ग़ज़ल
कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी
कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी
अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी
किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना
कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी
खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी
यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी
जो सीखा है किसी "मासूम" को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी