Tuesday, November 11, 2008

धर्मपाल 'अनवर' की ग़ज़लें और परिचय













श्री धर्मपाल 'अनवर' हिन्दी,पंजाबी और उर्दू भाषाओं में
समान अधिकार के साथ ग़ज़ल कहते हैं । 'तनहा ज़िन्दगी' (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2002) ,'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह-2008), 'पीड़ाँ दी पगडंडी' (पंजाबी लघु कथा संकलन-2008) और 'शाम दी दहलीज़ ते' (पंजाबी ग़ज़ल संग्रह-2005) इन की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं आप अमलोह, ज़िला फ़तेहगढ़ साहिब (पंजाब) में रहते हैं।
प्रस्तुत हैं श्री धर्मपाल 'अनवर' की चार ग़ज़लें जो उनके हाल ही में प्रकाशित हिन्दी ग़ज़ल संग्रह 'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' से हैं:

१.







बात सच्ची जो कह दे सभी को
कौन चाहेगा उस आदमी को

देखकर आज की दोस्ती को
शर्म आने लगी दोस्ती को

सब ही मतलब के रोने हैं रोते
कौन रोता है अब आदमी को

देखने को तो सब ख़ुश हैं यारो
सब तरसते हैं लेकिन ख़ुशी को

आँखें रो-रो के पथरा गई हैं
होंठ तरसें किसी के हँसी को

रातें रंगीं यहाँ हैं किसी की
दिन में तरसे कोई रोशनी को

पाए यह दिल सुकूँ जिससे 'अनवर'
कर ले हासिल तू उस आगही को.

212,212,212,2
**

२.








ज़िन्दगी से रोज़ो-शब मरते रहे
मौत से लेकिन सदा डरते रहे

वो भला मंज़िल पाते किस तरह
ख़्वाब में ही जो सफ़र करते रहे

परदे के पीछे किये ज़ुल्मो-सितम
दम शराफ़त का मगर भरते रहे

पूछिए उनसे तरक्की देश की
भूखे रह कर जो गुज़र करते रहे

अम्न का उपदेश देकर दोस्तो
आप ख़ुद फ़ितनागरी करते रहे

पेट 'अनवर' हसरतों की भूख का
मुद्दतों वादों से वो भरते रहे.
2122,2122,212
**
३.









ढक सके न जिस्म को जो पैरहन
आबरू कि लाश का वो है क़फ़न

धुन्ध वो मायूसियों की आ गई
आस की दिखती नहीं कोई किरन

थे चहकते दिल में जो अरमा कहीं
आज सीने में वो कर डाले दफ़न

दनदनाते देखी अक्सर है क़ज़ा
ज़िन्दगी महसूस करती है घुटन

ख़ार तो बदनाम यूँ ही हो गये
ज़ख़्म देते हैं दिलों को गुलबदन

है भँवर में अब भी कश्ती देश की
नाख़ुदाओं का रहा ऐसा चलन

देख 'अनवर' चन्द सिक्कों के लिए
बेच देते हैं कई अपना वतन.

2122,2122,212
**
४.









सह के दुख भी जो हँसती रही है
नाम उसका ही तो ज़िन्दगी है

कौन आएगा तुझ को मनाने
सूनी राहों को क्या देखती है

क्या तू समझाए दुनिया को नादाँ
तुझसे ज़्यादा यह ख़ुद जानती है

मोल हर साँस का तो बहुत है
ज़िन्दगी फिर भी सस्ती बड़ी है

रंग जैसा है जिस आईने का
उसमें वैसी ही दुनिया दिखी है

नाम उल्फ़त नहीं है हवस का
ये तो महबूब की बंदगी है

इश्क़ आसाँ नहीं इतना 'अनवर'
जिसको कहते हैं आफ़त यही है.

212,212,212,2

Sunday, October 26, 2008

मुशायरा

आदाब !

मुशायरे मे आए सभी शायरों / ग़ज़लकारों का मैं स्वागत करता हूँ . आज हमारे बीच बैठे हैं: सर्व श्री बृज कुमार अग्रवाल , कृश्न कुमार “तूर” , सरवर राज़ ‘सरवर’ सुरेश चन्द्र “शौक़” , प्राण शर्मा , महावीर शर्मा ,चाँद शुक्ला हादियाबादी , द्विजेन्द्र ‘द्विज’, अहमद अली बर्क़ी आज़मी, डा. प्रेम भारद्वाज ,पवनेंद्र ‘पवन’ ,ज़हीर कुरैशी , देव मणि पाँडे , नीरज गोस्वामी, देवी नांगरानी ,अमित रंजन ,नवनीत शर्मा ,दीपक गुप्ता, और विजय धीमान । कोशिश की है कि इस मुशायरे में आज की ग़ज़ल में प्रकाशित तमाम शायरों को एक साथ पेश करूँ और इसके अलावा कुछ ऐसे शायर भी जो पहले आज की ग़ज़ल में पहले नहीं आए. आशा करता हूँ कि आप सब को ये प्रयास पसंद आयेगा.
सबसे पहले मैं कृश्न कुमार “तूर” साहब को दावते क़लाम देना चाहता हूँ। जिनका क़लाम देश-विदेश के उर्दू-हिंदी रिसालों की ज़ीनत बनता है । कृश्न कुमार “तूर” साहब से गुज़ारिश है कि मुशायरे का आग़ाज़ अपने क़लाम से करें

कृश्न कुमार “तूर” साहब














अना का दायरा टूटे तो मैं दिखाई दूँ
वह अपनी आँख को खोले तो मैं दिखाई दूँ

हूँ उसके सामने लेकिन नज़र नहीं आता
वह मुझको देखना चाहे तो मैं दिखाई दूँ


मैं अपने आपको देखूँ तो वो दिखाई दे
वो अपने आपको देखे तो मैं दिखाई दूँ

बुलन्दियों से उसे मैं नज़र न आऊँगा
फ़राज़ से जो वो उतरे तो मैं दिखाई दूँ

है “तूर” उसकी नज़र ख़ुद ही उसपे बार अब तो
वो मेरे सामने आए तो मैं दिखाई दूँ
वाह-वाह तूर साहब! कया ख़ूब क़लाम है। इस ग़ज़ल के “मैं” को आपने कितने कुशादा माअनी अता फ़रमाए हैं ।
अब मुशायरे को एक खूबसूरत शेर के साथ और आगे बढ़ाते हैं। शे’र मुलाएज़ा फ़रमाने का है:
दिन गुज़रता है मेरा बुझ-बुझ कर
शाम को ख़ूब जगमगाता हूँ
इस फ़क़ीर शायर की शायरी भी दिन—रात जगमगाने वाली शायरी है। दावते—सुख़न दे रहा हूँ जनाब—ए—सुरेश चन्द्र “शौक” साहब को।आप अपने फ़न का जादू देश-विदेश के कोने- कोने में बिखेर चुके हैं । और नये लिखने वालों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं :

