
मिसरा-ए-तरह :
"मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1.ग़ज़ल:
नवनीत शर्मान जान बाकरार है, न कोई ग़मगुसार है
दुकान-ए-इश्क़ का मियाँ ये आम कारोबार है
जो ज़र्दियों के कारवाँ की धूल शहसवार है
तुम्हें भी बादलो कहो, सदा का इंतजार है
ज़मीन ग़मगुसार है, पहाड़ अश्कबार है
निगाह-ए-ख़ुश्क को यहाँ किसी का इंतजार है
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
निज़ाम आपका अजब, जिरह दलील कुछ नहीं
जो क़त्ल करके चल दिया वो ऊँट बेमुहार है
निगाह साफ़ थी मेरी, तेरी नज़र भी पाक थी
हमारे सामने मगर, कहाँ का ये ग़ुबार है
ये हाल ज़ात का मेरी, तलाश है मुझे मेरी
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ख़िज़ाँ में जज़्ब हो के अपने ख़ात्मे की देर थी
ये सब ने कह दिया कि अब बहार ही बहार है
कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है
तुम्हीं हो उसकी सोच में, तुम्हीं हो जान बेटियो
उदास है पिता बहुत कि हाँफता कहार है
जहाँ भी रोशनी दिखे, वहीं पे तीरगी मिले
कहूँ मैं क्या कि सामने ये कौन सा दयार है
जो रंग पैरहन का है वही है रंग जिस्म का
बता ही देंगी बारिशें कि वो रंगा सियार है

2.ग़ज़ल:
जगदीश रावतानी
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ग़ुरुर टूटने पे ही समझ सका सचाई को
जो है तो बस ख़ुदा को ज़िन्दगी पे इख़्तियार है
मेरे लबों पे भी ज़रूर आएगी हँसी कभी
न जाने कब से मेरे आईने को इंतज़ार है
मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है
मैं तेरी याद दफ़न भी करूँ तो तू बता कहाँ
कि तू ही तू फ़क़त हरेक शक्ल में शुमार है
अभी तो हाथ जोड़ कर जो कह रहा है वोट दो
अवाम को पता है ख़ुदगरज़ वो होशियार है
डगर-डगर नगर-नगर मैं भागता रहा मगर
सुकूँ नहीं मिला कहीं न मिल सका करार है
वो क्यों यूँ तुल गया है अपनी जान देने के लिए
दुखी है जग से या जुड़ा ख़ुदा से उसका तार है
कभी तो आएँगी मेरी हयात में उदासियाँ
बहुत दिनों से दोस्तों को इसका इंतज़ार है

3.ग़ज़ल:
डी.के. मुफ़लिस
कली-कली संवर गयी , फ़िज़ा भी ख़ुशगवार है
मेरी तरह इन्हें भी तो तुम्हारा इंतज़ार है
अजब ये दौरे-कशमकश , अजब-सा ये दयार है
यक़ीन है किसी पे अब , न ख़ुद पे ऐतबार है
जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है
क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम
मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
मुक़ाबिला कड़ा है , कैसे जीत पाऊँगा भला ?
तेरी यही तो सोच तेरी जिंदगी की हार है
किसे सुनाऊँ दास्तान , हाले-दिल कहूँ किसे
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बे-करार है
रदीफ़ो-क़ाफ़िया तो इस दफ़ा भी बस में हैं, मगर
अरूज़ो-बह्र सख़्त है , ज़मीन ख़ारज़ार है
सुख़नवरों में हो रहा है जिसका ज़िक्र आजकल
अदब-नवाज़ , ‘मुफ़्लिस’-ए-अज़ीज़ , ख़ाक़सार है

4. ग़ज़ल -
कवि कुलवंतये क्या हुआ मुझे न आज ख़ुद पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मेरे तो रोम-रोम में बसा उसी का प्यार है
किया है प्यार दिल ने तो वही क़ुसूरवार है
भुला के उसने प्यार को ग़ुरूर हुस्न का किया
हमें तो इक सदी से बस उसी का इंतज़ार है
महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है
है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है
हवा दहक उठी मिला जो संग आफताब का
नियम ये सृष्टि का जो समझे हर जगह शुमार है.

5.ग़ज़ल :
अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी
करम का उनके सिलसिला यह मुझपे बार बार है
सुकूने-दिल पे अब कहाँ किसी को इख़्तियार है
चली है बादे-सुबह जो ख़ेराम-ए-नाज़ से अभी
महक उठी कली-कली गुलों पे भी निखार है
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है
हसद का नाम भी न ले खिज़ाँ का ज़िक्र भी न कर
मेरे चमन में हर तरफ बहार ही बहार है
खिज़ां नसीब तू मेरे चमन में क्यूँ ठहर गई
शबे- फ़िराक़ जा तुझे सलाम बार बार है