क मेरा है

जो तुझे तुझ से छीनने आया
यार मेरा रक़ीब तेरा है

मैं चमकता हूँ उसके चेहरे पर
चाँद पर दाग़ का बसेरा है.

212,212,1222


सात.










तेरी याद सिकंदर अब भी
दिल बाक़ी है बंजर अब भी

सरहद—सरहद कंदीलें हैं
और दिलों में ख़ंजर अब भी

सारे ख़त वो ख़ुश्बू वाले
इक रिश्ते के खण्डर अब भी

जितना ज़ख़्मी उतना बेबस
कुछ रिश्तों का मंज़र अब भी

बेटे के सब आँसू सूखे
माँ की आँख समंदर अब भी

छू आए हो चाँद को लेकिन
दूर बहुत है अंबर अब भी

हिंदी तर्पण करने वालो
कितने और सितंबर अब भी

रूह तपा कर जी लो वरना
दुनिया सर्द दिसंबर अब भी

बाहर—बाहर हँसना— रोना
अंदर मस्त कलंदर अब भी

अर्से से आज़ाद है बस्ती
लोग मगर हैं नंबर अब भी.

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बहुत ही जिंदा दिल इन्सान है नवनीत. भाषा पर इतनी अच्छी पकड़ कि क्या कहना.एक बहुत अच्छा मंच संचालक, बात करने का लहजा़ कमाल का फ़िर चाहे हिंदी हो या पंजाबी . बहुत ही साफ़ दिल इन्सान है नवनीत . He is multitalented man.

सतपाल ख्याल
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Saturday, July 19, 2008

डा.अहमद अली बर्की की ग़ज़लें और परिचय












25 दिसंबर 1954 को जन्मे डा. अहमद अली 'बर्क़ी' साहब तबीयत से शायर हैं.

शायर का परिचय ख़ुद बक़ौल शायर :

मेरा तआरुफ़

शहरे आज़मगढ है बर्क़ी मेरा आबाई वतन
जिसकी अज़मत के निशां हैं हर तरफ जलवा फेगन

मेरे वालिद थे वहां पर मर्जए अहले नज़र
जिनके फ़िक्रो— फ़न का मजमूआ है तनवीरे सुख़न

नाम था रहमत इलाही और तख़ल्लुस बर्क़ था
ज़ौफ़ेगन थी जिनके दम से महफ़िले शेरो सुख़न

आज मैं जो कुछ हूँ वह है उनका फ़ैज़ाने नज़र
उन विरसे में मिला मुझको शऊरे —फिकरो —फ़न

राजधानी देहली में हूँ एक अर्से से मुक़ीम
कर रहा हूँ मैं यहां पर ख़िदमते अहले वतन

रेडियो के फ़ारसी एकाँश से हूँ मुंसलिक
मेरा असरी आगही बर्क़ी है मौज़ूए सुख़न .


डा. अहमद अली बर्की़ आज़मी साहब की तीन ग़ज़लें

१.









सता लें हमको, दिलचस्पी जो है उनकी सताने में
हमारा क्या वो हो जाएंगे रुस्वा ख़ुद ज़माने में

लड़ाएगी मेरी तदबीर अब तक़दीर से पंजा
नतीजा चाहे जो कुछ हो मुक़द्दर आज़माने में

जिसे भी देखिए है गर्दिशे हालात से नाला
सुकूने दिल नहीं हासिल किसी को इस ज़माने में

वो गुलचीं हो कि बिजली सबकी आखों में खटकते हैं
यही दो चार तिनके जो हैं मेरे आशियाने में

है कुछ लोगों की ख़सलत नौए इंसां की दिल आज़ारी
मज़ा मिलता है उनको दूसरों का दिल दुखाने में

अजब दस्तूर—ए—दुनिया— ए —मोहब्बत है , अरे तौबा
कोई रोने में है मश़ग़ूल कोई मुस्कुराने में

पतंगों को जला कर शमए—महफिल सबको ऐ 'बर्क़ी'!
दिखाने के लिए मसरूफ़ है आँसू बहाने में.


बहर—ए—हज़ज=1222,1222,1222,1222

२.










नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा

अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा

सितम शआरी में उसका नहीं कोई हमसर
सितम शआरों में वह है बुलंद आवाज़ा

गुज़र रही है जो मुझपर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख़्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा

गुरेज़ करते हैं सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वो अपने किए का ख़मियाज़ा

है तंग का़फिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना में ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा

वो सुर्ख़रू नज़र आता है इस लिए 'बर्क़ी'!
है उसके चेहरे का, ख़ूने जिगर मेरा, ग़ाज़ा

बह्र—ए—मजत्तस= 1212,1122,1212,112
**
अमीरे शहर=हाकिम; सितम शआरी-=ज़ुल्म; हमसर= बराबर का

सितम शआर=ज़लिम, ग़ाज़ा=क्रीम, बुलंद आवाज़ा-=मशहूर


३.










दर्द—ए—दिल अपनी जगह दर्द—ए—जिगर अपनी जगह
अश्कबारी कर रही है चश्मे—ए—तर अपनी जगह

साकित—ओ—सामित हैं दोनों मेरी हालत देखकर
आइना अपनी जगह आइनागर अपनी जगह


बाग़ में कैसे गुज़ारें पुर—मसर्रत ज़िन्दगी
बाग़बाँ का खौफ़ और गुलचीं का डर अपनी जगह

मेरी कश्ती की रवानी देखकर तूफ़ान में
पड़ गए हैं सख़्त चक्कर में भँवर अपनी जगह

है अयाँ आशार से मेरे मेरा सोज़—ए—दुरून
मेरी आहे आतशीं है बेअसर अपनी जगह

हाल—ए—दिल किसको सुनायें कोई सुनता ही नहीं
अपनी धुन में है मगन वो चारागर अपनी जगह

अश्कबारी काम आई कुछ न 'बर्क़ी'! हिज्र में
सौ सिफ़र जोड़े नतीजा था सिफ़र अपनी जगह

बहरे रमल(२१२२ २१२२ २१२२ २१२ )

संपर्क:

aabarqi@gmail.com

DR.AHMAD ALI BARQI AZMI

598/9, Zakir Nagar, Jamia Nagar

New Delhi-11025

Tuesday, July 8, 2008

देवमणि पांडेय की ग़ज़लें और परिचय







परिचय:
4 जून 1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में जन्मे देवमणि पांडेय लोकप्रिय कवि और मंच संचालक हैं। अब तक दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- "दिल की बातें" और "खुशबू की लकीरें"। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फ़िल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं। आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है। पेश हैं उनकी दो गज़लें-
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ग़ज़ल १








उदासी के मंज़र मकानों में हैं
कि रंगीनियाँ अब दुकानों में हैं

मोहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी
दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं

इन्हें अपने अंजाम का डर नहीं
कई चाहतें इम्तहानों में हैं

न जाने किसे और छलनी करें
कई तीर उनकी कमानों में हैं

दिलों की जुदाई के नग़मे सभी
अधूरी पड़ी दास्तानों में हैं

वहां जब गई रोशनी डर गई
वो वीरानियाँ आशियानों में हैं

ज़ुबाँ वाले कुछ भी समझते नहीं
वो दुख दर्द जो बेज़ुबानों में हैं

परिंदों की परवाज़ कायम रहे
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं

{वज़न है:122,122,122,12 }



ग़ज़ल २








बसेरा हर तरफ़ है तीरगी का
कहीं दिखता नहीं चेहरा ख़ुशी का

अभी तक ये भरम टूटा नहीं है
समंदर साथ देगा तिश्नगी का

किसी का साथ छूटा तो ये जाना
यहां होता नहीं कोई किसी का

वो किस उम्मीद पर ज़िंदा रहेगा
अगर हर ख़्वाब टूटे आदमी का

न जाने कब छुड़ा ले हाथ अपना
भरोसा क्या करें हम ज़िंदगी का

लबों से मुस्कराहट छिन गई है
ये है अंजाम अपनी सादगी का

{वज़न है: 1222,1222,122}
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Devmani Pandey (Poet)
A-2, Hyderabad Estate
Nepean Sea Road, Malabar Hill
Mumbai - 400 036
M : 98210-82126 / R : 022 - 2363-2727
Email : devmanipandey@gmail.com









Tuesday, July 1, 2008

प्राण शर्मा की दो ग़ज़लें.