सुरेश चन्द्र “शौक”:













ग़ज़ल पेश है:

चुप है हर वक़्त का रोने वाला
कुछ न कुछ आज है होने वाला

एक भी अश्क नहीं आँखों में
सख़्त-जाँ कितना है रोने वाला

आज काँटों का भी हक़दार नहीं
हार फूलों के पिरोने वाला

खो गया दर्द की तस्वीरों में
प्यार के रंग भिगोने वाला

फ़स्ल अश्कों की उग आई कैसे
क्या कहे क़हक़हे बोने वाला

बाँटता फिरता है औरों को हँसी
ख़ुद को अश्कों में डुबोने वाला

मुतमुइन अब हैं यही सोच के हम
हो रहेगा है जो होने वाला

'शौक़'!तुम जिसके लिए मरते हो
वो तुम्हारा नहीं होने वाला ।





रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना
कुछ नहीं हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर शहर इश्तिहार है अपना
इसी टीस, इसी दर्द और इसी कमाल का नाम है ग़ज़ल. सीधी सी बात को कमाल से कह जाना ही ग़ज़ल है. मीर के इन अशआर के बाद मैं सरवर साहब को मंच पर बुलाता हूँ कि वे अपना कलाम पढ़ें :

सरवर राज़ साहब:













कूचा-कूचा , नगर-नगर देखा
खुद में देखा उसे अगर देखा.

किस्सा-ए-जीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा.

दर ही देखा न तूने घर देखा
जिंदगी ! तुझको खूब कर देखा.

कोई हसरत रही न उसके बाद
उसको हसरत से इक नज़र देखा.

हमको दैरो-हरम से क्या निसबत
उस को दिल में ही जलवागर देखा.

हाले-दिल दीदानी मेरा कब था
देखता कैसे ? हाँ मगर देखा.

सच कहूँ बज़्मे-शे'र मे तुमने
कोई सरवर सा बे-हुनर देखा ?

बहुत शुक्रिया सरवर साहब!


न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या होता


इसी फ़कीरी का नाम शायरी है .और इस फ़कीर शायर के ज़िक्र के बाद अब मै मंच पर प्राण शर्मा जी को बुलाता हूँ. वो मंच पर आकर अपना कलाम पेश करें:प्राण जी ग़ज़ल में अपनी अनूठी भाषा के लिये जाने जाते हैं. गुजा़रिश करूँगा कि वो अपना कलाम पेश करें.

प्राण शर्मा:








आदाब!

मतला पेश कर रहा हूँ

खुशी अपनी करे साँझी बता किस से कोई प्यारे.
पड़ोसी को जलाती है पड़ोसी की खुशी प्यारे.

तेरा मन भी तरसता होगा मुझसे बात करने को
चलो हम भूल जायें अब पुरानी दुशमनी प्यारे


तुम्हारे घर के रौशनदान ही हैं बंद बरसों से
तुम्हारे घर नहीं आती करे क्या रौशनी प्यारे

सवेरे उठके जाया कर बगीचे में टहलने को
कि तुझमें भी ज़रा आए कली की ताज़गी प्यारे

कभी कोई शिकायत है कभी कोई शिकायत है
बनी रहती है अपनो की सदा नाराज़गी प्यारे.

कोई चाहे कि न चाहे ये सबके साथ चलती है
किसी की दुशमनी प्यारे , किसी की दोस्ती प्यारे

कोई शय छिप नही सकती निगाहों से कभी इनकी
ये आँखे ढूँढ लेती हैं सुई खोई हुई प्यारे.

बहुत खूब ! प्राण साहब, क्या बात है ! और अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित कर रहा हूँ एक ऐसे रचनाकार को जो ब्लाग पर खूबसूरत मुशायरों के आयोजन के लिए चर्चित हैं । इनकी शायरी भी इनके द्वारा आयोजित मुशयरों की तरह ख़ूबसूरत है। आप हैं , महावीर शर्मा साहब, आइए, आपका स्वागत है :









तिरे सांसों की ख़ुशबू से ख़िज़ाँ की रुत बदल जाए,
जिधर को फैल जाए, आब-दीदा भी बहल जाए।

ज़माने को मुहब्बत की नज़र से देखने वाले,
किसी के प्यार की शमअ तिरे दिल में भी जल जाए।

मिरे तुम पास ना आना मिरा दिल मोम जैसा है,
तिरे सांसों की गरमी से कहीं ये दिल पिघल जाए।

कभी कोई किसी की ज़िन्दगी से प्यार न छीने,
वो है किस काम का जिस फूल से ख़ुशबू निकल जाए

तमन्ना है कि मिल जाए कोई टूटे हुए दिल को,
बनफ़शी हाथों से छू ले, किसी का दिल बहल जाए।

ज़रा बैठो, ग़मे-दिल का ये अफ़साना अधूरा है,
तुम्हीं अनजाम लिख देना, मिरा गर दम निकल जाए।

मिरी आंखें जुदा करके मिरी तुर्बत पे रख देना,
नज़र भर देख लूं उसको, ये हसरत भी निकल जाए।

महावीर शर्मा साहब आपका बहुत—बहुत शुक्रिया ।

अब दावते सुख़न दे रहा हूँ डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी साहब को।
डा. बर्क़ी की शायरी अपने क्लासिकल अंदाज़ के लिए जानी जाती है:

डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी :








हैं किसी की यह करम फर्माइयाँ
बज रही हैँ ज़ेहन मेँ शहनाइयाँ

उसका आना एक फ़ाले नेक है
ज़िंदगी में हैं मेरी रानाइयाँ

मुर्तइश हो जाता है तारे वजूद
जिस घड़ी लेता है वह अंगडाइयाँ

उसकी चशमे नीलगूँ है ऐसी झील
जिसकी ला महदूद हैं गहराइयाँ

चाहता है दिल यह उसमें डूब जाएँ
दिलनशीं हैं ये ख़याल आराइयाँ

मेरे पहलू में नहीं होता वह जब
होती हैं सब्र आज़मा तन्हाइयाँ

तल्ख़ हो जाती है मेरी ज़िंदगी
करती हैं वहशतज़दा परछाइयाँ

इश्क़ है सूदो ज़ियाँ से बेनेयाज़
इश्क़ मे पुरकैफ़ हैँ रुसवाइयाँ

वलवला अंगेज़ हैं मेरे लिए
उसकी “बर्क़ी” हौसला अफज़ाइयाँ
बर्क़ी साहब , कलाम पेश करने के लिए हम आपके शुक्रगुज़ार हैं।


ख्वाजा मीर दर्द का अपना अंदाज़ था वो बातचीत की तरह ग़ज़ल कहते थे.ये अंदाजे़-बयां ही है जो हमे एक -दूसरे से जुदा करता है , बातें तो वही हैं , मसले भी वही हैं , ऐसा कोई विषय नही होगा जो कहा न गया हो. बस शायर अपने अंदाज़ से उसको जुदा कर देता है. अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित करता हूँ आदरणीय बृज कुमार अग्रवाल साहब को । अग्रवाल साहब ग़ज़ल में अपने अलग अंदाज़े-बयाँ के लिए जाने जाते हैं:

बृज कुमार अग्रवाल :













जब नहीं तुझको यक़ीं अपना समझता क्यूँ है ?
रिश्ता रखता है तो फिर रोज़ परखता क्यूँ है ?

हमसफ़र छूट गए मैं जो तेरे साथ चला
वक़्त! तू साथ मेरे चाल ये चलता क्यूँ है ?

मैंने माना कि नहीं प्यार तो फिर इतना बता
कुछ नहीं दिल में तो आँखों से छलकता क्यूँ है ?

कह तो दी बात तेरे दिल की तेरी आँखों ने
मुँह से कहने की निभा रस्म तू डरता क्यूँ है ?

दाग़-ए-दिल जिसने दिया ज़िक्र जब आए उसका
दिल के कोने में कहीं दीप- सा जलता क्यूँ है ?

रख के पलकों पे तू नज़रों से गिरा देता है
मैं वही हूँ तेरा अन्दाज़ बदलता क्यूँ है ?
वाह-वाह क्या बात है !





“पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना सपना ही रह जाता है.”
इस शायर का नाम मैं मुशायरे के अंत मे बताऊंगा लेकिन एक बात तो तय है दर्द का दरिया पार किये बिना कोई शायर नहीं बन सकता.यही दर्द और टीस कुंदन बन कर ग़ज़लों मे उतरता है.देर न करते हुए मैं मंच पर देव मणि पाँडे साहेब को बुलाता हूँ.एक अच्छे गीतकार भी हैं पाँडे जी, पिंज़र के लिए गीत भी लिखे हैं इन्होनें. आइए देव मणि जी:
देव मणि पाँडे :









मतला पेश कर रहा हूँ:

दिल ने चाहा बहुत पर मिला कुछ नहीं
ज़िन्दगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं

उसने रुसवा सरेआम मुझको किया
उसके बारे में मैंने कहा कुछ नहीं

इश्क़ ने हमको सौग़ात में क्या दिया
ज़ख़्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नहीं

पढ़के देखीं किताबें मोहब्बत की सब
आँसुओं के अलावा लिखा कुछ नहीं

हर ख़ुशी मिल भी जाए तो क्या फ़ायदा
ग़म अगर न मिले तो मज़ा कुछ नहीं

ज़िन्दगी ये बता तुझसे कैसे मिलें
जीने वालों को तेरा पता कुछ नहीं

**
वाह ! वाह !वाह! अमीर खुसरो जी ने भी हाथ अजमाया इस विधा में और आने वाले कल के लिये एक नींव डाली.और अब मै ज़हीर कुरैशी साहेब को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल सुनाएँ हिन्दी सुभाव की ग़ज़ल में अपने अलग मुहावरे के लिए जाने जाते हैं ज़हीर कुरेशी साहब.

ज़हीर कुरैशी :









वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका 'निदान' कर देंगे


वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे
खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे


तुम्हारी 'चुप' को समर्थन का नाम दे देंगे
बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे


तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से
वे अपने 'बाज' की 'बुलबुल' में जान कर देंगे


कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे


वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में
निरस्त अच्छा-भला 'संविधान' कर देंगे


तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी
वे चार दिन में तुम्हें 'बुद्धिमान' कर देंगे
वाह ! वाह! इन दियों को हवाओं में रखना ।

एक और अज़ीम शख़्सियत हमारे मुशायरे को ज़ीनत अता फ़रमा रही है और उस का नाम है ‘चाँद’ शुक्ला हादियाबादी। आप रेडियो सबरंग , डेनमार्क के डायेरेक्टर हैं










इन दियों को हवाओं में रखना
हमको अपनी दुआओं में रखना

वो जो वाली है दो जहानों का
उसको दिल की सदाओं में रखना

कोई तुम से वफ़ा करे न करे
नेक नीयत वफ़ाओं में रखना

हुस्न और इश्क़ उसकी नेमत हैं
तू हुनर इन अदाओं में रखना

हर तमन्ना गुलाब-सी महके
चाँद-तारों की छाओँ में रखना

खूब सूरत क़लाम के लिए शुक्रिया !
और अब मैं नीरज गोस्वामी जी को अपने क़लाम का जादू जगाने के किए लिए आमंत्रित करता हूँ।


नीरज गोस्वामी :







प्यार की तान जब सुनाई है
भैरवी हर किसी ने गाई है

लाख चाहो मगर नहीं छुपता
इश्क में बस ये ही बुराई है

खवाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है

बाँध रक्खा है याद ने हमको
आप से कब मिली रिहाई है

जीत का मोल जानिए उस से
हार जिसके नसीब आई है

चाहतें मेमने सी भोली हैं
पर जमाना बड़ा कसाई है

आस छोडो नहीं कभी "नीरज"
दर्दे दिल की यही दवाई है.

