
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर अतिंम छ: ग़ज़लें.सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया . ये सब द्विज जी के आशीर्वाद से मुमकिन हो रहा है. अगला मिसरा-ए-तरह जल्द दिया जायेगा.नये शायरों को भी हम मौका दे रहे हैं ताकि वो भी आगे आ सकें .
पवनेन्द्र ‘पवन’
अपना-अपना ख़ुदा नहीं होता
ख़ून इतना बहा नहीं होता
सुन के भी अब तो हर तरफ़ चीख़ें
दर्द दिल में ज़रा नहीं होता
कौन करता सुमन-सा दिल अर्पित
तू अगर देवता नहीं होता
चल यक़ीं करके हमसफ़र के साथ
शख़्स हर बेवफ़ा नहीं होता
आग झुलसा के ठूँठ छोड़ गई
अब ये जंगल हरा नहीं नहीं होता
मोजिज़ा होता है मगर सुनिए
मोजिज़ा हर दफ़ा नहीं होता
ये भरे पेट किलबिलाता है
भूख में फ़लसफ़ा नहीं होता
दिल जो लोगे तो दर्द भी लोगे
दर्द दिल से जुदा नहीं होता
जो समझता नहीं ख़ुदा ख़ुद को
आदमी गुमशुदा नहीं होता
यार बन सकता है अदू भी तो
क्या ज़हर भी दवा नहीं होता
होते काँटे न मन की बगिया में
दिल अगर फूल-सा नहीं होता
हो गये सब को हम पराए अब
कोई हम से ख़फ़ा नहीं होता
साथ रहता है जब तलक वो ‘पवन’
मुझको मेरा पता नहीं होता

जगदीश रावतानी आनंदम
दिल अगर फूल सा नही होता
यू किसी ने छला नही होता
था ये बेहतर कि कत्ल कर देते
रोते रोते मरा नही होता
दिल में रहते है दिल रुबाओं के
आशिकों का पता नही होता
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नही तब तक
इश्क जब तक हुआ नही होता
होश में रह के ज़िन्दगी जीता
तो यू रुसवा हुआ नही होता
जुर्म हालात का नतीजा हैं
आदमी तो बुरा नही होता
ख़ुद से उल्फत जो कर नही सकता
वो किसी का सगा नही होता
क्यों ये दैरो हरम कभी गिरते
आदमी गर गिरा नही होता

दर्पन शाह दर्पन
हुस्न गुलशन हुआ नहीं होता
दिल अगर फूल सा नही होता.
आदमी ने कहा नहीं होता
तो खुदा भी खुदा नहीं होता
जाते जाते बता गया वो मुझे
दूर माने जुदा नहीं होता
अक्स शायद बदल गया मेरा
आइना बेवफा नहीं होता
आँख से खूँ टपक गया 'ग़ालिब '
अब रगों में जमा नहीं होता

प्रकाश अर्श
रंग-ओ-बू पर फ़िदा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
आप आकर गए क्यों महफ़िल से
इस तरह हक़ अदा नहीं होता
सब से अक्सर यही मैं कहता हूँ
बा-वफ़ा बे-वफ़ा नहीं होता
कौन कहता है कुछ नहीं मिलता
इश्क़ में क्या छुपा नहीं होता
दिल की कह तो मैं देता उनसे मगर
क्या करूं हौसला नहीं होता

देवी नांगरानी
शोर दिल में मचा नहीं होता
गर उसे कुछ हुआ नहीं होता
काश ! वो भी कभी बदल जाते
सोच में फासला नहीं होता
कुछ ज़मीं में रही कशिश होगी
वर्ना नभ यूँ झुका नहीं होता
झूठ के पाँव क्यों ठिठकते गर
देख सच, वो डरा नहीं होता
अपना नुक्सान यूँ न वो करता
तैश में आ गया नहीं होता
नज़रे-आतिश न होती बस्ती यूँ
मेरा दिल गर जला नहीं होता
दर्द 'देवी' का जानता कैसे
गम ने उसको छुआ नहीं होता

सतपाल ख्याल
अपना सोचा हुआ नहीं होता
वर्ना होने को क्या नहीं होता
उसकी आदत फ़कीर जैसी है
कुछ भी कह लो खफ़ा नहीं होता
न मसलते यूँ संग दिल इसको
दिल अगर फूल-सा नहीं होता.
याद आते न शबनमी लम्हे
ज़ख़्म कोई हरा नहीं होता
ख्वाब मे होती है फ़कत मंज़िल
पर कोई रास्ता नहीं होता
इश्क़ बस एक बार होता है
फिर कभी हौसला नहीं होता
हद से गुज़रे हज़ार बार भले
दर्द फिर भी दवा नहीं होता
दोस्ती है तो दोस्ती मे कभी
कोई शिकवा गिला नहीं होता
मुफ़लिसी में ख़याल अब हमसे
कोई वादा वफ़ा नहीं होता