परिचय:
13 जून 1937 को वज़ीराबाद (अब पकिस्तान में) जन्मे प्राण शर्मा 1955 से लेखन में सक्रिय हैं.
आप हिन्दी ग़ज़लों और गीतों में शब्दों के विलक्षण प्रयोग के लिए जाने जाते हैं.
यही नहीं आपके ग़ज़ल विषयक आलेख और पुस्तकें भी चर्चा में हैं.
ग़ज़ल कहता हूँ (ग़ज़ल संग्रह) तथा सुराही (मुक्तक संग्रह) इनकी प्रसिद्ध तथा चर्चित किताबें हैं. विश्व भर की सभी प्रमुख हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित.
संपर्क – 3 Crackston Close, Coventry, CV2 5EB, UK
sharmapran4@gmail.com


संपर्क3 Crackston Close, Coventry, CV2 5EB, UK
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ग़ज़ल १
माना कि आदमी को हँसाता है आदमी
इतना नहीं कि जितना रुलाता है आदमी
Maanaa ke aadmee ko haNsaataa hai aadmee
Itnaa nahin ke jitnaa rulaataa hai aadmee

माना ,गले से सब को लगाता है आदमी
दिल में किसी—किसी को बिठाता है आदमी
mana ,gale se sabko lagaata hai aadmee
dil mein kisee-kisee ko biThaataa hai aadmee

सुख में लिहाफ़ ओढ़ के सोता है चैन से
दुख में हमेशा शोर मचाता है आदमी
sukh meN lihaaf auRh ke sotaa hai chain se
dukh mein hameshaa shor machaataa hai aadmee

हर आदमी की ज़ात अजीब—ओ—गरीब है
कब आदमी को दोस्तो! भाता है आदमी
har aadmee kee zaat ajeeb-o-gareeb hai
kab aadmee ko dosto bhaataa hai aadmee

दुनिया से ख़ाली हाथ कभी लौटता नहीं
कुछ राज़ अपने साथ ले जाता है आदमी
dunia se KHaalee haath kabhee lauT^taa nahiN
kuchh raaz apne saath le jaataa hai aadmee


वज़न: ( 221 21 21 122 12 12)










ग़ज़ल २
माना सुख—दुख की है लड़ी प्यारे!
फिर भी प्यारी है ज़िन्दगी प्यारे!
Maanaa,sukh-dukh kee hai laree pyaare
Phir bhee pyaaree hai zindgee pyaare

नाचती है कभी नचाती है!
ज़िन्दगानी है इक नटी प्यारे!
naachtee hai kabhee nachaatee hai
zindgaanee hai ek naTee pyaare

ये भी मौसम सी आती जाती है!
चिर टिकाऊ नहीं ख़ुशी प्यारे!
ye bhee mausam— see aatee-jaatee hai
chir TikaaU nahin KHushee pyaare

कौन जीता है चैन से सुख से
क़ैदख़ाना है मुफ़लिसी प्यारे!
kaun jeeta hai chain se,sukh se
qaidKHaanaa hai muflisee pyaare

नेकियाँ शर्मसार हैं तेरी
दूर रख ख़ुद से हर बदी प्यारे
nekiyaN sharmsaar hain teree
door rakh KHud se har badee pyaare

कैसा—कैसा निखार आता है
फूल बनती है जब कली प्यारे
kaisa-kaisa nikhaar aataa hai
phool bantee hai jab kalee pyaare

एक दिन लोग ख़ुद ही बदलेंगे
पहले ख़ुद को बदल कभी प्यारे
ek din log KHud hee badleN ge
pahle KHud ko badal kabhee pyaare


212 212 1222

Monday, June 23, 2008

कृश्न कुमार 'तूर' जी की ग़ज़लें













परिचय:

11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आपने Journalism में डिप्लोमा भी किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.
आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं : आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .
'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.
सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road, Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854
'तूर' साहब ने इस अंक लिये ये दो ग़ज़लें द्विजेन्द्र 'द्विज' को 'आज की ग़ज़ल' के लिए धर्मशाला से फोन पर लिखवाई हैं .लीजिए प्रस्तुत हैं:


कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें








ग़ज़ल १

तेरे ही क़दमों में मरना भी अपना जीना भी
कि तेरा प्यार है दरिया भी और सफ़ीना भी
Tire hee qadamoN meN maranaa bhee apanaa jeenaa bhee
Keh teraa pyaar hai darayaa bhee aur safeenaa bhee

मेरी नज़र में सभी आदमी बराबर हैं
मेरे लिए जो है काशी वही मदीना भी
Miree nazar meM sabhee aadamee baraabar haiN
Mire lie jo hai kaashee vahee madeenaa bhee


तेरी निगाह को इसकी ख़बर नहीं शायद
कि टूट जाता है दिल—सा कोई नगीना भी
Tiree nigaah ko isakee KHabar naheeN shaayad
Ke TooT jaataa hai dil—saa koee nageenaa bhee

बस एक दर्द की मंज़िल है और एक मैं हूँ
कहूँ कि 'तूर'! भला क्या है मेरा जीना भी.
Bas ek dard kI manzil hai aur ek main hooN
kahooN ke 'toor'! bhalaa kyaa hai meraa jeenaa bhee.










ग़ज़ल २
राह—ए—सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया
साया बदन की क़ैद से निकला तो मर गया
raah—e—safar se jaise koI hamasafar gayaa
saayaa badan kee qaid se nikalaa to mar gayaa

ताबीर जाने कौन से सपने की सच हुई
इक चाँद आज शाम ढले मेरे घर गया
taabeer jaane kaun se sapane kee sach huee
ik chaaNd aaj sham Dhale mere ghar gayaa

थी गर्मी—ए—लहू की उम्मीद ऐसे शख़्स से
इक बर्फ़ की जो सिल मेरे पहलू में धर गया
thee garmee—e—lahoo kee ummeed aise shaKHs se
ik barf kee jo sil mere pahaloo meN dhar gayaa


है छाप उसके रब्त की हर एक शे`र पर
वो तो मेरे ख़याल की तह में उतर गया
hai chhaap usake rabt kee har ek she`r par
vo to mire KHayaal kee tah meN utar gayaa


इन्सान बस ये कहिए कि इक ज़िन्दा लाश है
हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया.
insaan bas ye kahiye ke ik zindah laash hai
har cheez mar gayee agar ehsaas mar gayaa

इस ख़्वाहिश—ए—बदन ने न रक्खा कहीं का `तूर' !
इक साया मेरे साथ चला मैं जिधर गया.
is KHwaahish—e—badan ne n rakkhaa kaheeN kaa 'toor'!
ik saayaa mere saath chalaa maiN jidhar gayaa.


Bah'r Mazaar'a
Maf—uu—lu Faa -i-laa-tu ma—faa—ii—lu Faa—i—lun 221,2121,1221,212

Thursday, June 12, 2008

श्री सरवर आलम राज़ 'सरवर'















'सरवर'



16 मार्च 1935 को मध्य प्रदेश में जन्मे सरवर आलम राज़ 'सरवर' ने
ए.एम.यू. से बेकलारिएट और सिविल इंजिनियरिंग की और ए.एम.यू.में ही
प्राध्यापक भी बन गये. 1964 में आप उच्च अध्ययन के लिए यू.एस.ए.चले गये.
बतौर सिविल स्ट्र्क्चरल इन्जिनियर आपने विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय इंजिनियरिंग फ़र्मों के लिए अपनी सेवाएँ दीं.
अदबी पृष्ठभूमि वाले परिवार से सम्बन्ध रखने वाले सरवर साहिब उर्दू शायर,
अफ़सानानिगार तो हैं ही, फ़न—ए—शाइरी के अरूज़ के माहिर भी है.
शहर—ए—निगार,रंग—ए—गुलनार,दर्रा—ए—शहवार ,तीसरा हाथ,बाक़ियाते—राज़ इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं.आजकल आप Carrollton (a small town next to Dallas), Texas, USA में रहते हैं और उर्दू ज़बान और अदब को समर्पित हैं.