बहुत ख़ूब, भाई नीरज जी!
अब मैं डा. प्रेम भारद्वाज को सादर आमंत्रित करता हूँ कि वे अपनी ग़ज़ल हमें सुनाएँ।
डा. प्रेम भारद्वाज:








मैं मिट कर जब हम हो जाए
दर्दे-दुनिया कम हो जाए

टूटे हैं मरहम हो जाए
फूलों पर शबनम हो जाए

गीत बहारों के गा कर ही
पतझड़ का मातम हो जाए

जीवन की उलझन के चलते
सीधा-सा हमदम हो जाए

क्या कहने,गर ठोस हक़ीक़त
ज़ुल्फ़ों का बस ख़म हो जाए

ख़ुशियाँ हों या ग़म के क़िस्से
पीने का आलम हो जाए

दाद नहीं कुछ इसके आगे
आँख झुके और नम हो जाए

रिश्तों के बंधन में आकर
प्रेम करें तो ग़म हो जाए

खूबसूरत ग़ज़ल के लिए शुक्रिया।





पवनेंद्र पवन साहब भी मुशायरे में आ चुके हैं.उनसे भी अनुरोध कि वे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करें

पवनेंद्र पवन:


कहने को वरदान है बेटी
अनचाही संतान है बेटी


कपड़ा ,पैसा ,दान समझ कर
कर दी जाती दान है बेटी

खूब ठहाके लाता बेटा
बुझती—सी मुस्कान है बेटी

लेना—देना दो बापों का
हो जाती क़ुर्बान है बेटी

पूछ नहीं है घर में लेकिन
घर की इज़्ज़त-मान है बेटी

सास कहे है ग़ैर की जाई
माँ के घर मेहमान है बेटी.
बहुत ही मार्मिक ग़ज़ल के लिए मैं पवन जी का आभारी हूँ.
और अब मैं भाई नवनीत को उनकी ग़ज़ल के साथ आमंत्रित करता हूँ
नवनीत शर्मा :








रोज़ ही शह्र में ग़दर होना
कितना मुश्किल है यूँ बसर होना

क्या ज़रूरी था ये क़हर होना
मेरा साहिल तेरा लहर होना

हम मकाँ ग़ैर के बनाते हैं
अपना मुमकिन नहीं है घर होना

क्या ज़रूरी था ये ग़दर होना
दिल की बस्ती में उनका घर होना

किसको भाया है किसको भायेगा
तेरे क़ूचे से दर—बदर होना

ज़िन्दगी के क़रीब लाता है
तेरी बस्ती में मेरा घर होना

रास्ता मैं अगर बनूँ हमदम
तुम किनारों के सब शजर होना

यह जो नवनीत कह रहा है ग़ज़ल
सब को लाज़िम है यह ख़बर होना.

बहुत खूब, भाई नवनीत !


ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त भेजा
आप की तरह से मेहमान बुलाए कोई
जिसने दा़ग साहेब को नहीं पढ़ा उसने कुछ नही पढ़ा.मीर के बाद सादा और साफ़ कलाम दा़ग साहेब ने पेश किया और ग़ज़ल को फ़ारसी के भारी भरकम शब्दों से ग़ज़ल को निजा़त दिलाई.
न्यू जर्सी से तशरीफ़ लाई देवी नांगरानी जी को दावते सुख़न दे रहा हूँ:
नांगरानी जी भी अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ मंच पर हैं. आइए:

देवी नांगरानी:









ग़ज़ल हाजि़र है:
इरशाद।

दिल से दिल तक जुड़ी हुई है ग़ज़ल
बीच में उनके पुल बनी है ग़ज़ल

छू ले पत्थर तो वो पिघल जाए
ऐसा जादू भी कर गई है ग़ज़ल

सात रंगों की है धनुष जैसी
स्वप्न -संसार रच रही है ग़ज़ल

सोच को अपनी क्या कहूँ यारो
रतजगे करके कह रही है ग़ज़ल

रूह को देती है ये सुकूं 'देवी'
ऐसी मीठी-सी रागिनी है ग़ज़ल.
**
धन्यवाद देवी जी
बेश्क ग़ज़ल एक मीठी रागिनी है.
“यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़
दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग”
फ़िराक साहेब ने गंगा-जमनी तहज़ीब की नींव रखी और उसको निभाया भी.वो हमेशा हिंदी मे लिखी जाने वाली ग़ज़ल से खफ़ा रहते थे क्योंकि हिंदी मे लिखने वाले अरुज़ को संजी़दगी से नही लेते थे लेकिन आज दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल अपनी बाल अवस्था से निकल कर जवान होने लगी है. बाकी ये तो झगड़ा ही बेकार है.बात वही जो दिल को भाए वो उर्दू मे हो या हिंदी मे.खैर मैं अब मंच पर बुला रहा हूँ रंजन गोरखपुरी सहेब को कि वो अपना कलाम पेश करें.
रंजन जी:








बड़ा बेचैन होता जा रहा हूं,
न जाने क्यूं नहीं लिख पा रहा हूं

तुम्हे ये भी लिखूं वो भी बताऊं,
मगर अल्फ़ाज़ ढूंढे जा रहा हूं

मोहब्बत का यही आ़गाज़ होगा,
जिधर देखूं तुम्ही को पा रहा हूं

कभी सूखी ज़मीं हस्ती थी मेरी,
ज़रा देखो मैं बरसा जा रहा हूं

किसी दिन इत्तेफ़ाकन ही मिलेंगे,
पुराने ख्वाब हैं दोहरा रहा हूं

मुझे आगोश में ले लो हवाओं,
गुलों से बोतलों में जा रहा हूं

शरारत का नया अंदाज़ होगा,
मैं शायद बेवजह घबरा रहा हूं

किसे परवाह है अब मंज़िलों की,
मोहब्बत के सफ़र पर जा रहा हूं

दिलों की नाज़ुकी समझे हैं कब वो,
दिमागों को मगर समझा रहा हूं

शब-ए-फ़ुरकत की बेबस हिचकियों से,
तसल्ली है कि मैं याद आ रहा हूं

मोहब्बत थी कहां हिस्से में "रंजन",
गज़ल से यूं ही दिल बहला रहा हूं


वाह ! क्या बात है, रंजन जी.

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
दुष्यन्त के इन अशआर के बाद मैं दीपक गुप्ता जी को मंच पर आमंत्रित करता हूँ:
दीपक गुप्ता :








दुनिया ने इतना भरमाया
जीवन क्या है समझ न पाया

मैंने दुःख का , दुःख ने मेरा
कैसे - कैसे साथ निभाया

हद है मुझसे मेरा तारुफ़
पूछ रहा है मेरा साया

मेरी हालत यूँ है जैसे
लौट के बुद्धू घर को आया

जाने क्यों ये आँखें बरसीं
बादल ने जब जल बरसाया .

