1957 में हरदोई(उ.प्र) में जन्में अनमोल शुक्ल पेशे से सिविल इंजीनियर हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इनकी इस ग़ज़ल ने मुझे बहुत प्रभावित किया जिसे आज हम पेश करेंगे। अच्छे शे’र की बड़ी सीधी सी पहचान है कि इन्हें सुनकर बरबस मुँह से वाह निकल जाती है। एक ग़ज़ल संग्रह भी आपका शाया हो चुका है जिसे ये जल्द मुझ तक पहुँचा रहे हैं तो फिर कुछ और ग़ज़लों इसी मंच पर सांझा करेंगे। इनकी कई ग़ज़लें ग़ज़ल संकलनों में शामिल की गईं हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" में भी कुछ ग़ज़लें शाया हो चुकी हैं। सो मुलाहिज़ा कीजिए ये खूबसूरत ग़ज़ल-
अनमोल शुक्ल
आपने किस्मत में मेरी क्यों लिखा ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र
हमसफ़र,हमराज़ हो,हमदर्द हो या हमख़याल
फिर तो कट जाता है मीलों दूर तक लंबा सफ़र
भीड़ चारों ओर जितनी है यहाँ रह जाएगी
मुझको भी करना पड़ेगा एक दिन तनहा सफ़र
मंज़िलों की, काफ़िलों की, हौसलों की बात कर
क्या हुआ जो बीच रस्ते में तेरा टूटा सफ़र
जिन परिंदों के परों के हौसले ज़ख्मी रहे
उनसे हो पाया न कोई भी, कभी ऊँचा सफ़र
मुश्किलों, दुश्वारियों से जूझते "अनमोल" ने
जितना भी काटा है हँसकर, बोलकर काटा सफ़र
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
अनमोल जी से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं-09412146255
अब आज के दूसरे शायर हैं श्री वीरेन्द्र जैन इन्होंने बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में काम किया है। आप जनवादी लेखक संघ भोपाल की इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं और व्यंग्य की चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं और ग़ज़ल भी बाखूबी कहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
पिछले पोस्ट में सदा अम्बालवी की ग़ज़लें प्रकाशित की तो सोचा इस बार सबको मेल नहीं करूँगा , लोग चिड़ जाते हैं ऐसे स्पैम मेल से। जब कामेंट देखे तो तीन। द्विज जी कहने लगे ब्लाग तो अच्छा है लेकिन कामेंट ३ ही हैं। फिर अचानक ओशो की किताब पढ़ रहा था जिसमें एक रोचक कहानी थी कि एक बार एक इश्तिहार वाला किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास शाम के वक़्त विज्ञापन लेने गया तो मालिक ने कहा - भई हमारी कंपनी तो स्थापित हो चुकी है। हम क्यों विज्ञापन दें, तो थोड़ी देर बाद चर्च के घंटे की आवाज़ सुनाई दी तो वो आदमी तपाक से बोला हज़ूर ये चर्च कोई २०० साल पुरानी है लेकिन फिर भी घंटा बजा के चेताती है कि आ जाइए। सो यहाँ भी कुछ ऐसा ही है मेल करना भी घंटा बजाने जैसा ही है। प्रसार के साथ-साथ प्रचार भी ज़रूरी है। खैर मुलाहिज़ा कीजिए वीरेन्द्र जी की ये ग़ज़ल
वीरेन्द्र जैन
हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है
न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है
समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है
तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है
जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
शायर का पता:
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (म.प्र) 462023
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629
Email- j_virendra@yahoo.com
Tuesday, June 22, 2010
Tuesday, June 15, 2010
सदा अम्बालवी की ग़ज़लें
राजेन्द्र पाल सिंह उर्फ़ सदा अम्बालवी की तीन ग़ज़लें आज शाया कर रहे हैं। आप पंजाब एंड सिंध बैंक में कायर्रत हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह शाया हो चुके हैं और कुछ ग़ज़लें अच्छे ग़ज़ल गायकों ने भी गाईं हैं और पत्र-पत्रिकाओं में आप अकसर छपते रहते हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह के पेश-लफ़्ज़ में आप ने कहा है-"ग़ज़ल की पाबंदियाँ अकसर शायरों को खलती रही हैं। इसमें कोई शक़ नहीं ग़ज़ल के शे’र घड़ने में मेहनत और कविश दरकार है। बहुत से शायरों ने इस मेहनत से बचने के लिए ग़ज़ल के उसूलों को दरकिनार कर दिया और इसे जदीदियत का नाम दे दिया जबकि सच्चाई ये है कि ग़ज़ल के उसूलों को निभाते हुए और उसके मिज़ाज को कायम रखते हुए भी उसमें नये रंग भरने की गुंज़ाइश है"ये बात बिल्कुल सही भी है। ग़ज़ल का हुस्न इसके उसूलों से ही है। जब तक कोई मिसरा बहर में ढल नहीं जाता उसमें कशिश पैदा नहीं होती। अगर बिना बहर के कहना है तो नज़्म कह लें ग़ज़ल ही क्यों । जदीदियत ख़यालों मे होनी चाहिए। आप ग़ज़ल की बुनियाद (अरूज़)के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते , इसके उपर महल अपनी मर्ज़ी का बना सकते हो। उर्दू ज़बान में अलग-अलग भाषाओं की मिठास है और इसका अपना एक ख़ास मिज़ाज है। इसी मिज़ाज को अपने दामन में समेटे हुए हाज़िर हैं अम्बालवी साहब की ये ग़ज़लें-
शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे
एक
यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई
क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई
कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई
लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई
इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई
क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई
शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई
क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई
*विसाले-हक़--प्रभु मिलन
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
दो
दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया
वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया
लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया
बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया
ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया
उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया
उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
तीन
दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए
लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए
ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए
ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए
रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22
हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी
शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे
एक
यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई
क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई
कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई
लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई
इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई
क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई
शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई
क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई
*विसाले-हक़--प्रभु मिलन
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
दो
दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया
वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया
लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया
बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया
ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया
उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया
उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112
तीन
दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए
लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए
ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए
ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए
रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए
रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22
हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी
Wednesday, June 9, 2010
पाकिस्तान के शायर- तौसीफ़ तबस्सुम
आज हम पाकिस्तान के प्रमुख शायरों में से एक जनाब तौसीफ़ तबस्सुम की कुछ ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।आम आदमी की मुसीबतें पूरी दुनिया में एक जैसी ही हैं । पाकिस्तान तो हिंदोस्तान का टूटा हुआ बाज़ू है तो वहाँ के दुख-दर्द तो और भी हमारे क़रीब हैं। इधर भी शायर ज़िंदगी से खफ़ा है तो उधर भी। इस इधर-उधर की बात पर नूर मुहम्मद नूर के ये शे’र देखिए-
ज़रा-सी मुहब्बत, ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी, वही कम उधर भी
उखड़ता हुआ 'नूर' इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी
और ज्ञान प्रकाश विवेक का शे’र इसी मंज़र को कुछ यूँ बयां करता है-
हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है
खै़र!बात तो तौसीफ़ तबस्सुम साहब की हो रही थी। इनको पाकिस्तान का अल्लामा डा. मुहम्मद इक़बाल एवार्ड हासिल हो चुका है। इनके इस खूबसूरत शे’र -
पहली बार सफ़र पर निकले, घर की खुशबू साथ चली
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का
-के साथ हाज़िर हैं ये ग़ज़लें-
एक
यही हुआ कि हवा ले गई उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे
बस एक गूँज है जो साथ-साथ चलती है
कहाँ ये छोड़ गए फ़ासले सदा के मुझे
चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता
ये क्या किया के हवाले किया हवा के मुझे
हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे
बुलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे
हज़ार बार खुला ज़ह्न बादबां की तरह
नुकूशे-पा न मिले उम्रे-बाद पा के मुझे
मैं अपनी मौज़ में डूबा हुआ जज़ीरा हूँ
उतर गया है समंदर बुलन्द पा के मुझे
बहरे- मुजास
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
दो
ग़म का क्या इज़हार करें हम,दर्द से ज़ब्त ज़ियादा है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है
जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है
ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है
दिलज़दगाँ* की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है
दिलज़दगाँ-*दुखियों
सात फ़ेलुन+एक फ़े
तीन
कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल कफ़-ए-दरिया* हुआ है
पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है
महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है
हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर*
"तबस्सुम" ये तलाश-ए-रिज़्क क्या है
कफ़-ए-दरिया-नदी की हथेली,ताइर-पक्षी
हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
चार
और आगे कहाँ तलक जाएँ
बैठ जाएँ जो पाँव थक जाएँ
आस्मां पर खिले गुले-महताब
रास्ते पत्तियों से ढँक जाएँ
कोई मद्दम करे न साज़ की लय
दिल-ब-दिल लोग सुबह तक जाएँ
ये ज़मीं क्यों क़दम पकड़ती है
उठ के किस तरह यक-ब-यक जाँए
कुछ तो कम हो फ़िराक़ का सहरा
आसुओं से कहो छलक जाएँ
दस्ते-जल्लाद क्यों है नींद के पास
गर्दनें यक-ब-यक ढुलक जाएँ
और कुछ तेज़ हो ये आतिशे-ग़म
जिस्म तप जाएँ रुख़ चमक जाएँ
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
Wednesday, June 2, 2010
श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी को श्रदाँजलि
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद
30 अप्रैल को, श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी जी की पुण्य तिथी थी. उनकी ग़ज़लों का प्रकाशन हमारी तरफ़ से उस अज़ीम शायर को श्रदाँजलि है.शायर अपने शब्दों मे हमेशा ज़िंदा रहता है और सागर साहब की शायरी से हमें भी यही आभास होता है कि वो आज भी हमारे बीच में है.सागर साहेब 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)मे पैदा हुए थे और 30 अप्रैल, 1996 को इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनकी शायरी आज भी हमारे साथ है और साग़र साहेब द्वारा जलाई हुई शम्मा आज भी जल रही है, उस लौ को उनके सपुत्र श्री द्विजेंद्र द्विज जी और नवनीत जी ने आज भी रौशन कर रखा है.साग़र साहेब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को हम प्रकाशित कर रहे हैं:
एक
बेसहारों के मददगार हैं हम
ज़िंदगी ! तेरे तलबगार हैं हम
रेत के महल गिराने वालो
जान लो आहनी दीवार हैं हम
तोड़ कर कुहना रिवायात का जाल
आदमीयत के तरफ़दार हैं हम
फूल हैं अम्न की राहों के लिए
ज़ुल्म के वास्ते तलवार हैं हम
बे—वफ़ा ही सही हमदम अपने
लोग कहते हैं वफ़ादार हैं हम
जिस्म को तोड़ के जो मिल जाए
ख़ुश्क रोटी के रवादार हैं हम
अम्न—ओ—इन्साफ़ हो जिसमें ‘साग़र’!
उस फ़साने के परस्तार हैं हम
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 22/112
दो
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें
सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें
हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें
झूट का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में ख़ंजर देखें
ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँओं में आकर देखें
चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें
उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें
रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112
तीन
जिसको पाना है उसको खोना है
हादिसा एक दिन ये होना है
फ़र्श पर हो या अर्श पर कोई
सब को इक दिन ज़मीं पे सोना है
चाहे कितना अज़ीम हो इन्साँ
वक़्त के हाथ का खिलोना है
दिल पे जो दाग़ है मलामत का
वो हमें आँसुओं से धोना है
चार दिन हँस के काट लो यारो!
ज़िन्दगी उम्र भर का रोना है
छेड़ो फिर से कोई ग़ज़ल ‘साग़र’!
आज मौसम बड़ा सलोना है
खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
चार
शाम ढलते वो याद आये हैं
अश्क पलकों पे झिलमिलाये हैं
दिल की बस्ती उजाड़ने वाले
मेरी हालत पे मुस्कुराये हैं
कोई हमदम न हमनवा कोई
हर तरफ़ रंज-ओ-ग़म के साये हैं
बाग़-ए-दिल में बहार आई है
ज़ख़्म गुल बन के खिलखिलाये हैं
वक़्त-ए-मुश्किल न कोई काम आया
हमने सब दोस्त आज़माये हैं
क़िस्सा-ए-ग़म सुनायें तो किसको
आज तो अपने भी पराये हैं
इन बहारों पे ऐतबार कहाँ
हमने इतने फ़रेब खाये हैं
प्यार की रहगुज़र पे ए ‘साग़र’!
हम कई मील चल के आये हैं
खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
Thursday, May 27, 2010
अंतिम क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
इस तरही मुशायरे में तक़रीबन ३० शायर-शाइराओं ने हिस्सा लिया। मिला-जुला सा अनुभव रहा । देश-विदेश से ३० शायर एक जगह आकर इकट्ठा हों वो भी लगभग मुफ़्त में ,बताओ और क्या चाहिए। कुछ कच्चे-पक्के शे’र, नये-पुराने शायरों ने सबके सामने रखे हैं। अनुभव और प्रयास का अनूठा संगम था ये मुशायरा और अब अंतिम क़िस्त में लीजिए पहले आदरणीय श्री द्विजेन्द्र द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो और सुंदर शे’रों के साथ इस बेहद खूबसूरत शे’र को भी अपने दामन में समेटे हुए है-
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
द्विजेन्द्र द्विज
जोग कठिन अभ्यास रे जोगी
तू स्वादों का दास रे जोगी
यह तेरा रनिवास रे जोगी
जप-तप का उपहास रे जोगी
हर सुविधा तुझ पास रे जोगी
धत्त तेरा सन्यास रे जोगी
काहे का उल्लास रे जोगी
जीवन कारावास रे जोगी
रूहों से चिपका रहता है
जन्मों का इतिहास रे जोगी
नामों पर भी उग आती है
गुमनामी की घास रे जोगी
बीच भँवर में जैसे किश्ती
जीवन का हर श्वास रे जोगी
जीवन के कोलाहल में भी
सन्नाटों का वास रे जोगी
मन-मंदिर में हों जब साजन
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
साथ मिलन के क्यों रहता है
बिरहा का आभास रे जोगी
बुझ पाई है बूँदों से कब
यह मरुथल की प्यास रे जोगी
क्या जीवन क्या जीवन-दर्शन
मर जाए जब आस रे जोगी
मैं अपना प्रयास भी आप सब के सामने रख रहा हूँ और डर भी रहा हूँ कि लोग कहेंगे दूसरों के शे’र तो काट देता है लेकिन अपने नहीं देखता । ये मेरा सौभाग्य है कि द्विज जी के साथ मेरी ग़ज़ल शाया हुई है। खै़र ! मुलाहिज़ा कीजिए-
सतपाल ख़याल
आए लबों पर श्वास रे जोगी
छूटा कारावास रे जोगी
दशरथ सी लाचार है नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
शाखों से रूठे हैं पत्ते
किसको किसका पास रे जोगी
रिशतों के पुल टूट चुके हैं
दूर वसो या पास रे जोगी
बस जी का जंजाल है दुनिया
अच्छा है सन्यास रे जोगी
नील , सफ़ैद और भगवा काले
सब रंग उसके दास रे जोगी
दुख-संताप, पाप के जंगल
जीवन भर बनवास रे जोगी
मुँह में राम बगल में बरछी
किसका अब विश्वास रे जोगी
राम भरोसे पलते दोनों
इक निर्धन,इक घास रे जोगी
दुनिया में हर चीज़ की जड़ मन में ही रहती है चाहे वो सन्यास हो या फिर दुनियादारी। मन से ही आदमी जोगी या भोगी होता और इस मन को तो संत और महापुरुष भी खोजते रहे लेकिन इसका कोई सिरा शायद ही किसी के हाथ लगा हो। योग भगवा , सफ़ेद या नीले कपड़े पहनने से नहीं मिलता योग तो मन को जीत कर ही मिलता है। इस मुशायरे का अंत मैं इस शब्द के साथ करना चाहता हूँ जो सुनने लायक है। शायरी और वाणी में यही फ़र्क़ है । वाणी गुरओं और संतो के मुख से निकलती है और संत अपनी कथनी-करनी के पक्के होते हैं लेकिन शायर तो हम जैसे ही होते हैं। सरवण करो ये शब्द-
इस मन को कोई खोजो भाई
तन छूटे मन कहाँ समाई
हिस्सा लेने वाले तमाम शायरों का और पाठकों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। कोई ग़लती हो तो मुआफ़ी चाहता हूँ। मैं सब शायरों से ये अनुरोध करता हूँ कि वो अपने अनुभव हमसे बाँटें और इस समापन पर अपनी हाज़री ज़रूर दें ।
Wednesday, May 26, 2010
अंतिम क़िस्त से पहले दो तरही ग़ज़लें और
कल शाम तक अंतिम क़िस्त शाया हो जायेगी लेकिन अंतिम क़िस्त से पहले ये दो ग़ज़लें और मुलाहिज़ा कीजिए-
पूर्णिमा वर्मन
सब कुछ तेरे पास रे जोगी
काहे आज उदास रे जोगी
मुशकिल रहना देस बेगाने
अपना पर अभ्यास रे जोगी
खाना, पानी, गीत बेगाने
अपनी मगर मिठास रे जोगी
दूर नगर में बसना है तो
रख उसका विश्वास रे जोगी
कान में कुंडल, हाथ में माला
कौन चला बनवास रे जोगी
संजीव सलिल
कौन चला बनवास रे जोगी
खु़द पर कर विश्वास रे जोगी
भू-मंगल तज, मंगल-भू की
खोज हुई उपहास रे जोगी
फ़िक्र करे हैं सदियों की, क्या
पल का है आभास रे जोगी?
अंतर से अंतर मिटने का
मंतर है चिर हास रे जोगी.
माली बाग़ और तितली भँवरे
माया है मधुमास रे जोगी.
जो आया है वह जायेगा
तू क्यों आज उदास रे जोगी.
जग नाकारा समझे तो क्या
भज जो खासमखास रे जोगी.
Tuesday, May 25, 2010
आठवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
इस क़िस्त कि शुरूआत इस ग़ज़ल से कर रहे हैं ,जिसमें जगजीत सिंह ने जोगी शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में पेश किया है। ठीक वैसे ही जैसे शायरों ने इस मुशायरे में जोगी को नचाया।
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
नये-पुराने शायरों को हमने एक साथ शाया किया है ताकि प्रयास, अनुभव से सीख सके और अनुभव, नये का मार्गदर्शन और स्वागत कर सके। इस तरही मुशायरे की अंतिम क़िस्त 27 तारीख को शाया होगी , जिसमें आदरणीय द्विज जी की और मुझ नाचीज़ की ग़ज़ल शाया की जाएगी। आप सब समापन सामारोह पर सादर आमंत्रित हैं। हर शायर जो यहाँ पेश हुआ है उससे अपेक्षा है कि वो समापन पर ज़रूर पधारे । लीजिए आठवीं क़िस्त आप सब की नज़्र कर रहा हूँ-
विनोद कुमार पांडेय
बैठ मेरे तू पास रे जोगी
बात कहूँ कुछ खास रे जोगी
सच्चाई है, इसको जानो
हर दिल रब का वास रे जोगी
रंग बदलते इंसानों का
कौन करे विश्वास रे जोगी
अपनों ने ही गर्दन काटी
देख ज़रा इतिहास रे जोगी
आज ग़रीबी के आगे तो
मंद पड़े उल्लास रे जोगी
देख तमाशा इस दुनिया का
मत हो ऐसे उदास रे जोगी
फैंकों अपनी झोला-झंडी
हो जाओ बिंदास रे जोगी
कुमार ज़ाहिद
मत रख तू उपवास रे जोगी
झूठी है हर आस रे जोगी
गिरह लगाकर याद रखे जो
उसका क्या विश्वास रे जोगी
चाहे जिसकी चाह छुपी हो
है मिथ्या संन्यास रे जोगी
मनका- मनका, इनका- उनका
मन का मिटा न त्रास रे जोगी
चल ‘ज़ाहिद’ से मिलकर पूछें
मिटती कैसे प्यास रे जोगी
कवि कुलवंत सिंह
किसको है संत्रास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
रब के दरस को मारा फिरता
कैसी है यह प्यास रे जोगी
धरती ढ़ूंढी,अंबर ढ़ूंढ़ा
उसको पाया पास रे जोगी
लाख जतन कर के मैं हारा
कैसे बुझे यह प्यास रे जोगी
जीवन में जब तूफां आया
डोल चला विश्वास रे जोगी
हर पल प्रभु लीला मैं गाता
कब आयें प्रभु पास रे जोगी
गौतम सचदेव
यह कैसा संन्यास रे जोगी
निशि-दिन, भोग-विलास रे जोगी
मुज़रिम ये उजले कपड़ों में
जाएँ न कारावास रे जोगी
मठ के ऊपर भजन आरती
नीचे है रनिवास रे जोगी
क़ातिल को ज़न्नत मिलती है
ख़ूनी यह विश्वास रे जोगी
हत्यारा मानव, मानव का
यह ही है इतिहास रे जोगी
जोग रमाये जा पर जग का
मत कर सत्यानास रे जोगी
पाखंडों की चादर ओढ़े
धर्म हुए बकवास रे जोगी
चैन सिंह शेखावत
क्यों जाना बनवास रे जोगी
वो है इतने पास रे जोगी
अंधियारों से वह जूझेगा
जिसके ह्रदय उजास रे जोगी
शोर उठेगा दूर- दूर तक
जब टूटे विश्वास रे जोगी
जीवन जिनसे जीत न पाया
अन्न वस्त्र आवास रे जोगी
कुछ न बचा बस मेरे हिस्से
गिनती के कुछ श्वास रे जोगी
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