ग़ज़ल १

सुबह नहीं है शाम नहीं है
दिल को क्यों आराम नहीं है

SubH naheeN hai shaam naheeN hai
dil ko kyoN aaraam naheeN hai?

शाम—ओ—सहर यह रोना ऐ दिल
और कोई क्या काम नहीं है?

shaam-o-saHar yeh ronaa ai dil
aur koyee kyaa kaam naheeN hai?

मुझ को तुझ से शिक्वा ? तौबा!
कुफ़्र है यह इस्लाम नहीं है

mujh ko tujh se shikwah? taubah!
kufr hai yeh Islam naheeN hai!

ज़ख़्म—ए—वफ़ा, आलाम—ए—मुहब्बत
यह तुह्फ़ा बेदाम नहीं है!

zaKhm-e-wafaa, aalaam-e-muHabbat
yeh tuHfah be-daam naheeN hai!

उनकी नज़रें ऐसी बदलीं
मय वो नहीं वो जाम नहीं है


un kee naz^reN aisee badleeN
mai woh naheeN, woh jaam naheeN hai

बात है कोई वर्ना क्यों अब
पहला—सा इकराम नहीं है


baat hai koyee warnah kyoN ab
pehlaa saa ikraam naheeN hai

क़ैद—ए—मुहब्बत,अल्लाह!अल्लाह!
सहल कोई ये काम नहीं है

qaid-e-muHabbat, Allah! Allah!
sehl koyee yeh kaam naheeN hai

राह—ए—वफ़ा ही खुद टेढ़ी है
तुझ पर कुछ इल्ज़ाम नहीं है

raah-e-wafaa hee Khud TeRhee hai
tujh par kuchh ilzaam naheeN hai

अपनी करनी सब भरते हैं
ग़ैर की भरना आम नहीं है

apnee karnee sab bharte haiN
ghair kee bharnaa a'am naheeN hai

दुनियादारी , दुनियासाज़ी!
अपना तो यह काम नहीं है



duniyaa-daaree, duniyaa-saazee!
apnaa to yeh kaam naheeN hai

सरवर! तूने कुछ तो किया है
यूँ ही तो बदनाम नहीं है

:Sarwar:! too ne kuchh to kiyaa hai
yooN hee to badnaam naheeN hai
bahr—e—mutdaarik kaa zihaaf fa.u.lun
============================
saHar = SubH
aalaam = raNj
mai = sharaab
ikraam = chaahat, i'zzat
duniyaa-saazee = jhooTee baateN banaanaa

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ग़ज़ल २

kahaaN se aa gaYe tum ko nah jaane
bahaane, aur phir aise bahaane!
कहाँ से आ गये तुम को न जाने
बहाने और फिर ऐसे बहाने


zamaanah kyaa bohat kaafee naheeN thaa?
jo tum aaYe ho mujh ko aazmaane!
ज़माना क्या बहुत काफ़ी नहीं था?
जो तुम आये हो मुझ को आज़माने?

hawaa-e-naamuraadee! tere Sadqe
bahaar apnee,nah apne aashyaane!
हवा—ए—नामुरादी तेरे सदक़े
बहार अपनी न अपने आशियाने!

laboN par muhr-e-Khaamoshee lagee hai
diloN meN band haiN kitne fasaane!
लबों पर मुहर—ए—ख़ामोशी लगी है
दिलों में बन्द हैं कितने फ़साने!


nah maut apnee, nah apnee zindagee hai
magar Heele wohee haiN sab puraane!
न मौत अपनी न अपनी ज़िन्दगी है
मगर हीले वही हैं सब पुराने



yeh duniyaa, be-wafaa, be-mehr duniyaa!
yeh roz-o-shab, yeh is ke taane-baane!
यह दुनिया बेवफ़ा,बे—मेह्र दुनिया
ये रोज़—ओ—शब ये इसके ताने—बाने!


zamaane ne lagaayee aisee Thokar
hamaare hosh aaYe haiN Thikaane!
ज़माने ने लगाई ऐसी ठोकर
हमारे होश आये हैं ठिकाने!



kahaaN tak tum karo ge fikr-e-duniyaa?
chale aa,o kabhee tum bhee manaane!
कहाँ तक तुम करोगे फ़िक्र—ए—दुनिया
चले आओ कभी तुम भी मनाने


judaa sab se miraa Zauq-e-t^lab hai
nah shor-e-giryah, nay aah-o-fuGhaane!
जुदा जबसे मिरा ज़ौक़—ए—तलब है
न शोर—ए—गिर्या,न आह—ओ—फ़ुग़ाने

nah woh saaqee, nah woh maiKhaanah baaqee
kahaaN aaKhir gaYe agle zamaane?
न वो साक़ी न वो मयख़ाना बाक़ी
कहाँ आखिर गये अगले ज़माने?


Zaraa dekho to Dar kar bijliyoN se
jalaa Daale Khud apne aashyaane!
ज़रा देखो तो डर कर बिजलियों से
जला डाले ख़ुद अपने आशियाने

mileN ge ek din "Sarwar" se jaa kar
agar taufeeq dee ham ko Khudaa ne!
मिलेंगे एक दिन 'सरवर' से जाकर
अगर तौफ़ी॔क़ दी हमको खुदा ने.
Bah'r Hazaj Musaddas Mahzuuf:

Ma - faa - ii - lun Ma - faa - ii - lun Fa - uu - lun

=================================
hawaa-e-naamuraadee = naa-ummeedee kee hawaa
Sadqe = wajh se
muhr-e-Khaamoshee = chup rehne kee muhr yaa bandish
be-mehr = pyaar nah karne waalee
roz-o-shab = din raat
Zauq-e-t^alab = maaNgne kaa andaaz
shor-e-giryah = rone-dhone kaa shor
aah-o-fuGhaane = aaheN bharnaa aur shikaayat karnaa
aashyaane = ghoNsle
taufeeq = himmat



Thursday, June 5, 2008

श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' जी की ग़ज़लें












परिचय

5 अप्रैल, 1938 को ज्वालामुखी (हिमाचल प्रदेश) में जन्मे ,एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' ए.जी. आफ़िस से बतौर सीनियर आडिट आफ़िसर रिटायर होकर आजकल शिमला में रहते हैं. तेरी ख़ुश्बू में बसे ख़त... के सुप्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर के शब्दों में: " 'शौक़' साहिब की शायरी किसी फ़क़ीर द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है जो हर हाल में क़बूल हो कर रहती है. "
* शौक़' साहिब का ग़ज़ल संग्रह "आँच" बहुत लोकप्रिय हुआ है.
फोन: 98160—07665
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शौक़ साहिब की दो ग़ज़लें









1.

इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े

कोई जा कर किससे अपना दु:ख—सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े

अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना—कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े

ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े

फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े

शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े

कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े.

2 2 x 6

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बेहंगम=बेडौल; ख़लवत=एकान्त; बेहिस=स्तब्ध,सुन्न

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ग़ज़ल:

बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
नहीं भी हो तो भी मुजरिम दिखाई देता है

जो इक़्तिदार की कुर्सी पे जलवा फ़रमा हैं
न जाने क्यों उन्हें ऊँचा सुनाई देता है

तिरे ज़मीर का आइना गर सलामत है
तो देख उसमें तुझे क्या दिखाई देता है

मिरा नसीब कि ग़म तो अता हुआ, वरना
किसी को तिरा दस्ते-हिनाई देता है

वो तकता रहता है हर वक़्त आसमाँ की तरफ़
खला में जाने उसे क्या दिखाई देता है

करोड़ों लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं –कहीं कोई कोई इन्साँ दिखाई देता है

बहुत ज़ियादा जहाँ रौशनी ख़िरद की हो
निगाहे-दिल को वहाँ कम सुझाई देता है

तज़ाद ज़ाहिरो—बातिन में उसके कुछ भी नहीं
है 'शौक़' वैसा ही जैसा दिखाई देता है.

1212,1122,1212,112 (mujtas kaa zihaf)

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इक़्तिदार=सत्ता ; दस्ते—हिनाई=मेंहदी रचा हाथ; ख़ला=शून्य; ख़िरद=बुद्धि; तज़ाद=प्रतिकूलता ज़ाहिरो—बातिन=प्रत्यक्ष रूप तथा अंत:करण

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Tuesday, May 27, 2008

ज़हीर कुरैशी जी की ग़ज़लें..

