Thursday, February 19, 2009

राजेन्द्र नाथ "रहबर" - परिचय और ग़ज़लें







राजेन्द्र नाथ 'रहबर`अदब की दुनिया का एक जाना पहचाना नाम है.इन्होंने ने हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ए., ख़ालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए. (अर्थ शास्त्र) और पंजाब यूनिवर्सिटी चण्डीगढ़ से एल. एल.बी. की .इन्होने शायरी का फ़न पंजाब के उस्ताद शायर पं.'रतन` पंडोरवी से सीखा जो प्रसिद्ध शायर अमीर मीनाई के चहेते शार्गिद थे। इनकी एक नज्म़ ''तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त`` को विश्व व्यापी शोहरत नसीब हुई है। ग़ज़ल गायक श्री जगजीत सिंह इस नज्म़ को 1980 ई. से अपनी मख़्मली आवाज़ में गा रहे हैं .

प्रकाशित पुस्तकें :याद आऊंगा ,तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त,जेबे सुख़न, ..और शाम ढल गई, मल्हार , कलस ,आगो़शे-गुल ,

आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज हम इनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं.


ग़ज़ल







क्या क्या सवाल मेरी नज़र पूछती रही
लेकिन वो आंख थी कि बराबर झुकी रही

मेले में ये निगाह तुझे ढूँढ़ती रही
हर महजबीं से तेरा पता पूछती रही

जाते हैं नामुराद तेरे आस्तां से हम
ऐ दोस्त फिर मिलेंगे अगर ज़िंदगी रही

आंखों में तेरे हुस्न के जल्वे बसे रहे
दिल में तेरे ख़याल की बस्ती बसी रही

इक हश्र था कि दिल में मुसलसल बरपा रहा
इक आग थी कि दिल में बराबर लगी रही

मैं था, किसी की याद थी, जामे-शराब था
ये वो निशस्त थी जो सहर तक जमी रही

शामे-विदा-ए-दोस्त का आलम न पूछिये
दिल रो रहा था लब पे हंसी खेलती रही

खुल कर मिला, न जाम ही उस ने कोई लिया
'रहबर` मेरे ख़ुलूस में शायद कमी रही

बहरे-मज़ारे
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

ग़ज़ल







जिस्मो-जां घायल, परे-परवाज़ हैं टूटे हुये
हम हैं यारों एक पंछी डार से बिछुड़े हुये

आप अगर चाहें तो कुछ कांटे भी इस में डाल दें
मेरे दामन में पड़े हैं फूल मुरझाये हुये

आज उस को देख कर आंखें मुनव्वर हो गयीं
हो गई थी इक सदी जिस शख्स़ को देखे हुये

फिर नज़र आती है नालां मुझ से मेरी हर ख़ुशी
सामने से फिर कोई गुज़रा है मुंह फेरे हुये

तुम अगर छू लो तबस्सुम-रेज़ होंटों से इसे
देर ही लगती है क्या कांटे को गुल होते हुये

वस्ल की शब क्या गिरी माला तुम्हारी टूट कर
जिस क़दर मोती थे वो सब अर्श के तारे हुये

क्या जचे 'रहबर` ग़ज़ल-गोई किसी की अब हमें
हम ने उन आंखों को देखा है ग़ज़ल कहते हुये

बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


पता:
राजेन्द्र नाथ 'रहबर`
1085, सराए मुहल्ला,
पठानकोट-145001
पंजाब

Saturday, February 14, 2009

विशेष पेशकश










आज सोचा कि थोड़ा रोमांटिक हो जाएँ और फिर बरबस अहमद फ़राज़ साहब कि याद आ गई और उनकी एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है जो आप सब से सांझा करना चाहता हूँ और फिर साइड बार मे एक ग़ज़ल मेहदी हसन साहेब की मखमली आवाज मे आप सब के लिए पेश की है उम्मीद करता हूँ कि आप को ये पेशकश पसंद आएगी.


