द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-

द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो