Friday, July 30, 2010

शिव कुमार बटालवी की 75वीं बर्षगाँठ पर विशेष

















शिव कुमार बटालवी का जन्म
23, जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटियां, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, में हुआ था। 28 साल की उम्र में शिव को 1965 में अपने काव्य नाटक "लूणा " के लिये साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। उन्हे पंजाबी साहित्य का जान कीट्स भी कहा जाता है। केवल 36 साल की उम्र में वो 1973 की 6-7 मई की मध्य रात्रि को अपनी इन पंक्तियों को सच करता हुआ सदा के लिए विदा हो गया-

''असां ते जोबन रूते मरना, मुड़ जाणां असां भरे - भराये,
हिज़्र तेरे दी कर परक्रमा, असां तां जोबन रूते मरना..


दुनिया का मिज़ाज बहुत अजीव है। ये मुर्तियों को बहुत पूजती हैं लेकिन जो सामने है उसकी उपेक्षा करती है। किसी शायर ने सच कहा है-

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

आज शिव की बात याद आती है-"life is a slow suicide जो intellectual है वो धीरे-धीरे मरेगा " यही होता आया है और आगे भी शायद ऐसा ही होगा। ख़ैर! शिव की कही ये गज़ल सुनिए जो कुछ ऐसे ही अहसासों से लबरेज़ है-

Friday, July 23, 2010

स्व: श्री तलअत इरफ़ानी की गज़लें

तिलक राज वशिष्ट उर्फ़ तलअत इरफानी का जन्म पकिस्तान के गुजरांवाला तहसील के गाँव खनानी में हुआ । लेकिन बाद में वो कुरुक्षेत्र में आकर बस गए। नज़्म और ग़ज़ल बड़ी संज़ीदगी से कहते थे । 2003 में वो इस दुनिया को सदा के लिए विदा कह गए। आप स्व: मनोहर साग़र पालमपुरी के भी अज़ीज दोस्त थे । उनकी कुछ गज़लें आपके लिए पेश कर रहा हूँ और ये उस शायर के लिए "आज की ग़ज़ल" की तरफ से श्रदांजलि है।

ये शे’र देखिए "जटा और गंगा" जैसे शब्दों का बेमिसाल प्रयोग-

उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में

और ये देखिए -

छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में

गज़लीयत के साथ-साथ अनोखी और अनूठी कहन -

छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है

रंगे-तसव्वुफ़-

दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है

इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और ये बेमिसाल है -

उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता

खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उड़ी
तलअत तमाम गाँव का नक़्शा संवर गया


खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया

ऐसा शायर शायरी के बारे में क्या कहता है पढ़िए एक छोटी सी खूबसूरत नज़्म-

मैं जब- जब,
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीयत
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपने आप ज़बां में ढल जाता है
दूर अन्धेरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।

शिमला की याद में ये शे’र -

यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ
दोस्तो! जेबों से बाहर आओ भी

ग़ज़ल कैसी हो? और शे’र कैसे कहा जाया? कहन क्या है और कैसी होनी चाहिए? गज़लीयत क्या है , परवाज़ क्या है ? कल्पना क्या है ? और नये शब्द कैसे प्रयोग किए जाएँ? इन सब सवालों का जवाब हैं तलअत साहब की शायरी।

लीजिए अब ये गज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दास्तानों से

धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से

समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से

यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से

वो अन्दर का सफर था या सराबे-आरज़ू यारो
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से

लचकते बाजुओं का लम्ज़* तो पुरकैफ़ था "तलअत"
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दास्तानों से

लम्ज़-दोष लगाना

बहरे-हज़ज
मुफ़ाईलुऩ x 4

दो

बुझा है इक चिराग़े-दिल तो क्या है
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है

तुम्हीं से जब नही कोई तअल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है

तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है

सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है

कहीं मुँह चूम ले उसका न कोई
वो शायद इस लिए कम बोलता है

हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत
हमी को दर्द ने रुसवा किया है

हयात इक दार है "तलअत" की जिस पर
अज़ल से आदमी लटका हुआ है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

तीन

बदन उसका अगर चेहरा नहीं है
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है

दरख़्तों पर वही पत्ते हैं बाकी
कि जिनका धूप से रिश्ता नहीं है

वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है

सभी चेहरे मुक़म्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है

वही रफ़्तार है "तलअत" हवा की
मगर बादल का वह टुकड़ा नहीं है

बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

चार

बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी

शाख़ों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी

सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी

कुछ लोग रस्सियों के सहारे खड़े रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी

कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी

तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ सूरत)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

Friday, July 16, 2010

निश्तर ख़ानक़ाही की दो गज़लें














1930 में बिजनौर(उ.प्र) में जन्में निश्तर ख़ानक़ाही साहब के अब तक पाँच गज़ल संग्रह छ्प चुके हैं और कई साहित्यक सम्मान भी ये हासिल कर चुके हैं।संजीदगी और दुख-दर्द का अनूठा बयाँ हैं उनकी गज़लें। कुछ शे’र मुलाहिज़ा कीजिए और शायर के क़द का अंदाज़ अपने आप हो जाएगा-

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए


हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रहीं हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरी है ,न आसमान मेरा

धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया

लीजिए इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-

एक

सौ बार लौहे-दिल* से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़े-हक़ कि भुलाया गया मुझे

लिक्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कतबा* मक़बरों में दबाया गया मुझे

महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स से
खुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे

पिन्हाँ थी मेरे जिस्म में कई सूरजों की आँच
लाखों समुंदरों में बुझाया गया मुझे

किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे

मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे

लौहे-दिल-ह्रदय-पट्ल, बे-कतबा-बिना शिलालेख वाले

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो

तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए

अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों मे फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए

अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए

अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकरां* है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए

किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए

काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए

*बहरे-बेकरां -अथाह सागर

बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

Tuesday, July 6, 2010

राजेश रेड्डी की दो ग़ज़लें
















22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया। आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं । जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं । इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-

एक

गिरते-गिरते एक दिन आखिर सँभलना आ गया
ज़िंदगी को वक़्त की रस्सी पे चलना आ गया

हो गये हैं हम भी दुनियादार यानी हमको भी
बात को बातों ही बातों में बदलना आ गया

बुझके रह जाते हैं तूफ़ाँ उस दिये के सामने
जिस दिये को तेज़ तूफ़ानों में जलना आ गया

जमअ अब होती नहीं हैं दिल में ग़म की बदलियाँ
क़तरा-क़तरा अब उन्हें अश्कों में ढलना आ गया

दिल खिलौनों से बहलता ही नहीं जब से उसे
चाँद-तारों के लिए रोना मचलना आ गया

(रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत)

दो

सोचा न कभी खाने कमाने से निकलकर
हम जी न सके अपने ज़माने से निकलकर

जाना है किसी और फ़साने में किसी दिन
आये थे किसी और फ़साने से निकलकर

ढलता है लगातार पुराने में नया दिन
आता है नया दिन भी पुराने से निकलकर

दुनिया से बहुत ऊब कर बैठे थे अकेले
अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर

किस काम की यारब तेरी अफ़सानानिग़ारी
किरदार भटकते हैं फ़साने से निकलकर

चहरों की बड़ी भीड़ में दम घुट सा गया था
साँस आई मेरी आइनाख़ाने से निकलकर

कोशिश से कहाँ हमने कोई शे’र कहा है
आये हैं गुहर ख़ुद ही ख़ज़ाने से निकलकर

हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ालुन
22 11 22 11 22 11 22

Wednesday, June 30, 2010

देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' की ग़ज़लें

1 अप्रैल 1934 में आगरा जनपद में जन्मे देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र' मूलत: गीतकार हैं जिनके गीतों पर सैंकड़ों छात्रों ने शोध किया है। आपने प्रशासनिक सेवा की जगह अध्यापन को तरजीह देते हुए दिल्ली विश्व्व-विद्यालय में अध्यापन किया। इनके गीत-संग्रहों की एक लम्बी सूची है। हाल ही में इनके दो ग़ज़ल संग्रह`धुएँ के पुल` तथा "भूला नहीं हूँ मैं" प्रकाशित हुए हैं।
प्रयोग और रिवायत का अनूठा संगम हैं इनकी शायरी। देखिए ये मतला जिसमें काफ़िए और रदीफ़ को अनूठे ढंग से पेश किया । "में तुम " और "में हम" दोहरी रदीफ़ और "सफ़र" , "घर" आदि काफ़िए का भी दोहराव एक ही मिसरे में।

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू , सफ़र में तुम, सफ़र में हम

और एक बेमिसाल शे’र देखिए-

दिखतीं लहू-लुहान क्यों तितली की उँगलियां
काँटों में एक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल


और लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें -

ग़ज़ल

मुसलसल रंजो-ग़म सहने का ख़ूगर जो हुआ यारो
ख़ुशी दो लम्हों की देकर उसे बेमौत मत मारो

मेरी राहों मे आकर क्यों मेरे पाँवो में चुभते हो
मुहाफ़िज़ बनके फूलों के चमन में तुम खिलो यारो

नहीं इस जुर्म की कोई ज़मानत होते देखी है
असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ और मुहब्बत के गिरफ़तारो

न अब वो मैक़दे साक़ी-ओ-पैमाना उधर होंगे
जहाँ तुम शाम होते ही चले जाते थे मैख़्वारो

रखा क्या है अज़ीयत के सिवा इस गोशा-ए-दिल में
कहाँ तुम आ गए हो ऐशो-इश्रत के तलबगारो

*ख़ूगर -आदी

हज़ज की सालिम शक्ल
मुफ़ाईलुन x 4

ग़ज़ल

अपने में लाजवाब है कहते जिसे ग़ज़ल
सहरा में इक सराब है कहते जिसे ग़ज़ल

अब मकतबों या मयक़दों में फ़र्क़ क्या करें
लफ़्ज़ों में इक शराब है कहते जिसे ग़ज़ल

जो भी इसे है देखता शैदाई वो हुआ
कमसिन का इक शबाब है कहते जिसे ग़ज़ल

वो पूछते हैं हमसे करें हम भी क्या बयाँ
गूंगे का एक ख्वाब है कहते जिसे ग़ज़ल

दिखतीं लहू-लुहान क्यूँ तितली की उँगलियां
काँटों में इक गुलाब है कहते जिसे ग़ज़ल

पढना इसे तो थाम के दिल को पढ़ो जनाब
अश्कों की इक किताब है कहते जिसे ग़ज़ल

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
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ग़ज़ल

डगर में साथ-साथ हैं , न घर में तुम, न घर में हम
न फिर भी कोई गुफ़्तगू सफ़र में तुम, सफ़र में हम

अलग-अलग हैं बस्तियाँ , जुदा-जुदा भी हैं पते
हमारे ख़त मिले तुम्हें, शहर में तुम, शहर में हम

मुक़ाम है वो कौन सा जहाँ पे वो नहीं रहा
वो देखता सभी को है , नज़र में तुम, नज़र में हम

तुम्हारे पास रूप है हमारे पास रंग है
जो फूल तुम तो बर्ग मैं , शजर में तुम, शजर में हम

ख़ुदा-ओ-नाख़ुदा सभी बचाने तुमको आ गए
हमारी कश्ती डूबती , भँवर में तुम , भँवर में हम

तुम एक इश्तिहार हो, मैं ज़िक़्रे-नागवार हूँ
ज़ुबां पे तुम ज़हन में हम, खबर में तुम, खबर में हम

हज़ज मसम्मन मक़बूज़-
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4

Tuesday, June 22, 2010

अनमोल शुक्ल और वीरेन्द्र जैन की ग़ज़लें

1957 में हरदोई(उ.प्र) में जन्में अनमोल शुक्ल पेशे से सिविल इंजीनियर हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इनकी इस ग़ज़ल ने मुझे बहुत प्रभावित किया जिसे आज हम पेश करेंगे। अच्छे शे’र की बड़ी सीधी सी पहचान है कि इन्हें सुनकर बरबस मुँह से वाह निकल जाती है। एक ग़ज़ल संग्रह भी आपका शाया हो चुका है जिसे ये जल्द मुझ तक पहुँचा रहे हैं तो फिर कुछ और ग़ज़लों इसी मंच पर सांझा करेंगे। इनकी कई ग़ज़लें ग़ज़ल संकलनों में शामिल की गईं हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" में भी कुछ ग़ज़लें शाया हो चुकी हैं। सो मुलाहिज़ा कीजिए ये खूबसूरत ग़ज़ल-

अनमोल शुक्ल

आपने किस्मत में मेरी क्यों लिखा ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र

हमसफ़र,हमराज़ हो,हमदर्द हो या हमख़याल
फिर तो कट जाता है मीलों दूर तक लंबा सफ़र

भीड़ चारों ओर जितनी है यहाँ रह जाएगी
मुझको भी करना पड़ेगा एक दिन तनहा सफ़र

मंज़िलों की, काफ़िलों की, हौसलों की बात कर
क्या हुआ जो बीच रस्ते में तेरा टूटा सफ़र

जिन परिंदों के परों के हौसले ज़ख्मी रहे
उनसे हो पाया न कोई भी, कभी ऊँचा सफ़र

मुश्किलों, दुश्वारियों से जूझते "अनमोल" ने
जितना भी काटा है हँसकर, बोलकर काटा सफ़र

रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
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अनमोल जी से आप इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं-09412146255

अब आज के दूसरे शायर हैं श्री वीरेन्द्र जैन इन्होंने बैंक निराक्षक के रूप में उत्तर प्रदेश में काम किया है। आप जनवादी लेखक संघ भोपाल की इकाई के अध्यक्ष भी रहे हैं और व्यंग्य की चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं और ग़ज़ल भी बाखूबी कहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पूरे समय लेखन व पत्रकारिता में जुटे हुए हैं।
पिछले पोस्ट में सदा अम्बालवी की ग़ज़लें प्रकाशित की तो सोचा इस बार सबको मेल नहीं करूँगा , लोग चिड़ जाते हैं ऐसे स्पैम मेल से। जब कामेंट देखे तो तीन। द्विज जी कहने लगे ब्लाग तो अच्छा है लेकिन कामेंट ३ ही हैं। फिर अचानक ओशो की किताब पढ़ रहा था जिसमें एक रोचक कहानी थी कि एक बार एक इश्तिहार वाला किसी बड़ी कंपनी के मालिक के पास शाम के वक़्त विज्ञापन लेने गया तो मालिक ने कहा - भई हमारी कंपनी तो स्थापित हो चुकी है। हम क्यों विज्ञापन दें, तो थोड़ी देर बाद चर्च के घंटे की आवाज़ सुनाई दी तो वो आदमी तपाक से बोला हज़ूर ये चर्च कोई २०० साल पुरानी है लेकिन फिर भी घंटा बजा के चेताती है कि आ जाइए। सो यहाँ भी कुछ ऐसा ही है मेल करना भी घंटा बजाने जैसा ही है। प्रसार के साथ-साथ प्रचार भी ज़रूरी है। खैर मुलाहिज़ा कीजिए वीरेन्द्र जी की ये ग़ज़ल

वीरेन्द्र जैन

हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है

न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है

समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है

तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है

जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122

शायर का पता:
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (म.प्र) 462023
फोन 0755-2602432 मोबाइल 9425674629
Email- j_virendra@yahoo.com