दीपक जी, कलाम के लिए शुक्रिया।


अगर यों ही ये दिल सताता रहेगा
तो इक दिन मेरा जी ही जाता रहेगा


मैं जाता हूँ दिल को तेरे पास छोड़े
मेरी याद तुझको दिलाता रहेगा
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है , कुछ साल पहले मै द्विज जी को पोस्ट कार्ड पर ग़ज़लें लिखकर भेजता था अब मेल करता हूँ । आजकल लोग गूगल मे खोजते हैं कि गज़ल कैसे लिखें और अगले दिन ग़ज़ल लिख कर ब्लाग पर लग जाती है और उस पर कुछ लोग जिन्हें ग़ज़ल की रत्ती भर भी जानकारी नहीं वो आ जाते हैं टिप्पणी करने और कुछ लोग जो हर सुबह यही करते हैं ब्लागबाणी से ब्लाग भम्रण. "बहुत अच्छा. बहुत खूब..उम्दा..क्या ग़ज़ल है !" वो हर ब्लाग पर टिप्पणी छोड़ेंगे और दूसरों को कहेंगे आप भी आइए. लोग ब्लाग की टी.आर.पी बढ़ा रहे हैं.और कई नौसिखिए अच्छी-अच्छी वेब-साइटों पर मिल जाते हैं.एक अपनी छोटी सी ग़ज़ल सांझा करना चाहता हूँ.
करे अब तबसिरा कु्छ भी कि हमने दिल की कह दी है
किसे परवाह दुनिया कि ये दुनिया कुछ भी कहती है.
मेरी ग़ज़लें नही मोहताज़ तेरे फ़ैसलों की सुन
कि इनका ठाठ है अपना रवानी इनकी अपनी है
और अब मैं अब अपने एक बहुत ही पुराने मित्र को स्टेज पर बुलाता हूँ कि वो आकर ग़ज़ल कहें. विजय धीमान:










एक जीवन क्या हताशा देखिए
मौजे-दरिया भी ज़रा सा देखिए.

नट तमाशी है यहाँ पर सच मगर
झूठ किस्से हैं तमाशा देखिए.

थाप इक बस जिंदगी के साज़ पर
क्यों नही होता खुलासा देखिए.

खुद का ही प्रतिबिंब आएगा नज़र
दीन को देकेर दिलासा देखिए.

बीज मिटटी से मिले तो पेड़ हो
और ऊँचा सर झुका सा देखिए.

वाह ! क्या बात है...
पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है.
तो हाज़रीन ये शे'र कहा है “द्विज” जी ने और मैं उनसे गुजा़रिश करता हूँ कि वो अपना कलाम पेश करें और दो-शब्द कहें.
आइए सर !

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ :









ये मेरी बहुत पुरानी ,कालेज के दिनों कि ग़ज़ल है और सतपाल की ज़िद पर मैं यही प्रस्तुत कर रहा हूँ :

पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है

जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है

दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है

प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती -गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है

सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पीछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताँडव-सा डमरू कौन बजाता है

‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है।

अब मैं इस मुशायरे को आपके सामने लाने वाले सतपाल “ख्याल” को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल कहें और इस बेहतरीन मुशायरे के लिए सतपाल को बधाई देता हूँ.



बहुत ही उम्दा ग़ज़ल जो पिछले १५ सालों से दिल मे बसी है.शायरी का ये हुनर उस्ताद के बिना अधूरा है. और मै खुशनसीब हूँ कि द्विज जी जैसे गुरू मुझे मिले.द्विज जी का बहुत शुक्रिया, ये सब उनकी ही मेहनत है कि ये मुशायरा पुरा हुआ.
















ग़ज़ल

चलूँ ताजा़ ख्यालों से मै इस महिफ़िल को महकाऊँ
है मौसम कोंपलों का क्यों कहानी जदॅ दुहराऊँ.

कसे हैं साज के ए दिल ! जो मैने तार हिम्मत से
मुझे तुम रोक लेना गर पुराना गीत मैं गाऊँ.

मेरे दिल को न कर तकसीम इन आंखों को हिम्मत दे
खुदा मैं फ़िर किसी गुल की मुह्व्बत मे न मर जाऊँ.

जलाकर हाथ भी अपने मुझे कुछ गम नहीं यारो
मै लेकर लौ मुहव्ब्त की अब आंगन तक तो आ जाऊँ.

ख्याल अपने ख्यालों की करो अब शम्मा तुम रौशन
उधर से वो चले आएं, इधर से मैं चला आऊं,










पग-पग पे 'तम' को हरती हों दीप-श्रृंखलाएँ
जीवन हो एक उत्सव, पूरी हों कामनाएँ

आँगन में अल्पना की चित्रावली मुबारिक
फूलों की, फुलझड़ी की, शब्दावली मुबारिक

'तम' पर विजय की सुन्दर दृश्यावली मुबारिक
दीपावली मुबारिक, दीपावली मुबारिक

-द्विजेन्द्र द्विज







मुशायरे मे आए सब शायरों का शुक्रिया और सबको दीपोत्सव की शुभकामनायें.


***********************************************************************************


Udan Tashtari said...
वाह साहब वाह, एक से एक उम्दा गजलें एवं एक से एक महारथी..आनन्द आ गया दिवाली का. बहुत जानदार और शानदार मुशायरा.

दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

October 28, 2008 5:10 AM


युग-विमर्श said...
इस मंच के माध्यम से निश्चित रूप से कुछ अच्छे शेर पढ़ने को मिले.

October 28, 2008 11:02 AM


रंजन गोरखपुरी said...
मुशायरे में शिरकत बेहद लाजवाब रही!
आपका और द्विज साहब का दिल से आभार!!

October 28, 2008 10:42 PM


Devmani said... दीपपर्व के शुभ अवसर पर इतने अच्छे मुशायरे के आयोजन के लिए लिए बधाई इस ख़ूबसूरत सिलसिले को आगे भी जारी रखें इसके ज़रिए पूरी दुनिया में लिखी जा रही शायरी के रंग और मिजाज़ से परिचय कराना बहुत सराहनीय कार्य है

देवमणि पाण्डेय, मुम्बई

October 29, 2008 2:53 AM


Pran Sharma said...
Mushayre ke behtreen aayojan ke
liye aapko badhaaee.Kaee naye
gazalkaron ke parichay ke saath-
saath unkee gazlen achchhee lagee.

