Saturday, February 7, 2015

ग़ज़ल-विजय धीमान












मेरे अज़ीज दोस्त विजय धीमान की एक खूबसूरत ग़ज़ल-

अपने कौन पराये कौन
हमको ये समझाये कौन।

बस इक ही मुशकिल है प्यारे
सच को सच बतलाये कौन।


गांठ के ऊपर गांठ लगी है
इसको अब सुलझाये कौन।

दिल से दिल की बात हुई पर
दिल की बात बताये कौन।

उसका आना नामुमकिन है
लेकिन उस तक जाये कौन।

अंधी नगरी चौपट राजा
इसको रस्ते लाये कौन।

बादल आखिर बादल ठहरा
परबत को समझाये कौन।

बहर के पक्ष की अगर बात करूँ तो - २२ २२ २२ २२ और २२ २२ २२ २१ ,कुछ इस तरह का प्रयोग जगजीत की गाई ग़ज़ल में भी मिलता है- मुँह की बात सुने हर कोई,दिल के दर्द को जाने कौन।बहर को लेकर मतभेद हो सकता है॥


Thursday, June 26, 2014

मयंक अवस्थी
















 
ग़ज़ल

बम फूटने लगें कि समन्दर उछल पड़े
कब ज़िन्दगी पे कौन बवंडर उछल पड़े

दुश्मन मिरी शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े

गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम
इक चाँद क्या दिखा कि समन्दर उछल पड़े

मत छेड़िये हमारे चरागे –खुलूस को
शायद कोई शरार ही , मुँह पर उछल पड़े

घोड़ों की बेलगाम छलाँगों को देख कर
बछड़े किसी नकेल के दम पर उछल पड़े

गहरी नहीं थी और मचलती थी बेसबब
ऐसी नदी मिली तो शिनावर उछल पड़े

यूँ मुँह न फेरना कि सभी दोस्त हैं “ मयंक”
कब और कहाँ से पीठ पे खंज़र उछल पड़े

Friday, May 23, 2014

सिराज फ़ैसल खान


















ग़ज़ल


ज़मीं पर बस लहू बिखरा हमारा
अभी बिखरा नहीं जज़्बा हमारा

हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा 


मिलाकर हाथ सूरज की किरन से
मुखालिफ़ हो गया साया हमारा

रकीब अब वो हमारे हैं जिन्होंने
नमक ताज़िन्दगी खाया हमारा

है जब तक साथ बंजारामिज़ाजी
कहाँ मंज़िल कहाँ रस्ता हमारा

तअल्लुक तर्क कर के हो गया है
ये रिश्ता और भी गहरा हमारा

बहुत कोशिश की लेकिन जुड़ न पाया
तुम्हारे नाम में आधा हमारा

इधर सब हमको कातिल कह रहे हैं
उधर ख़तरे में था कुनबा हमारा

Wednesday, April 23, 2014

दानिश भारती

 

 

 

 



 

ग़ज़ल

पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना

रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना

वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना

मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना

खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना

सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना

चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना

आएँ कितने भी इम्तेहां  "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना

Saturday, April 19, 2014

विकास राना की एक ग़ज़ल

                                        










एक बहुत होनहार और नये लहज़े के मालिक विकास राना "फ़िक्र" साहब की एक ग़ज़ल हाज़िर है-

ग़ज़ल

आदमी कम बुरा नहीं हूँ मैं

हां मगर बेवफा नहीं हूँ मैं

मेरा होना न होने जैसा है
जल चुका हूँ, बुझा नहीं हूँ मैं

सूरतें सीरतों पे भारी हैं
फूल हूँ, खुशनुमा नहीं हूँ मैं

थोड़ा थोड़ा तो सब पे ज़ाहिर हूँ
खुद पे लेकिन खुला नहीं हूँ मैं

रास्ते पीछे छोड़ आया हूँ
रास्तो पे चला नहीं हूँ मैं

ज़िंदगी का हिसाब क्या दूं अब
बिन तुम्हारे जिया नहीं हूँ मैं 

धूप मुझ तक जो आ रही है " फ़िक्र "
यानी की लापता नहीं हूँ मैं

Friday, March 28, 2014

मासूम ग़ाज़ियाबादी












 ग़ज़ल
 
कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी 
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी 

कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी 
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी

अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी 
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी

किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना 

कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी 

खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी

यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब 
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी

जो सीखा है किसी "मासूम" को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी