Saturday, March 8, 2014

ग़ज़ल- दीक्षित दनकौरी












ग़ज़ल

चलें हम रुख़ बदल कर देखते हैं
ढलानों पर फिसल कर देखते हैं 


ज़माना चाहता है जिस तरह के
उन्हीं सांचों में ढल कर देखते हैं 


करें ज़िद,आसमां सिर पर उठा लें
कि बच्चों-सा मचल कर देखते हैं


हैं परवाने, तमाशाई नहीं हम
शमा के साथ जल कर देखते हैं 


तसल्ली ही सही,कुछ तो मिलेगा
सराबों में ही चल कर देखते हैं

4 comments:

तिलक राज कपूर said...

क्‍या बात है; क्‍या बात है। हर शेर लाजवाब।

दिगम्बर नासवा said...

क्या बात है जी ... लाजवाब शेरो का गुलदस्ता है आज की गज़ल ...

gumnaam pithoragarhi said...

ग़ज़तहे दिल से बधाइयाँ आपकोल के सारे शे'र खुबसूरत हैं ..दिली दाद................

Unknown said...

वाह जनाब

तसल्ली ही सही,कुछ तो मिलेगा
सराबों में ही चल कर देखते हैं