Tuesday, June 15, 2010

सदा अम्बालवी की ग़ज़लें

राजेन्द्र पाल सिंह उर्फ़ सदा अम्बालवी की तीन ग़ज़लें आज शाया कर रहे हैं। आप पंजाब एंड सिंध बैंक में कायर्रत हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह शाया हो चुके हैं और कुछ ग़ज़लें अच्छे ग़ज़ल गायकों ने भी गाईं हैं और पत्र-पत्रिकाओं में आप अकसर छपते रहते हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह के पेश-लफ़्ज़ में आप ने कहा है-"ग़ज़ल की पाबंदियाँ अकसर शायरों को खलती रही हैं। इसमें कोई शक़ नहीं ग़ज़ल के शे’र घड़ने में मेहनत और कविश दरकार है। बहुत से शायरों ने इस मेहनत से बचने के लिए ग़ज़ल के उसूलों को दरकिनार कर दिया और इसे जदीदियत का नाम दे दिया जबकि सच्चाई ये है कि ग़ज़ल के उसूलों को निभाते हुए और उसके मिज़ाज को कायम रखते हुए भी उसमें नये रंग भरने की गुंज़ाइश है"ये बात बिल्कुल सही भी है। ग़ज़ल का हुस्न इसके उसूलों से ही है। जब तक कोई मिसरा बहर में ढल नहीं जाता उसमें कशिश पैदा नहीं होती। अगर बिना बहर के कहना है तो नज़्म कह लें ग़ज़ल ही क्यों । जदीदियत ख़यालों मे होनी चाहिए। आप ग़ज़ल की बुनियाद (अरूज़)के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते , इसके उपर महल अपनी मर्ज़ी का बना सकते हो। उर्दू ज़बान में अलग-अलग भाषाओं की मिठास है और इसका अपना एक ख़ास मिज़ाज है। इसी मिज़ाज को अपने दामन में समेटे हुए हाज़िर हैं अम्बालवी साहब की ये ग़ज़लें-

शे’र मेरे तो हैं बस हर्फ़े-तसल्ली की तरह
मैं मसीहा नहीं सूली पे चढ़ाओ न मुझे

एक

यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई

क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई

कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई

लाख ताकीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक अहतियात हुई

इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई

क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई

शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई

क्या थी मुशकिल *विसाले-हक़ में "सदा"
तुझ से बस रद्द न तेरी ज़ात हुई

*विसाले-हक़--प्रभु मिलन

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

दो

दिल न माना मना के देख लिया
लाख समझा-बुझा के देख लिया

वो जो मूसा ने तूर पर देखा
हमने पर्दा उठाके देख लिया

लोग कहते हैं दिल लगाना जिसे
रोग वो भी लगा के देख लिया

बेवफ़ाई है तेरी रग-रग में
आज़मा, आज़मा के देख लिया

ज़ख्म दिल का है लादवा यारो
चारागर को दिखाके देख लिया

उनसे निभता नहीं कोई रिश्ता
दोस्त, दुशमन बना के देख लिया

उनका नज़रें चुरा के देखना भी
उनसे नज़रें चुरा के देख लिया

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ालुन
2122 1212 22/112

तीन

दाग़े-दिल दुनिया की नज़रों से छुपाने के लिए
दिल जो रोए भी तो हँस देंगे दिखाने के लिए

लीजिए *रस्में-मुदारात निभाने के लिए
हम भी पी लेते हैं यारों को पिलाने के लिए

ज़िंदगी रस्म है इक मौत से पहले शायद
साँस लेते रहो तुम रस्म निभाने के लिए

ख़ान-ए-दिल पे तेरी याद है क़ाबिज़ वर्ना
दर्द क्या-क्या नहीं इस घर को सजाने के लिए

रंग लाई है "सदा" खूब तेरी *हक़गोई
चार कांधे न मिले लाश उठाने के लिए

रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

हक़गोई-सच बयानी , रस्में-मुदारात -मेहमाँ नवाज़ी