परिचय:

जन्म तिथि: 5 अगस्त,1950
जन्मस्थान: चंदेरी (ज़िला:गुना,म.प्र.)
प्रकाशित ग़ज़ल—संग्रह:लेखनी के स्वप्न(१९७५),एक टुकड़ा धूप(1979),चाँदनी का दु:ख(1986),समन्दर ब्याहने आया नहीं है(1992),भीड़ में सबसे अलग(2003)
संपर्क: समीर काटेज, बी—21,सूर्य नगर,शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर—4740129(म.प्र.)फोन: 094257 90565.


एक.

अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर

खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर

जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर

अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल—फलकर

लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर

कली के प्यार में मर—मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर

घुसे जो लोग काजल—कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर

1222,1222,122(Hazaj ka zihaaf)



दो.

घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए

अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए

मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए

धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए

होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए

इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए

बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.


221,2121,1221,212 (muzaare)
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑

Wednesday, May 14, 2008

श्री बृज कुमार अग्रवाल जी की ग़ज़ल व परिचय

परिचय
46 वर्षीय श्री बृज कुमार अग्रवाल (आई. ए. एस.) उत्तर प्रदेश के ज़िला फ़र्रुख़ाबाद से हैं.
आप आई.आई. टी. रुड़की से बी.ई. और आई.आई. टी. दिल्ली से एम.टेक. करने के पश्चात 1985 से भारतीय प्रशासनिक सेवा के हिमाचल काडर में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैंI आप साहित्य , कला एवं संस्कृति के मर्मज्ञ व संरक्षक तथा ग़ज़ल को समर्पित एक सशक्त हस्ताक्षर हैं I


ग़ज़ल

सच को बचाना अब तो यहाँ एक ख़्वाब है
जब आईना भी दे रहा झूठे जवाब है ।

चेहरा तो कोई और है ये जानते हैं हम
कहते हैं लोग जिसको सियासत, नकाब है।

माने नियम जो वो तो है कमज़ोर आदमी
तोड़े नियम जो आज वही कामयाब है।

मेरी बेबसी है उसको ही मैं रहनुमा कहूँ
मैं जानता हूँ उसकी तो नीयत ख़राब है ।

दो पल सुकून के मिलें तो जान जाइये
अगले ही पल में आने को कोई अज़ाब है ।

सफ़`आ उलटना एक भी दुश्वार हो गया
किसने कहा था वो तो खुली इक किताब है ।

इसे तोड़ने से पहले कई बार सोचना
तेरा भी वो न हो कहीं मेरा जो ख़्वाब है ।

मेरा सवाल फिर भी वहीं का वहीं रहा
माना जवाब तेरा बहुत लाजवाब है ।

S S I, S I S I , I S S I , S I S
बह्र मुज़ारे

Monday, May 5, 2008

पवनेन्द्र ‘ पवन ’ की दो ग़ज़लें और परिचय

परिचय:

नाम: पवनेन्द्र ‘पवन’
जन्म तिथि: 7 मई 1945.
शिक्षा: बी.एस.सी. (आनर्ज़),एम.एड.
हिन्दी और पहाड़ी ग़ज़ल को समर्पित हस्ताक्षर.
अपने ख़ास समकालीन तेवर और मुहावरे के लिए चर्चित.
पहाड़ी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन.
सम्प्रति: प्राचार्य, एम.इ.टी.पब्लिक सीनियर सेकैंडरी स्कूल, नगरोटा बगवाँ—176047 (हिमाचल प्रदेश)
स्थाई पता: धौलाधार कालोनी ,नगरोटा बगवाँ—176047 (हिमाचल प्रदेश)
दूरभाष : 01892—252079, Mob. : 094182—52675.


