“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
*****
“मैं
कहां और ये वबाल कहां”
हिज्र मिलता है बस विसाल कहां
झूठ सच का रहा सवाल कहां
बस्तियां जल के ख़ाक हो जायें
हुक्मरां को कोई मलाल कहां
मज़हबी वो फ़साद करते हैं
रहबरों से मगर सवाल कहां
दौर "मासूम" ये हुआ कैसा
खो चुका आदमी जमाल कहां
*****
आरज़ू
लखनवी - १८७३-१९५१ 
ग़ज़ल
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी
कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी
बहा ले गया बरसात का पहला पानी
टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ
कही
खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी
बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका
आरजू
देखते ही मुँह में भर आया पानी
ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम
"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी 
छंद - अगर हमें हिन्दी कविता लिखनी है तो छंद का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है | ग़ज़ल कहने के लिए छंद को समझने की ज़रूरत नहीं है | दोनों एक दुसरे से अलग हैं | ग़ज़ल कहने के लिए बहर को जानना जरूरी है | छंद या मात्रिक होते हैं या वर्ण आधारित ,जिसमें मात्रओं की गिनती आदि की जाती है लेकिन बहर में मात्राएँ नहीं गिनी जाती | बहर का अपना अलग तरीक़ा है ,जिसमें किसी एक मिसरे (पंक्ति ) को छोटी -बड़ी आवाज़ों को एक फिक्स्ड पैटर्न में लिखा जाता है जिसे हम हिन्दी में गुरू -लघु की तरह लिखकर सीख सकते हैं | एक शब्द को कैसे तोड़ना ,कैसे उसका वज्न लिखना आदि सीखा जाता है |
इस विषय को आप इस पोस्ट के लिंक पर जाकर विस्तार से पढ़ सकते हैं -