October 30, 2008 5:17 AM


नीरज गोस्वामी said...
सतपाल जी
मुझे जिंदगी में इतनी खुशी कभी नसीब नहीं हुई...आपने मुझ जैसे एक अदना से ग़ज़लगो को इतने बड़े बड़े उस्तादों के बीच खड़ा कर जो इज्जत बक्शी है उसे ज़िन्दगी भर भुला पाना नामुमकिन है...समझ नहीं आ रहा की आप का शुक्रिया कैसे अदा करूँ...हर उस्ताद का कलाम कमाल का है, मैं इस लायक नहीं की उनपर कुछ कह सकूँ...एक बार फ़िर तहे दिल से शुक्रिया.
नीरज

October 31, 2008 7:19 AM


महावीर said...
कुछ दिनों से निजी कारणों से नेट से दूर रहना पड़ा। आज की ग़ज़ल पर मुशायरा देख कर आनंद आगया। एक बहुत ही सुंदर और सफल आयोजन के लिए ढेर सारी बधाईयां स्वीकारें। मैं आपका शुक्रगुज़ार हूं कि प्रतिष्ठावान शायरों के साथ मेरी रचना सम्मलित की गई जो मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है। एक बार फिर आयोजकों का आभार व्यक्त करता हूं।
महावीर शर्मा
महावीर शर्मा

October 31, 2008 11:14 AM


सतपाल said...
Here is ghazal by Ahmad ali :

मुशायरा – आज की ग़ज़ल.ब्लागस्पाट.काम

डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी



है तर्जुमाने अहदे रवाँ आज की ग़ज़ल

है बेनेयाज़े सूदो ज़ेयाँ आज की ग़ज़ल



है यह ब्लाग और ब्लागोँ से मुख़तलिफ

सत्पाल का है अज़मे जवाँ आज की ग़ज़ल



बरपा किया है उसने यहाँ जो मुशायरा

उस से अयाँ है अब है कहाँ आज की ग़ज़ल



महफ़िल मेँ उसकी जो भी हैँ शायर ग़ज़ल सरा

अज़मत का उनकी है यह निशाँ आज की ग़ज़ल



सरवर,प्राण शर्मा, महावीर और द्विज

सबका अलग है तर्ज़े बयाँ आज की ग़ज़ल



नीरज,पवन, ज़हीर क़ुरैशी, अमित, धिमान

है सबके फिकरो फन का निशाँ आज की ग़ज़ल



हैँ चाँद शुक्ला,देवमणि और तूर भी

बज़मे सुख़न की रूहे रवाँ आज की ग़ज़ल



अहमद अली भी साथ है सबके ग़ज़ल सरा

है फिकरो फन की जुए रवाँ आज की ग़ज़ल

October 31, 2008 9:23 PM


Dr. Sudha Om Dhingra said...
मुशायरे का आन्नद आ गया. इस मंच से इतनी उम्दा ग़ज़लें मिलीं---भारत के मुशायरों की याद आ गई. ऐसे मुशायरे करते रहिये.
उत्तम शायरी हम तक पहुँचती रहे--यही कामना है...धन्यवाद!
सुधा ओम ढींगरा

November 3, 2008 3:35 PM
गौतम राजरिशी said...
क्या बात है सतपाल जी...इस शानदार प्रस्तुती के लिये...सारे के सारे नगीने एक साथ.ये तो अभी कई-कई दिन तक पढते रहना पड़ेगा.एक साथ महीनों की खुराक....शुक्रिया आपका

---और पिछले पोस्ट में जब आपने मुशायरे की घोषणा की थी मैं अपनी नादानी में गुस्ताखी कर पूछ बैठा था खुद के शिरकत करने को.हाः--इन दिग्गजों के समकक्ष तो मैं मंच के करिब आने के भी काबिल नहीं...

इनमें से कुछ गज़ल अगर मैं अपने मेल पर मंगाना चाहूं,तो कोई उपाय है क्या?

November 5, 2008 7:45 PM


Devi Nangrani said...
satpal ji
mubarak ho aapko is safal prayaas ke liye. Desh videsh ke beech ka setu bani hai shayari.
गजलः ९१
लगती है मन को अच्छी, शाइर गज़ल तुम्हारी
आवाज़ है ये दिल की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये नैन-होंट चुप है, फिर भी सुनी है हमने
उन्वां थी गुफ्तगू की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये रात का अँधेरा, तन्हाइयों का आलम
ऐसे में सिर्फ साथी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
नाचे हैं राधा मोहन, नाचे है सारा गोकुल
मोहक ये कितनी लगती, शाइर गज़ल तुम्हारी.
है ताल दादरा ये, और राग भैरवी है
सँगीत ने सजाई, शाइर गज़ल तुम्हारी.
मन की ये भावनायें, शब्दों में हैं पिरोई
है ये बड़ी रसीली, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अहसास की रवानी, हर एक लफ्ज़ में है
है शान शाइरी की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अनजान कोई रिश्ता, दिल में पनप रहा है
धड़कन ये है उसीकी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
दो अक्षरों का पाया जो ग्यान तुमने ‘देवी’
उससे निखर के आई, शायर गजल तुम्हारी.
DEvi nangrani

November 9, 2008 10:50 PM

Wednesday, October 22, 2008

मुशायरा








"आज की ग़ज़ल" पर अब तक प्रकाशित शायरों को लेकर आ
रहे हैं हम एक साथ, एक बेहतरीन मुशायरे में.
आप सब सादर आमंत्रित हैं.
सतपाल ख्याल

Saturday, October 11, 2008

श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' की ग़ज़लें और परिचय













परिचय:
3 जून 1941 को अलीगढ़ (उ०प्र०) में जन्में श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' सूचना विज्ञान में एम.एस. सी, व एम.फ़िल हैं और आप दिल्ली-विश्व विद्यालय के पटेल चैस्ट इंस्टीट्यूट से सेवा निवृत हुए हैं। आपने युगोस्लाव छात्रवृत्ति पर युगोस्लाव भाषा का विशेष अध्ययन किया है और इस भाषा की काव्य रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया हैं युगोस्लाव भाषाओं में भारतीय विषयों से संबंधित रचनाओं आदि पर शोध कार्य भी किया है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में साहित्यिक, वैज्ञानिक गोष्ठियों व गतिविधियों से संबंधित भ्रमण भी किये।युगोस्लाव दूरदर्शन पर भारत-संबंधित वार्ताएँ, आकाशवाणी पर साक्षात्कार व नियमित काव्य पाठ । आप मुख्य-रूप से उर्दू,खड़ी बोली, ब्रजभाषा व अँग्रेज़ी में काव्य रचते हैं, और काव्य के अच्छे समीक्ष्क भी हैं।
मयख़ाना,दर की ठोकरें, तिराहे पर खड़ा दरख़्त (काव्य संग्रह), तुकी-बेतुकी, तू-तू मैं-मैं (हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह) चूहे की शादी (बाल-गीत संग्रह),हम जंगल के फूल(दोहा सतसई) इत्यादि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं और इसके अतिरिक्त आप कई दोहा और ग़ज़ल संकलनों में सहयोगी रचनाकार के रूप में संकलित हो चुके हैं।


प्रस्तुत हैं श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' चार ग़ज़लें :


एक.







