हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है
जन्म 15 मार्च 1927, निधन 28 अक्टूबर 2011
प्रकाशित कृतियाँ
‘
प्यासे जाम’ ( सन 1973–देवनागरी लिपि में)
‘लफ़्ज़ों की दीवार ‘ (सन 1993 –उर्दू लिपि में)
शीघ्र प्रकाश्य
‘कागज़ का धुँआ’
‘धूप का सफ़र’‘हरदयाल सिंह दत्ता’ उर्फ़ कँवल ज़िआई 28 अक्टूबर को परम-पिता प्रमात्मा में विलीन हो गए। लेकिन अपने पीछे अदब का बहुत बड़ा सरमाया छोड़ गए और उनकी ये ग़ज़लें उन्हें हमेशा हमारे बीच होने का अहसास करवाती रहेंगी। उनके बेटे यशवंत दत्ता जी ने एक साईट बनाई है इसमें उनके बारे में तमाम जानकारी उन्होंने दी है, लिंक है-
http://kanwalziai.com/आज उनकी खूबसूरत ग़ज़लें सांझा कर रहा हूँ और इस मंच की तरफ़ से और इस मंच से जुड़े पाठकों की तरफ़ से इस अज़ीम शायर को विनम्र श्रदाँजलि।
ग़ज़ल
वक्त बाज़ी बदल गया बाबा
मौत का वार चल गया बाबा
ज़ेहन शेरों में ढल गया बाबा
खोटा सिक्का था चल गया बाबा
रह गयी गर्दे कारवां बाक़ी
कारवां तो निकल गया बाबा
अपनी मस्जिद को रो रहा है तू
मेरा मंदिर भी जल गया बाबा
एक हथियार के खिलौने से
एक पागल बहल गया बाबा
तेरे भाई की बात तू जाने
मेरा भाई बदल गया बाबा
जिन दरख्तों ने साये बांटे थे
उन दरख्तों का फल गया बाबा
ग़ज़ल परख फज़ा की, हवा का जिसे हिसाब भी है
वो शख्स साहिबे फन भी है, कामयाब भी है
जो रूप आप को अच्छा लगे वो अपना लें
हमारी शख्सियत कांटा भी है ,गुलाब भी है
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे जिस्म में गंगा भी है ,चनाब भी है
हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है
किसी ग़रीब की रोटी पे अपना नाम न लिख
किसी ग़रीब की रोटी में इन्क़लाब भी है
मेरा सवाल कोई आम सा सवाल नहीं
मेरा सवाल तेरी बात का जवाब भी है
इसी ज़मीन पे हैं आख़री क़दम अपने
इसी ज़मीन में बोया हुआ शबाब भी है