ग़ज़ल

बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा


अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा

अल्फ़ाज़ थे के जुग्नू आवाज़ के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख़्वाबों में ख़्वाब उस के यादों में याद उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

पहले भी लोग आये कितने ही ज़िन्दगी में
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा

अगली मुहब्बतों ने वो नामुरादियाँ दीं
ताज़ा रफ़ाक़तों से दिल था डरा डरा सा


कुछ ये के मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोये
कुछ ज़हर में बुझा था अहबाब का दिलासा

फिर यूँ हुआ के सावन आँखों में आ बसे थे
फिर यूँ हुआ के जैसे दिल भी था आबला सा

अब सच कहें तो यारो हम को ख़बर नहीं थी
बन जायेगा क़यामत इक वाक़िआ ज़रा सा

तेवर थे बेरुख़ी के अंदाज़ दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आश्ना सा

हम दश्त थे के दरिया हम ज़हर थे के अमृत
नाहक़ था ज़ोंउम हम को जब वो नहीं था प्यासा

हम ने भी उस को देखा कल शाम इत्तेफ़ाक़न
अपना भी हाल है अब लोगो "फ़राज़" का सा

Thursday, February 5, 2009

आर.पी. शर्मा "महरिष" की तीन ग़ज़लें











श्री आर.पी. शर्मा "महरिष" का जन्म 7 मार्च 1922 ई को गोंडा में (उ.प्र.) में हुआ। अपने जीवन-सफर के 85 वर्ष पूर्ण कर चुके श्री शर्मा जी की साहित्यिक रुचि आज भी निरंतर बनी हुई है। ग़ज़ल संसार में वे "पिंगलाचार्य" की उपाधि से सम्मानित हुए हैं।

प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी गज़ल संरचना-एक परिचय , ग़ज़ल-निर्देशिका,गज़ल-विधा ,गज़ल-लेखन कला ,व्यहवारिक छंद-शास्त्र ,नागफनियों ने सजाईं महफिलें (ग़ज़ल-संग्रह),गज़ल और गज़ल की तकनीक। पेश हैं उनकी तीन ग़ज़लें.

ग़ज़ल








नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये

चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये

जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये

तालियाँ भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये

लफ्ज़ ‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये.

बहरे-रमल


ग़ज़ल








सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये

इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये

नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये

लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये

'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.

चार फ़ाइलुन
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम


ग़ज़ल









नाकर्दा गुनाहों की मिली यूँ भी सज़ा है
साकी नज़र अंदाज़ हमें करके चला है

क्या होती है ये आग भी क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है

उस शख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तक़ल्लुफ़ से मिला है

पूछा जो मिज़ाज उसने कभी राह में रस्मन
रस्मन ही कहा मैंने कि सब उसकी दुआ है

महफ़िल में कभी जो मिरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फा है

क्यों उसपे जफाएँ भी न तूफान उठाएँ
जिस राह पे निकला हूँ मैं वो राहे-वफा है

पीते थे न 'महरिष, तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है .

बहरे-हजज़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन

22 11 22 11 22 11 22



एक बहुत महत्वपूर्ण लिंक है: यहाँ आप ग़ज़ल की बारीकियाँ सीख सकते हैं ये धारावाहिक लेख आर.पी शर्मा जी ने ही लिखा है क्लिक करें....ग़ज़ल लेखन..द्वारा आर.पी शर्मा "अभिव्यक्ति" पर .

Friday, January 30, 2009

दोस्त मोहम्मद खान की ग़ज़लें











जनाब दोस्त मोहम्मद खान राज्य सभा मे डिपटी डायरेक्टर की हैसीयत से काम कर रहे हैं और उर्दू में एम.फ़िल. किया है.शायरी के शौक़ीन हैं और कालेज के ज़माने से लिख रहे हैं. आज हम उनकी दो ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहे हैं.


ग़ज़ल






हम को जीने का हुनर आया बहुत देर के बाद
ज़िन्दगी, हमने तुझे पाया बहुत देर के बाद

यूँ तो मिलने को मिले लोग हज़ारों लेकिन
जिसको मिलना था, वही आया बहुत देर के बाद

दिल की बात उस से कहें, कैसे कहें, या न कहें
मसअला हमने ये सुलझाया बहुत देर के बाद

दिल तो क्या चीज़ है, हम जान भी हाज़िर करते
मेहरबाँ आप ने फरमाया बहुत देर के बाद

बात अशआर के परदे में भी हो सकती है
भेद यह 'दोस्त' ने अब पाया बहुत देर के बाद


ग़ज़ल








दिल के ज़ख्म को धो लेते हैं
तन्हाई में रो लेते हैं

दर्द की फसलें काट रहे हैं
फिर भी सपने बो लेते हैं

जो भी लगता है अपना सा
साथ उसी के हो लेते हैं

दीवानों -सा हाल हुआ है
हँस देते हैं, रो लेते हैं

'दोस्त' अभी कुछ दर्द भी कम है
आओ थोड़ा सो लेते हैं.

Tuesday, January 20, 2009

अमित रंजन गोरखपुरी की दो ग़ज़लें











उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हैं और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादतकर रहे हैं. जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करेंगे.उनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं आप सब के लिए.


ग़ज़ल









मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है

यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है

सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है

हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है

घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है

ग़ज़ल








हो तल्ख जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं

हरेक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ

कहीं फरेब न हो जा‌ए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ

गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ

इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ

सुलगती आग के धु‌एँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ

चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसु‌ओं को क‌ई बार बहा लेता हूँ

तमाम फिक्र-ए-मसा‌इल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ न‌ए दोस्त बना लेता हूँ

मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दु‌आ लेता हूं

तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ

जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ

खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ

Wednesday, January 14, 2009

बिरजीस राशिद आरफ़ी की ग़ज़लें











जुलाई, १९४३ को क़स्बा चाँद्पुर (देहरादून) में जन्मे जनाबे-बिरजीस राशिद आरफ़ी साहब को भारत के लगभग तमाम नामी-गिरामी शायरों की मौजूदगी में अपने फ़न का जादू जगा चुके हैं. "राशिद आरफ़ी साहब की ग़ज़लों का एक-एक शेर उनके चिन्तन की गहराई और विधा पर उनकी मज़बूत पकड़ का जादू सुनने-पढ़ने वालों के सर चढ़कर बोलने की क़ाबिलियत रखता है, यह मैंने उनका शेरी मजमूआ (काव्य-संग्रह) "जैसा भी है" पढ़कर महसूस किया है." -द्विजेन्द्र 'द्विज'
आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें:


ग़ज़ल






धूम ऐसी मचा गया कोहरा
जैसे सूरज को खा गया कोहरा

बन के अफ़वाह छा गया कोहरा
बंद कमरों मे आ गया कोहरा

तेरे पन्नों पे आज ऐ अख़बार
कितनी लाशें बिछा गया कोहरा

साँस के साथ दिल की रग-रग में
बर्फ़ की तह जमा गया कोहरा

अपने बच्चों से क्या कहे मज़दूर
घर का चूल्हा बुझा गया कोहरा

धूप कितनी अज़ीम नेमत है
चार दिन में बता गया कोहरा

उनके चेहरे पे सुरमई आँचल
चाँद पे जैसे छा गया कोहरा.

ग़ज़ल








रात भर ढूँढता फिरा जुगनू
सुब्ह को ख़ुद ही खो गया जुगनू

रोशनी सब की खा गया सूरज
चाँद ,तारे, शमा, दिया, जुगनू

तीरगी से यह जंग जारी रख
हौसला तेरा मरहवा जुगनू

क्यों न ख़ुश हो ग़रीब की बिटिया
उसकी मुठ्ठी में आ गया जुगनू

नूर तो हर जगह पहुँचता है
कूड़ियों में पला-बढ़ा जुगनू

धुँधले-धुँधले- से हो गए तारे
मिस्ले कन्दील जब उड़ा जुगनू

चेहरे बच्चों के बुझ गए 'राशिद'
माँ के आँचल में मर गया जुगनू.

