1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.

लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं
ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं
बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं
बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं
जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं
हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं
(8 felun)