यारब ये क्या सुलूक किया दिलबरों के साथ
दानिशवरों को छोड़ दिया,सिरफिरों के साथ

संजीदगी की उनसे तवक़्क़ो न कीजिये
जिनकी तमाम उम्र कटी मसख़रों के साथ

तामीर नया घर तो करें शौक़ से, मगर
रिश्ते न तोड़िएगा पुराने घरों के साथ

पत्थर है बासलीक़ा तो हाज़िर है आईना
बस,शर्त ये है, फ़न भी हो शीशागरों के साथ

ऐवाने—शहनशाह ये खँडहर रहे कभी
तारीख़ हमनवा है, इन्हीं पत्थरों के साथ

हुस्ने-अयाँ के सामने हुस्ने—निहाँ फ़िज़ूल
मुश्किल यही है आज के दीदावरों के साथ

ज़ीनत हैं दिल की ज़ख़्म जो बख़्शे हैं आपने
जैसे नई दुल्हन हो कोई ज़ेवरों के साथ

मंज़िल पे ले के जायें जो नफ़रत की राह से
मुझको सफ़र क़ुबूल न उन रहबरों के साथ

'शैदी'! उन्हीं को कर गया बौना कुछ और भी
बौनों का जो सुलूक था,क़द्दावरों के साथ.

बहरे मुज़ारे : 221,2121,1221,2121

दो









अब्र नफ़रत का बरसता है, ख़ुदा ख़ैर करे
हर तरफ़ क़हर-सा बरपा है, ख़ुदा ख़ैर करे

चुन भी पाए न थे अब तक, शिकस्ता आईने,
संग फिर उसने उठाया है, ख़ुदा ख़ैर करे

जो गया था अभी इस सिम्त से लिए ख़ंजर
जाने क्या सोच के पलटा है, ख़ुदा ख़ैर करे

क़ातिले—शहर के हमराह हज़ारों लश्कर
हाकिमे-शहर अकेला है, ख़ुदा ख़ैर करे

लोग इस गाँव के उस गाँव से मिलें कैसे ?
दरमियाँ ख़ून का दरिया है, ख़ुदा ख़ैर करे

किसलिये नींद में अब डरने लगे हैं बच्चे?
ख़्वाब आँखों में ये कैसा है, ख़ुदा ख़ैर करे

उम्रभर आग बुझाता रहा जो बस्ती में
घर उसी शख़्स का जलता है, ख़ुदा ख़ैर करे

जाने उस शख़्स ने देखे हैं हादसे कैसे
आह भर कर वो ये कहता है 'ख़ुदा ख़ैर करे'

कितना पुरशोर था , माहौल शहर का, 'शैदी'
नागहाँ किसलिये चुप-सा है, ख़ुदा ख़ैर करे.

बहर—ए— रमल का एक ज़िहाफ़=2122,1122,1122,112

तीन.










खिलते फूल सलोने देख !
रंगो-बू के दोने देख !

ये पुरख़ार बिछौने देख !
आया हूँ मैं सोने देख

दुख, तन्हाई ,यादें ,जाम
मेरे खेल-खिलौने देख !

जागेगा तो रोयेगा
मत तू ख़्वाब सलोने देख !

वो तो पानी जैसा है
पहुँचा कोने-कोने देख !

हीरे का दिल टूट गया
दाम वो औने-पौने देख !

सब पाने की धुन में हैं
हम आये हैं खोने, देख !

वो तेरे ही अंदर है
मन के सारे कोने देख

लगता वो मासूम मगर
उसके जादू- टोने देख !

22, 22, 22 2(I)

चार.







कैसे ख़ूनी मंज़र हैं
फूलों पर भी ख़ंजर हैं

नाज़ुक़ शीशा तोड़ दिया
पत्थर, कितने पत्थर हैं

बढ़े हौसले बाज़ों के
सहमे हुए कबूतर हैं

बस्ती के सारे दुश्मन
बस्ती के ही अंदर हैं

सारी बस्ती पहन सके
इतने उसके तन पर हैं

दीवाने का सर है एक
दुनिया भर के पत्थर हैं

प्यास किसी की बुझा सके?
माना, आप समंदर हैं

जो ईंटें हैं मंदिर में
वही हरम के अंदर हैं

जिनमें मोती बनने थे
वे ही कोखें बंजर हैं .

22, 22, 22 2

Monday, September 29, 2008

प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की ग़ज़लें और परिचय











जन्म: 24 सितम्बर 1947
निधन: 24 जुलाई 2006


परिचय:

24 सितम्बर, 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में जन्मे श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' ने 1968 में पंजाब इंजीनियरिंग कालेज से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में डिग्री की. 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह) के चर्चित कवि, ग़ज़लकार 'परवेज़' की अनुभव सम्पन्न दृष्टि में 'बनिये की तरह चौखट पर पसरते पेट' से लेकर जोड़, तक्सीम और घटाव की कसरत में फँसे, आँकड़े बनकर रह गये लोगों की तक़लीफ़ें, त्रासदी और लहुलुहान हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से, पढ़ने-सुनने वाले की रूह तक उतर जाने क्षमता रखती हैं.

हिमाचल के बहुत से युवा कवियों के प्रेरणा—स्रोत व अप्रतिम कवि श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' 24 जुलाई, 2006 इस संसार को अलविदा कह गये.

प्रस्तुत है उनके ग़ज़ल संग्रह 'रास्ता बनता रहे' से सात ग़ज़लें:

ग़ज़ल 1








सब के हिस्से से उन्हें हिस्सा सदा मिलता रहे
चाहते हैं लोग कुछ, ये सिलसिला चलता रहे

चन्द लोगों की यही कोशिश रही है दोस्तो
आदमी का आदमी से फ़ासला बढ़ता रहे

खल रहा है इस शहर में आदमी को आदमी
इस शहर में कब तलक अब हादसा टलता रहे

आने वाला कल मसीहा ले के आएगा यहाँ
दर्द सीने में अगर बाक़ायदा पलता रहे

अपनी आँखों से हमें भी खोलनी हैं पट्टियाँ
फ़ायदा क्या है कि अन्धा क़ाफ़िला चलता रहे

वक़्त तो लगता है आख़िर पत्थरों का है पहाड़
मेरा मक़सद है वहाँ इक रास्ता बनता रहे.

बहर—ए—रमल
(2122,2122,2122,212)

ग़ज़ल 2.









हर गवाही से मुकर जाता है पेट
उनकी जूठन तक उतर जाता है पेट

इस तरह कुछ साज़िशें करते हैं वो
सर से पाओं तक बिखर जाता है पेट

ज़हनो-दिल को ठौर मिलती ही नहीं
सारे बिस्तर पर पसर जाता है पेट

हर सुबह हर शाम बनिये की तरह
मेरी चौखट पे ठहर जाता है पेट

मेरे हाथों से महब्बत है उन्हें
उनकी आँखों में अखर जाता है पेट

चीख़ता रहता है दिन भर दर्द से
रात आती है तो मर जाता है पेट

हार कर ख़ुद भूख से अक्सर मुझे
दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट

बेअदब हूँ , बेहया हूँ , बेशर्म हूँ
तोहमतें हर बार धर जाता है पेट

रमल: (2122,2122,2121)

ग़ज़ल 3.










हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
संसद केवल फटा हुआ इक छाता है

भूख अगर गूँगेपन तक ले जाए तो
आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है

लेकिन अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा
प्रजातंत्र से जनता का क्या नाता है

बीवी है बीमार , सभी बच्चे भूखे
बाप मगर घर जाने से कतराता है

परम्पराएँ अंदर तक हिल जाती हैं
सन्नाटे में जब कोई चिल्लाता है

क्यूँ न वह प्रतिरोध करे सच्चाई का
अपने खोटे सिक्के जो भुनवाता है.

बहर—मुतदारिक
(२२,२२,२२,२२,२२,२)

ग़ज़ल 4.











हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग

एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग

घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग

बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग

धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग

ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग

आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग

रमल: (2122,1122,1122,1121)

ग़ज़ल 5










जब कभी उनको उघाड़ा जाएगा
हर दफ़ा हमको लताड़ा जाएगा

जो नहीं रुकते किसी तरह उन्हें
ऐसा लगता है कि गाड़ा जाएगा

पीपलों की पौध ढूँढी जाएगी
फिर उन्हें जड़ से उखाड़ा जाएगा

झूठ को आबाद करने के लिए
हर हक़ीक़त को उजाड़ा जाएगा

हम गुफ़ाओं को ग़नीमत मान लें
इस क़दर मौसम बिगाड़ा जाएगा.

रमल:(2122,2122,212)

ग़ज़ल 6.











ये कौन सी फ़ज़ा है ये कौन सी हवा
छाँवों का हर दरख़्त झुलसता चला गया

तुमसे मिले हुए भी हुईं मुद्दतें मगर
ख़ुद से मिले हुए भी तो अरसा बहुत हुआ

अहदे वफ़ा के साथ करें हम भी क्या सुलूक
तेरा भी क्या पता है मेरा भी क्या पता

मेरे सवाल जब न किताबों से हल हुए
मैंने तो ज़िन्दगी को मदरसा बना लिया

चलने को चल रहे हैं ज़माने के साथ हम
दिल में दबा हुआ बराबर गुबार-सा.

बहरे-मज़ारे:(1121,2121,1221,212)


ग़ज़ल 7.













ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा
अजीब शख़्स था वहमो—गुमान में ही रहा

तमाम उम्र कोई था निगाह में लेकिन
वो एक तीर जो अपनी उड़ान में ही रहा

कहाँ सुकून था लेकिन कहाँ तलाश किया
हर एक शख़्स फ़क़त आनबान में ही रहा

जहाँ भी मुड़ के कभी हमने ध्यान से देखा
बला का दोस्त भी अपने मचान में ही रहा

वो चार साल का बचपन गुज़र गया जब से
हर एक लम्हा किसी इम्तहान में ही रहा

शहर में करते तो हम किससे गुफ़्तगू करते
कि हमक़लम भी तो अपनी दुकान में ही रहा

बढ़ा के देख लिया हाथ हर दफ़ा हमने
सभी का हाथ तो अपनी थकान में ही रहा

कहीं पे शोर उठा या कहीं पे आग लगी
ज़हीन आदमी अपने मकान में ही रहा.

मजतस:(1212,1122,1212,112)

Saturday, September 27, 2008

तीन ग़ज़लें: द्विजेन्द्र द्विज









ग़ज़ल १

अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा

फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा

‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर
‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा

क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा

ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा




ग़ज़ल २

बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम

आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम

जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम

आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम

ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम

मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम




ग़ज़ल ३

कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में

वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में

ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में

घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में

धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में

जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में

सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में

सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में

Friday, September 26, 2008

जयंती- सरदार भगत सिंह



‘‘पिस्तौल और बम कभी इन्कलाब नहीं लाते,
बल्कि इन्कलाब की तलवार
विचारों की सान पर तेज़ होती है !’’
-भगतसिंह


एक शे’र जो भगत सिंह ने लिखा था-
कमाले बुज़दिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना
गरा ज़रा सी जूरत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता।
उभरने ही नहीं देती यह बेमाइगियां दिल की
नहीं तो कौन सा कतरा है, जो दरिया हो नहीं सकता।


सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 - 23 मार्च 1931) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे । इन्होने केन्द्रीय असेम्बली की बैठक में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया । जिसके फलस्वरूप भगत सिंह को 23 मार्च 1931) को इनके साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया । सारे देश ने उनकी शहादत को याद किया। इस महानायक को कोटि-कोटि नमन.

फ़िल्मी सितारों के जन्मदिन मनाने वाली युवा पीढ़ी और बम धमाकों से मरे लोगों के बीच खड़े होकर बार-बार विलायती सूट बदलने वाली सियासत और सब कुछ सहन करने वाले आम आदमी के लिए ही भगत सिंह ने अपनी कुर्बानी दी थी?? ?
भगत सिंह ने अपनी माँ से सही कहा था कि माँ! आजादी से कोई खास फ़र्क नही पड़ेगा बस गोरे लोगों की जगह अपने लोग आ जायेंगे.

पाश की कविता आज के दौर का कितना सही खाका खेंचती है...

सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना.
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से काम पर निकलना
और काम से घर जाना
सबसे खतरनाक़ होता है
हमारे सपनों का मर जाना.



भगत सिंह के शब्द याद रखें:
‘मैं यथार्थवादी हूं। मैं अपनी अंत प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं। ..प्रयत्न तथा प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।’

बेहतर कल के सपने लिए... भारत