ग़ज़ल








भूल पाए न थे ट्रेन का हादसा
आज फिर हो गया एक नया हादसा

जाने क्या हो गया आजकल दोस्तो
रोज़ होता है कल से बड़ा हादसा

बाप का साया और काँच की चूड़ियाँ
एक ही पल में सब ले गय हादसा

ऐ ख़ुदा, ईश्चर,गाड, वाहे गुरु
तेरे घर में भी होने लगा हादसा

मैं हूँ शायर, हक़ीक़त करूँगा बयाँ
साज़िशों को कहूँ, क्यों भला हादसा?

किसको फ़ुर्सत है,ये कौन सोचे यहाँ
हो गया किस गुनाह की सज़ा हादसा

तेरे घर के सभी लोग महफ़ूज़ हैं
भूल जा 'आरफ़ी' जो हुआ हादसा.



संपर्क: बिरजीस राशिद 'आरफ़ी',
ग्राम:हरिपुर ,ज़िला: देहरादून- 248142
पोस्ट:हरबर्टपुर,ज़िला: देहरादून(उत्तराखण्ड)
दूरभाष 01360-258728
09897448028

Saturday, January 10, 2009

धीरज आमेटा 'धीर' की दो ग़ज़लें










धीरज आमेटा 'धीर' राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले हैं. महज़ 26 साल की उम्र मे उम्दा ग़ज़लें कहते हैं .गुड़ग़ाव में एक हार्डवेयर कम्पनी में काम कर रहे हैं. जनाब सरवर आलम राज़ 'सरवर' के शागिर्द हैं .पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें.


ग़ज़ल








उमीदें जब भी दुनिया से लगाता है,
दिल ए नादाँ फ़क़त धोखे ही खाता है!

ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,
ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!

जो पैराहन तले नश्तर छिपाता है,
लहू इक दिन वो अपना ही बहाता है!

जो बचपन में तुझे उंगली थमाता था,
उसे तू आज बैसाखी थमाता है ?

जुदा है क़ाफ़िले से रहगुज़र जिस की,
वो ही इक दिन नया रस्ता दिखाता है!

तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!

हजज़
(1222 x3)


ग़ज़ल







कोई गुंचा टूट के गिर गया, कोई शाख गुल की लचक गयी,
कहीं हिज्र आया नसीब में, कहीं ज़ुल्फ़ ए वस्ल महक गयी!

जो अज़ीयतों की शराब थी, वो ही कागज़ों पे छलक गयी,
मेरे शेर ओ नग्में मचल उठे, मेरी शायरी ही बहक गयी!

कभी शम्स है तो क़मर कभी, कभी याद मर्ज़, कभी दवा,
कभी फूल बन के महक गयी, कभी आग बन के दहक गयी!

भले तीर दिल में चुभे रहें, मगर होँठ फिर भी सिले रहे,
न सही गयी तो क़लम के रस्ते,ख़लिश जिगर की झलक गयी!

तुझे कोई रन्ज-ओ-मलाल था, कि तेरी नज़र में सवाल था,
तेरे होँठ जिस को न कह सके,तेरी आँख फिर भी छलक गयी!

भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!

सर-ए-शाम घर को ये वापसी मेरे हम-नफ़स की ही देन है,
मुझे आते देखा तो राह तकती निगाह कैसी चमक गयी!

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मुतफ़ाइलुन x4

comments:

