Friday, May 23, 2014

सिराज फ़ैसल खान


















ग़ज़ल


ज़मीं पर बस लहू बिखरा हमारा
अभी बिखरा नहीं जज़्बा हमारा

हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा 


मिलाकर हाथ सूरज की किरन से
मुखालिफ़ हो गया साया हमारा

रकीब अब वो हमारे हैं जिन्होंने
नमक ताज़िन्दगी खाया हमारा

है जब तक साथ बंजारामिज़ाजी
कहाँ मंज़िल कहाँ रस्ता हमारा

तअल्लुक तर्क कर के हो गया है
ये रिश्ता और भी गहरा हमारा

बहुत कोशिश की लेकिन जुड़ न पाया
तुम्हारे नाम में आधा हमारा

इधर सब हमको कातिल कह रहे हैं
उधर ख़तरे में था कुनबा हमारा

Wednesday, April 23, 2014

दानिश भारती

 

 

 

 



 

ग़ज़ल

पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना

रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना

वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना

मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना

खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना

सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना

चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना

आएँ कितने भी इम्तेहां  "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना

Saturday, April 19, 2014

विकास राना की एक ग़ज़ल

                                        










एक बहुत होनहार और नये लहज़े के मालिक विकास राना "फ़िक्र" साहब की एक ग़ज़ल हाज़िर है-

ग़ज़ल

आदमी कम बुरा नहीं हूँ मैं

हां मगर बेवफा नहीं हूँ मैं

मेरा होना न होने जैसा है
जल चुका हूँ, बुझा नहीं हूँ मैं

सूरतें सीरतों पे भारी हैं
फूल हूँ, खुशनुमा नहीं हूँ मैं

थोड़ा थोड़ा तो सब पे ज़ाहिर हूँ
खुद पे लेकिन खुला नहीं हूँ मैं

रास्ते पीछे छोड़ आया हूँ
रास्तो पे चला नहीं हूँ मैं

ज़िंदगी का हिसाब क्या दूं अब
बिन तुम्हारे जिया नहीं हूँ मैं 

धूप मुझ तक जो आ रही है " फ़िक्र "
यानी की लापता नहीं हूँ मैं

Friday, March 28, 2014

मासूम ग़ाज़ियाबादी












 ग़ज़ल
 
कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी 
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी 

कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी 
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी

अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी 
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी

किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना 

कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी 

खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी

यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब 
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी

जो सीखा है किसी "मासूम" को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी
 

Wednesday, March 19, 2014

बलवान सिंह "आज़र"













गज़ल

जिन्दगी कुछ थका थका हूँ मैं
देख ले लड़खड़ा रहा हूँ मैं

रेत में ढूँढता रहा मोती
क्या कहूं कितना बावला हूँ मैं

जा चुका मेरा काफिला आगे
था जहां पर वहीं खड़ा हूँ मैं


खूबियां पूछता है क्यों मेरी
कुछ बुरा और कुछ भला हूँ मैं

अपनी सूरत कभी नहीं देखी
लोग कहते हैं आइना हूँ मैं

Monday, March 10, 2014

जतिन्दर परवाज़

                                                           






 




ग़ज़ल 

सहमा सहमा हर इक चेहरा मंज़र मंज़र खून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर


तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर

बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर

आ भी जा अब आने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर

जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर

Saturday, March 8, 2014

ग़ज़ल- दीक्षित दनकौरी












ग़ज़ल

चलें हम रुख़ बदल कर देखते हैं
ढलानों पर फिसल कर देखते हैं 


ज़माना चाहता है जिस तरह के
उन्हीं सांचों में ढल कर देखते हैं 


करें ज़िद,आसमां सिर पर उठा लें
कि बच्चों-सा मचल कर देखते हैं


हैं परवाने, तमाशाई नहीं हम
शमा के साथ जल कर देखते हैं 


तसल्ली ही सही,कुछ तो मिलेगा
सराबों में ही चल कर देखते हैं