Tuesday, January 20, 2009
अमित रंजन गोरखपुरी की दो ग़ज़लें
उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हैं और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादतकर रहे हैं. जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करेंगे.उनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं आप सब के लिए.
ग़ज़ल
मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है
यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है
सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है
हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है
घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है
ग़ज़ल
हो तल्ख जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं
हरेक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ
कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ
गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ
इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ
सुलगती आग के धुएँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ
चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसुओं को कई बार बहा लेता हूँ
तमाम फिक्र-ए-मसाइल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ नए दोस्त बना लेता हूँ
मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दुआ लेता हूं
तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ
जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ
खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ
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18 comments:
DONO HI GAZAL BAHOT HI UMDA LIKHA HAI GORAKHPURI SAHAB NE ... DHERO BADHAI AAP DONO KO..
REGARDS
ARSH
यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है
इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ
"दोनों गज़लों मे गजब की उम्मीद और उत्साह नज़र आता है....ये शेर मुझे कुछ खास ही पसंद आए , संजीदा और सुंदर लेखन..."
Regards
आभार रंजन गोरखपुरी जी बेहतरीन गज़लें प्रस्तुत करने का.
गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ
बेहतरीन गज़लें एक से बढ़ कर एक...........शानदार पेशगी, सुंदर भाव
Bhai Satpal ji!! ye ranjan saab ka deewaan kab chap raha hai!! Sirf do ghazlon se kaam nahi chal raha hai ab!!
Dono Ghazlen behad pasand aayin!! Please add to the collection!!
umda kya suroor hai........
ye fir se nayi subeh hai ......
aur ranjan dono hathon se is subeh ka istakbaal kar raha hai.........
Dono hi ghazalen bahut achhi hain.aap is blog par achchhi achchhi ghazalen padane ko de rahe hain, Badhai.Amit ranjan gorakhpuri ko bhi sunder ghazalen likhane ke liye badhai.
रंजन एक ऐसे शख्स है जिनसे इस कम्पूटर के परदे पे दोस्ती हुई ओर पहली उनकी गजल ही इस दोस्ती का सबब थी .जमीन से जुड़ी हुई उनकी गजले सचमुच किसी असली शायर सा अहसास देती है....असल जिंदगी में भी वे एक ऐसे इंसान की तरह है जो आप पर रिश्तो की खातिर सब कुछ लुटा दे.....शायद शायरों की फितरत ही ऐसी होती है.....उनकी गजले कई है जो जेहन में आज भी ताजा है ......यहाँ उन्हें देखकर दिली खुशी हुई
bahut khoob ranjan sahab.
दोनों गज़लें और दोनों के तमाम शेर...किसकी तारीफ करूं,किसे छोड़ूं?
अमित रंजन जी को सलाम और उन्हें प्ढ़ने की इच्छा और और बढ़ गयी है.खास कर इनके ये शेर "यहां हाथों में है फिर से तिरंगा/वहां लाचार सी दहशत खडी है" और "कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से/मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ" और "तमाम फिक्र-ए-मसाइल हैं मुझसे वाबस्ता/कलम से रोज़ नए दोस्त बना लेता हूँ" तो बस कमाल के हैं.
और सतपाल जी आप को फिर से धन्यवाद इन नायाब गज़लों से वास्ता कराने के लिये.जैसा कि मैं ने पहले भी कहा था कि ये प्यासे को पानी पिलाने वाला पूण्य का काम कर रहे हैं आप...
पत्रिका का पूरा पष्ठ शानदार बन पड़ा है और विशेष कर इन क्लासिक संग्रह से
हरेक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ
sher apne aap meN Amit saHeb ke fan kaa aayinaa hai. allah kare zor e kalam aur ziyad'ah!!
dono hi sher bahut hi umda likhe hain aap ne.Dher sari Subh kamnaye aapko...
Regards
Vinay rai
गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ
wah kya baat hai
इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ
सुलगती आग के धुएँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ
चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसुओं को कई बार बहा लेता हूँ
bahut kamaal ka sher kaha hai
तमाम फिक्र-ए-मसाइल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ नए दोस्त बना लेता हूँ
मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दुआ लेता हूं
aap hi kahe sakte hain ji aisa sir ji
lage raho ranjan saheb
बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार सतपाल जी
Janaab Ranjan kee dono gazlon
ne khoob ranjan kiyaa hai.Bahut
achchhe ashaar kahte hain ve.
Unkee pahlee gazal kee zameen par
meree bhee ek gazal hai.gazal ke
matla aur maqta hain--
Tumhari yaad hee tumse bhalee hai
jo gam mein saath dene aa gayee hai
-------------
Gazal kahta hoon unkaa dhyaan karke
yehee e "Pran" apnee aartee hai.
ये खुदा की रहमत और सतपाल जी की नवाज़िश है जो नाचीज़ को एक बार फिर से इस लाजवाब महफ़िल में पेश किया!! मैं अदब-ओ-सुखन के तमाम कद्रदानों का शुक्रगुज़ार हूं जिन्होने हमारे सादे से कलामों को पसंद किया! आपकी हौसला अफ़ज़ाई हमें और बेहतर लिखने की रौशनी देगी! शुक्रिया .. बेहद शुक्रिया!!
रंजन
मेरे को दूसरी वाली गज़ल बहुत ही ज़्यादा पसंद आई
वाकई में मज़ा आ गया।
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