ग़ज़ल १

घूमती है दर—ब—दर ले कर पटारी ज़िन्दगी
पेट पापी के लिए बन कर मदारी ज़िन्दगी

गालियाँ कुछ को मिलीं, कुछ ने बटोरी तालियाँ
वक़्त की पिच पर क्रिकेट की एक पारी ज़िन्दगी

दो क़दम चलकर ही थक कर हाँफ़ने लगते हैं लोग
किसने इन पर लाद दी इनसे भी भारी ज़िन्दगी

वक़्त का टी.टी. न जाने कब इसे चलता करे
बिन टिकट के रेल की जैसे सवारी ज़िन्दगी

झिड़कियाँ, आदेश, हरदम गालियाँ सुनती रहे
चौथे दर्ज़े की हो गोया कर्मचारी ज़िन्दगी

मौत तो जैसे ‘पवन’ मुफ़लिस की ठण्डी काँगड़ी
बल रही दिन—रात दफ़्तर की बुख़ारी ज़िन्दगी.

(beher-e -Ramal. faa-i-laatun x3+ faa-i-lun)


ग़ज़ल २


भूख से लड़ता रोज़ लड़ाई माँ का पेट
सूख गया सहता महँगाई माँ का पेट

मुफ़्त ले बैठा मोल लड़ाई माँ का पेट
देकर सबको बहनें भाई माँ का पेट

कोर निगलते ले उबकाई माँ का पेट
खा जाता है ढेर दवाई माँ का पेट

सड़कों पर अधनंगे ठिठुरे सोते हैं जो
उन बच्चों को एक रज़ाई माँ का पेट

मेहमाँ, गृहवासी, फिर कौआ, कुत्ता, गाय,
अंत में जिसकी बारी आई माँ का पेट

झिड़की —ताना, हो जाता है जज़्ब सब इसमें
जाने कितनी गहरी खाई माँ का पेट.

(vazan hai: 8 faa-lun +1 fa)

Monday, April 21, 2008

अमित "रंजन गोरखपुरी" की ग़ज़ल व परिचय












परिचय:
उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
जन्म- 17.01.1983, गोरखपुर

शिक्षा- बी. टेक.
पेशा- इंडियन आयल का. लि. में परियोजना अभियंता
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हूँ और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादत
कर रहा हूं! जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करने का विचार है!

ग़ज़ल

ज़िन्दगी को आज़मा के देखि‌ए,
जश्न है ये मुस्कुरा के देखि‌ए

ज़ख्म काटों के सभी भर जा‌एंगे,
फूल से नज़रें मिला के देखि‌ए

आसमां में चांदनी खिल जा‌एगी,
गेसु‌ओं को सर उठा के देखि‌ए

दूर से ही फ़ैसले अच्छे नही,
फ़ासले थोडे मिटा के देखि‌ए

दर्द-ओ-गम काफ़ूर से हो जा‌एंगे,
मां को सिरहाने बिठा के देखि‌ए

सख्त दीवारें भी पीछे नर्म हैं,
सरहदों के पार जा के देखि‌ए

मज़हबी मुखतार हैं इनको कभी,
जंग-ए-आज़ादी पढा के देखि‌ए

मेहफ़िलों में रौशनी बढ जा‌एगी,
शेर-ए-"रंजन" गुनगुना के देखि‌ए

Faailaatun Faailaatun Faailun

Thursday, April 10, 2008

दीपक गुप्ता जी का परिचय और ग़ज़ल

नाम : दीपक गुप्ता
उम्र: 36 साल

शिक्षा: बी.ए.(1994)

निवास: फ़रीदाबाद (हरियाणा)

पहली किताब 1994 में: सीपियों में बंद मोती.

बेबसाईट : http://www.kavideepakgupta.com/

दीपक जी एक अच्छे हास्य कवि भी हैं.



ग़ज़ल

सबसे अपनापन रखता है
वो इक ऐसा फ़न रखता है

पतझर में जीता है लेकिन
आँखों में सावन रखता है

वो खुद से क्यों डर जाता है

जब आगे दरपन रखता है

वक़्त सभी कुछ सुलझा देगा
क्यों मन में उलझन रखता है

मुझसे झूठे वादे करके
क्यों तू मेरा मन रखता है

दीपक गुप्ता .... 9811153282 ,
बज़न: आठ गुरु.



Wednesday, April 9, 2008

देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय











परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)

प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।

"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।

ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com


ग़ज़ल:

देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.

काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.

हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.

फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.

बज़न :212, 212, 212,212

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