seema gupta said...
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!" सुंदर प्रस्तुती, दिले नादाँ की बात ही अजब है , कभी जरा सी बात पे दरिया बहता है और कभी हजारों गम चुपचाप सह जाता है....गज़ल अच्छी लगी"regards
January 12, 2009 3:02 AM
रंजन गोरखपुरी said...
बेहद उम्दा!! इन मुश्किल बहरों पे इतनी सहजता से सजी दोनों ग़ज़ल आपके फन को साफ़ दर्शाती है! धीर साहब की लाजवाब शायरी से पहले भी रूबरू हुए हैं और उनके ये शेर तो आज भी ज़हन में बिलकुल ताजा है:
नमी बाकी रहे आँखों में दामन तर नहीं करना,
रहे गौहर समंदर में उस बेघर नहीं करना
रसोई में रखे बर्तन तो ज़ाहिर है की खनकेंगे,
ज़रा सी बात पे हाल-ए-वतन बद्तर नहीं करना
(बिना इजाज़त पेश करने की गुस्ताखी के लिए मुआफी चाहता हूँ पर अपने आप को रोक नहीं पाया :) )बेशक धीर साहब आने वाले दौर के अनमोल गौहर हैं!! खुदा आपकी अर्शिया कलम को और बरक़त अता करे!!
January 12, 2009 3:18 AM
"अर्श" said...
पहली दफा ही इस ब्लॉग पे आया हूँ और धीर भाई की बेहतरीन ग़ज़लों को पढ़ने का मौका मिला ,उम्दा लेखा है बहोत खूब लिखा है इन्होने ढेरो बधाई कुबूल करें...अर्श
January 12, 2009 5:44 AM
श्रद्धा जैन said...
Dheer ki gazlen hamesha hi padi haishayad hi koi gazal ho jo padi nahi homagar inke gazlen bolne ka andaaz gazal ko chaar chand laga deta haiguzarish hai ki inki hi aawaz main inke pasand ke kuch sher sunaye jaaye dono hi gazal bhaut shaandaar rahi khaskar ye sherतुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
January 12, 2009 6:24 AM
Abhishek Krishnan said...
Indeed its very nice "Ghazal". I don't know much urdu but I always appreciate/understand when he explained his "Ghazals" to me. Keep writing..
January 12, 2009 7:17 AM
नीरज गोस्वामी said...
सुभान अल्लाह....इस उम्र में ये तेवर...खुदा नजरे बद से बचाए...कमाल की शायरी...नीरज
January 12, 2009 8:49 AM
Manish Kumar said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!bahut khoob likha hai dheer ne
January 12, 2009 8:50 AM
गौतम राजरिशी said...
पढ़ कर बस उफ़-उफ़ किये जा रहा हूं...पहली बार पढ़ रहा हूं धीर जी कोदूसरी गज़ल तो खास कर-एक-एक शेर कहर ढ़ाता हुआ है...और पढ़वायें इनको सतपाल जीदुसरी गज़ल के बहर पर कुछ जानना चाहता था.क्या यही "रज़ज" भी है २२१२ वाली?
January 12, 2009 9:40 AM
Udan Tashtari said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!--वाह!! बहुत बेहतरीन!
January 12, 2009 4:14 PM
NirjharNeer said...
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
bahot khoob dheer bhaini:sandeh khoobsurat bayangii kabil-e-daad
January 12, 2009 9:05 PM
सतपाल said...
गौतम जी,ये बहरे-कामिल है..एक मशहूर ग़ज़ल आपने सुनी होगी..वो जो हममे तुम मे करार था, तुझे याद हो कि न याद हो..इसी बहर मे है.बहुत खूबसूरत बहर है.
January 12, 2009 9:26 PM
सतपाल said...
Gautam ji,aapne jo savaal poocha hai us ka samadhaan bahut zaroori hai, ki kya rajaz(2212) or behre-kaamil(11212)ke arkaan alag hai lekin agar hum kahen ke 2 laghu ki jagah ek guru ka istemaal ho sakta hai to phir kya 2212 or (11)212 barabar nahiN haiN.ye ghalat paRaya jata hai ki do laghu ki jagah ek guru lete haiN, ye shoot kissi -kissi bahar me hai, koii niyam nahi. agar ye nizam hota to bahre-kaamil ki kya zaroorat thee. Pran ji ne sahity shilpi par samjhane ke liye faailaatun ko 21211 likh dia tha maine vahaN savaal bhi uthaya tha.mai phir kahta hooN ki do laghu ki jagah guru ki छoot har behr me nahi hai. jiska udahran aapke saamne hai. ab aap khud dekheN..ye misra paRiye..vo jo ham me tum me karaar tha tujhe yaad ho ki na yaad ho( kaamil)...iske baad ise paRen..ye dil ye paagal dil mera kyon bujh gya aawargee..( rajaz)dono ki lay me farq se sab zaahir ho jata hai.
January 13, 2009 1:28 AM