Saturday, April 25, 2015

नवनीत शर्मा जी की तीन ग़ज़लें














एक ही ज़मीन में नवनीत जी की तीन ग़ज़लें जो इस नायाब शे’र की बदौलत आप तक पहुँची-
 
मौत के आखिरी जज़ीरे तक
ज़िन्दगी तैरना सिखाती है


ग़ज़ल १

झूठ की रौशनी बताती है
तीरगी भी ज़िया कमाती है

जब भी चिडि़या नज़र उठाती है
बाज़ की आंख सकपकाती है

सच के तेज़ाब में नहाती है
तब महब्बत को नींद आती है

क्यों अंधेरों में जगमगाती है
चीख़ जो रौशनी से आती है

दूर क़ुरबत ही ले के जाती है
मुद्दतों में ये अक़्ल आती है

मेरी आंखों के अश्क़ कहते हैं
टीस क्याो दोस्ती निभाती है

मौत आती है एक झपकी में
ज़िन्दगी आते-आते आती है

जबसे मां ढल रही है ग़ज़लों में 
‘इश्तेढहारों के काम आती है’

मौत के आखिरी जज़ीरे तक
ज़िन्दगी तैरना सिखाती है

ख़ार माज़ी के हैं कई जिनसे
दिल की सीवन उधड़ ही जाती है

इक समंदर उदास है कबसे
इक नदी राह भूल जाती है

कल तो सूरज मिरा मिलेगा मुझे
देर तक आस टिमटिमाती है

दिन में है ज़िन्दगी ख़मोश मगर
रात को ख़ूब बड़बड़ाती है

देख मुस्तैबद मेरे अश्कों को
नींद आने में हिचकिचाती है

तू मिरा आफ़ताब है लेकिन
तेरी गर्मी बदन जलाती है

देख अदालत को महवे-ख़ाब मियां
रूहे-इंसाफ कांप जाती है

ग़ज़ल २

बन के सिक्के जो खनखनाती है
वो हंसी पिक्चंरों में आती है

रूह चर्खा है, ऊन उल्फीत की
जितना मुमकिन था उतनी काती है


उतने ज़ाहिर कहां हैं वार उनके
जितनी शफ्फ़ाक अपनी छाती है

दूर वालों से क्याी भला शिकवा
वो जो कुरबत है कह्र ढाती है

एक मुस्कान रख ले चेहरे पर
ये सियासत के काम आती है


जिंदगी आ बसी है आंखों में
अब नज़र किसको मौत आती है

ग़ज़ल ३


दिल की बातों में आ ही जाती है
ज़िन्दगी फिर फ़रेब खाती है

तेरी यादों की इक नदी में मिरे
ज़ब्‍त की नाव डूब जाती है

सारे पर्दे हटा दिए मैंने
धूप अब मुस्कुराती आती है

उसने तक़सीम कर दिया सूरज
कब ये दीवार जान पाती है

धूप ससुराल जा बसी जबसे
चांदनी बन के मिलने आती है

जब से चिट्ठी ने ख़ुदकुशी कर ली
फ़ोन पर ‘हाय’ घनघनाती है


पहले दफ्तर शिकार करता है
फिर रसोई उन्‍हें पकाती है

Wednesday, April 1, 2015

सिराज फ़ैसल खान














ग़ज़ल

हमें वफ़ाओं की ताक़त पे था यक़ीन बहुत
इसी यक़ीन पे अब तक थे मुतमईन बहुत

वो एक शख़्स जो दिखने में ठीक-ठाक सा था
बिछड़ रहा था तो लगने लगा हसीन बहुत

तू जा रहा था बिछड़ के तो हर क़दम पे तेरे
फ़िसल रही थी मेरे पाँव से ज़मीन बहुत

वो जिसमें बिछड़े हुए दिल लिपट के रोते हैं
मैँ देखता हूँ किसी फ़िल्म का वो सीन बहुत

तेरे ख़याल भी दिल से नहीं गुज़रते अब
इसी मज़ार पे आते थे ज़ायरीन बहुत

तड़प तड़प के जहाँ मैंने जान दी "फ़ैसल"
खड़े हुए थे वहीं पर तमाशबीन बहुत

बहरे-मजतस
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

Saturday, February 7, 2015

ग़ज़ल-विजय धीमान












मेरे अज़ीज दोस्त विजय धीमान की एक खूबसूरत ग़ज़ल-

अपने कौन पराये कौन
हमको ये समझाये कौन।

बस इक ही मुशकिल है प्यारे
सच को सच बतलाये कौन।


गांठ के ऊपर गांठ लगी है
इसको अब सुलझाये कौन।

दिल से दिल की बात हुई पर
दिल की बात बताये कौन।

उसका आना नामुमकिन है
लेकिन उस तक जाये कौन।

अंधी नगरी चौपट राजा
इसको रस्ते लाये कौन।

बादल आखिर बादल ठहरा
परबत को समझाये कौन।

बहर के पक्ष की अगर बात करूँ तो - २२ २२ २२ २२ और २२ २२ २२ २१ ,कुछ इस तरह का प्रयोग जगजीत की गाई ग़ज़ल में भी मिलता है- मुँह की बात सुने हर कोई,दिल के दर्द को जाने कौन।बहर को लेकर मतभेद हो सकता है॥


Thursday, June 26, 2014

मयंक अवस्थी
















 
ग़ज़ल

बम फूटने लगें कि समन्दर उछल पड़े
कब ज़िन्दगी पे कौन बवंडर उछल पड़े

दुश्मन मिरी शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े

गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम
इक चाँद क्या दिखा कि समन्दर उछल पड़े

मत छेड़िये हमारे चरागे –खुलूस को
शायद कोई शरार ही , मुँह पर उछल पड़े

घोड़ों की बेलगाम छलाँगों को देख कर
बछड़े किसी नकेल के दम पर उछल पड़े

गहरी नहीं थी और मचलती थी बेसबब
ऐसी नदी मिली तो शिनावर उछल पड़े

यूँ मुँह न फेरना कि सभी दोस्त हैं “ मयंक”
कब और कहाँ से पीठ पे खंज़र उछल पड़े

Friday, May 23, 2014

सिराज फ़ैसल खान


















ग़ज़ल


ज़मीं पर बस लहू बिखरा हमारा
अभी बिखरा नहीं जज़्बा हमारा

हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा 


मिलाकर हाथ सूरज की किरन से
मुखालिफ़ हो गया साया हमारा

रकीब अब वो हमारे हैं जिन्होंने
नमक ताज़िन्दगी खाया हमारा

है जब तक साथ बंजारामिज़ाजी
कहाँ मंज़िल कहाँ रस्ता हमारा

तअल्लुक तर्क कर के हो गया है
ये रिश्ता और भी गहरा हमारा

बहुत कोशिश की लेकिन जुड़ न पाया
तुम्हारे नाम में आधा हमारा

इधर सब हमको कातिल कह रहे हैं
उधर ख़तरे में था कुनबा हमारा

Wednesday, April 23, 2014

दानिश भारती

 

 

 

 



 

ग़ज़ल

पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना

रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना

वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना

मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना

खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना

सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना

चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना

आएँ कितने भी इम्तेहां  "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना