बात दिल की कह दी जब अशआर में
ख़त किताबत क्यूँ करूँ बेकार में
मरने वाले तो बहुत मिल जाएंगे
सिर्फ़ हमने जी के देखा प्यार में
कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में
आज तक हम क़ैद हैं इस खौफ से
दाग़ लग जाए न अब किरदार में
दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में
5 comments:
बहुत खूब .. लाजवाब शेर हैं श्रद्धा जी की इस गज़ल के ... मज़ा आ गया ...
उम्दा ग़ज़ल....बहुत दिनों बाद श्रद्धा जी की कोई रचना पढने को मिली....बधाई...
कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में
बहुत खूब
कैसे मिटती बदगुमानी बोलिये
कोई दरवाज़ा न था दीवार में
बहुत खूब, क्या बात है।
दोस्ती, रिश्ते, ग़ज़ल सब भूल कर
आज कल उलझी हूँ मैं घर बार में
वाह
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