Friday, March 28, 2014

मासूम ग़ाज़ियाबादी












 ग़ज़ल
 
कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी 
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी 

कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी 
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी

अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी 
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी

किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना 

कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी 

खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी

यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब 
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी

जो सीखा है किसी "मासूम" को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी
 

Wednesday, March 19, 2014

बलवान सिंह "आज़र"













गज़ल

जिन्दगी कुछ थका थका हूँ मैं
देख ले लड़खड़ा रहा हूँ मैं

रेत में ढूँढता रहा मोती
क्या कहूं कितना बावला हूँ मैं

जा चुका मेरा काफिला आगे
था जहां पर वहीं खड़ा हूँ मैं


खूबियां पूछता है क्यों मेरी
कुछ बुरा और कुछ भला हूँ मैं

अपनी सूरत कभी नहीं देखी
लोग कहते हैं आइना हूँ मैं

Monday, March 10, 2014

जतिन्दर परवाज़

                                                           






 




ग़ज़ल 

सहमा सहमा हर इक चेहरा मंज़र मंज़र खून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर


तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर

बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर

आ भी जा अब आने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर

जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर

Saturday, March 8, 2014

ग़ज़ल- दीक्षित दनकौरी












ग़ज़ल

चलें हम रुख़ बदल कर देखते हैं
ढलानों पर फिसल कर देखते हैं 


ज़माना चाहता है जिस तरह के
उन्हीं सांचों में ढल कर देखते हैं 


करें ज़िद,आसमां सिर पर उठा लें
कि बच्चों-सा मचल कर देखते हैं


हैं परवाने, तमाशाई नहीं हम
शमा के साथ जल कर देखते हैं 


तसल्ली ही सही,कुछ तो मिलेगा
सराबों में ही चल कर देखते हैं

Saturday, March 1, 2014

श्रद्धा जैन की एक ग़ज़ल




















ग़ज़ल 


बात दिल की कह दी जब अशआर में
ख़त किताबत क्यूँ करूँ बेकार में

मरने वाले तो बहुत मिल जाएंगे
सिर्फ़ हमने जी के देखा प्यार में

कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में

आज तक हम क़ैद हैं इस खौफ से
दाग़ लग जाए न अब किरदार में

दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में

Wednesday, February 26, 2014

नफ़स अम्बालवी साहब की एक ग़ज़ल


















उनकी किताब "सराबों का सफ़र" से एक ग़ज़ल आप सब की नज्र-

उसकी शफ़क़त का हक़ यूँ अदा  कर दिया 
उसको सजदा  किया और  खुदा कर दिया 

उम्र  भर  मैं  उसी  शै  से  लिपटा  रहा 

जिस ने हर शै से मुझको जुदा कर दिया

इस  लिए  ही  तो सर आज  नेज़ों पे है 

हम से जो कुछ भी उसने कहा कर दिया 

दिल की तकलीफ़ जब हद से बढ़ने लगी 

दर्द  को  दर्दे-दिल  कि  दवा  कर  दिया 

ऐसे  फ़नकार की  सनअतों को सलाम 

जिस ने पत्थर को भी देवता कर दिया 

आप  का  मुझपे  एहसान  है  दोस्तो 

क्या था मैं, आपने क्या से क्या कर दिया 

कौन गुज़रा दरख्तों को छू  कर 'नफ़स'

ज़र्द  पत्तों  को  किसने  हरा  कर  दिया 

शफ़क़त=मेहरबानी,सनअतों=कारीगरी



Tuesday, December 31, 2013

नये साल पर विशेष

ग़ज़ल-श्री द्विजेंद्र द्विज

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.