Wednesday, June 9, 2010

पाकिस्तान के शायर- तौसीफ़ तबस्सुम















आज हम पाकिस्तान के प्रमुख शायरों में से एक जनाब तौसीफ़ तबस्सुम की कुछ ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।आम आदमी की मुसीबतें पूरी दुनिया में एक जैसी ही हैं । पाकिस्तान तो हिंदोस्तान का टूटा हुआ बाज़ू है तो वहाँ के दुख-दर्द तो और भी हमारे क़रीब हैं। इधर भी शायर ज़िंदगी से खफ़ा है तो उधर भी। इस इधर-उधर की बात पर नूर मुहम्मद नूर के ये शे’र देखिए-

ज़रा-सी मुहब्बत, ज़रा-सी शराफ़त
वही कम इधर भी, वही कम उधर भी

उखड़ता हुआ 'नूर' इंसानियत का
वही दम इधर भी वही दम उधर भी

और ज्ञान प्रकाश विवेक का शे’र इसी मंज़र को कुछ यूँ बयां करता है-

हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है

खै़र!बात तो तौसीफ़ तबस्सुम साहब की हो रही थी। इनको पाकिस्तान का अल्लामा डा. मुहम्मद इक़बाल एवार्ड हासिल हो चुका है। इनके इस खूबसूरत शे’र -

पहली बार सफ़र पर निकले, घर की खुशबू साथ चली
झुकी मुँडेरें, कच्चा रास्ता, रोग बने रस्ते भर का


-के साथ हाज़िर हैं ये ग़ज़लें-

एक

यही हुआ कि हवा ले गई उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे

बस एक गूँज है जो साथ-साथ चलती है
कहाँ ये छोड़ गए फ़ासले सदा के मुझे

चिराग़ था तो किसी ताक़ ही में बुझ रहता
ये क्या किया के हवाले किया हवा के मुझे

हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे

बुलन्द शाख़ से उलझा था चाँद पिछले पहर
गुज़र गया है कोई ख़्वाब सा दिखा के मुझे

हज़ार बार खुला ज़ह्‌न बादबां की तरह
नुकूशे-पा न मिले उम्रे-बाद पा के मुझे

मैं अपनी मौज़ में डूबा हुआ जज़ीरा हूँ
उतर गया है समंदर बुलन्द पा के मुझे

बहरे- मुजास
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

दो

ग़म का क्या इज़हार करें हम,दर्द से ज़ब्त ज़ियादा है
अब उस मौज़ का हाल लिखेंगे जिसमें दरिया डूबा है

जो भी गुजरनी है आँखों पर काश इस बार गुज़र जाये
सर्द हवा में जुल्म तो ये है पत्ता-पत्ता गिरता है

ख़्वाबों की सरहद पे हुआ है ख़त्म सफ़र बेदारी का
इक दिन शायद आन मिले वो शख़्स जो मुझमें रहता है

दिलज़दगाँ* की भीड़ में जैसे हर पहचान अधूरी हो
तेरी आँखें मेरी हैं, पर मेरा चेहरा किसका है

दिलज़दगाँ-*दुखियों

सात फ़ेलुन+एक फ़े

तीन

कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल कफ़-ए-दरिया* हुआ है

पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है

महकते हैं जहाँ खुशबू के साये
तसव्वुर भी वहाँ तस्वीर-सा है

हवा से ख़ाक पर गिरता है ताइर*
"तबस्सुम" ये तलाश-ए-रिज़्क क्या है

कफ़-ए-दरिया-नदी की हथेली,ताइर-पक्षी

हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

चार

और आगे कहाँ तलक जाएँ
बैठ जाएँ जो पाँव थक जाएँ

आस्मां पर खिले गुले-महताब
रास्ते पत्तियों से ढँक जाएँ

कोई मद्दम करे न साज़ की लय
दिल-ब-दिल लोग सुबह तक जाएँ

ये ज़मीं क्यों क़दम पकड़ती है
उठ के किस तरह यक-ब-यक जाँए

कुछ तो कम हो फ़िराक़ का सहरा
आसुओं से कहो छलक जाएँ

दस्ते-जल्लाद क्यों है नींद के पास
गर्दनें यक-ब-यक ढुलक जाएँ

और कुछ तेज़ हो ये आतिशे-ग़म
जिस्म तप जाएँ रुख़ चमक जाएँ

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

17 comments:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

जनाब तौसीफ़ तबस्सुम के कलाम से रू ब रू होना अपने आप में ज़ियारत जैसा है ।
वाह वाह ! क्या उस्तादाना कलाम है !
एक एक ग़ज़ल दो दो चार चार दफ़ा नहीं पढ़ लेंगे तब तक तश्नगी-ए-सुख़न और बढ़ती रहेगी ।
सतपालजी , आपकी श्रम-साधना और श्रेष्ठ सृजन के प्रति समर्पण भाव को प्रणाम है !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

आचार्य उदय said...

आईये सुनें ... अमृत वाणी ।

आचार्य जी

विनोद कुमार पांडेय said...

सतपाल जी तौसीफ़ जी जैसे महान शायर के बारे में जानना सुखद रहा है..सुंदर ग़ज़ल की प्रस्तुति...प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

Shekhar Kumawat said...

वाह वाह

प्रस्तुति...प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

dheer said...

Namaste Satpal saHeb,
aapkaa jinta shukriya karuN kam hai. dil baagh baagh ho gayaa itne khoobsoorat ashaar dekh kar!
kis kis sher kii taareef kee jaaye,

यही हुआ कि हवा ले गई उड़ा के मुझे
तुझे तो कुछ न मिला ख़ाक में मिला के मुझे!

हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे!

हज़ार बार खुला ज़ह्‌न बादबां की तरह
नुकूशे-पा न मिले उम्रे-बाद पा के मुझे!

waah!

मैं अपनी मौज़ में डूबा हुआ जज़ीरा हूँ
उतर गया है समंदर बुलन्द पा के मुझे!

doosaree ghazal ka ik ik sher qiyaamat hai!

कभी ख़ुद मौज साहिल बन गयी है
कभी साहिल कफ़-ए-दरिया* हुआ है

पलट कर आयेगा बादल की सूरत
इसी ख़ातिर तो दरिया बह रहा है

कुछ तो कम हो फ़िराक़ का सहरा
आसुओं से कहो छलक जाएँ

और कुछ तेज़ हो ये आतिशे-ग़म
जिस्म तप जाएँ रुख़ चमक जाएँ!

-Dheeraj Ameta "dheer"

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया!

Urmi said...

वाह बहुत बढ़िया लगा! उम्दा ग़ज़ल! बेहतरीन प्रस्तुती!

kavi kulwant said...

Touseef saheb ki ghazalen dil ko choo gayin..

तिलक राज कपूर said...

बेहतरीन कलाम।
हो एक अदा तो उसे नाम दूँ तमन्ना का
हज़ार रंग हैं इस शो’ला-ए- हिना के मुझे
कुछ खटक रहा है। शायद कुछ टंकण त्रुटि है मिस्रा-ए-सानी में।

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

रूह परवर है यह तौसीफ तबस्सुम का कलाम
उनके अशआर मेँ है मेहरो मुहब्बत का पयाम

संजय भास्‍कर said...

सुंदर ग़ज़ल की प्रस्तुति...प्रस्तुतिकरण के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

जनाब तौसीफ़ तबस्सुम से तार्रुफ़ कराया. बहुत शुक्रिया आपका.
ग़ज़ल के हर शेर पर सैकड़ो दाद.

रागिनी said...

bahut achchhaa blog hai. shayari mein ruchi rakhane wale ke liye jannat hai yah.

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

मैं अपनी मौज में ्डूबा हुआ जज़ीरा हूं,
उतर ग्या है समन्दर बुलंद पा कर मुझे। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

Unknown said...

Superb ✌️

prem said...

जब भी मेरा पांव थक कर बैठ जाए तू मुझे बहुत याद आए,,,तुझसे मिलने की तमन्ना लिए घर से निकला मगर चार सू तू नजर ना आए।।

Unknown said...

Nic poyet