Monday, March 17, 2008
द्विज जी की पांच ग़ज़लें
पाँच ग़ज़लें
ग़ज़ल
पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं
मूक जब संवेदनाएँ हैं
सामने संभावनाएँ हैं
साज़िशें हैं सूर्य हरने की
ये जो 'तम' से प्रार्थनाएँ हैं
हो रहा है 'सूर्य' का स्वागत
आँधियों की सूचनाएँ हैं
रास्तों पर ठीक शब्दों के
दनदनाती वर्जनाएँ हैं
घूमते हैं घाटियों में हम
और काँधों पर गुफ़ाएँ हैं
आदमी के रक्त पर पलतीं
आज भी आदिम प्रथाएँ हैं
फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ हैं
स्वार्थो के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं
छोड़िए भी… फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं
यह ग़ज़ल रमल की एक सूरत.फ़ायलातुन, फ़ायलातुन,फ़ा
2122,2122,2
ग़ज़ल
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम
जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम
आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम
ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम
मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम
रमल:फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
2122,2122,2122,212
ग़ज़ल ३ और ४ एक बहर में हैं:.रमल की एक सूरत :
फ़ायलातुन,फ़िइलातुन फ़िइलातुन,फ़िइलुन
2122,1122,1122,112
ग़ज़ल
आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक
टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक
अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक
फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ महज़ब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक
उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक
देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक
रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक
इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक
पुरसुकून आपका चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शह्र में लगता है नये हैं अब तक
ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हमने भी कई शे'र कहे हैं अब तक
दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और 'द्विज'! आप तो दो कोस चले हैं अब तक
ग़ज़ल
ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता
कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं नहीं रहने देता
आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए
हाँ, मगर उनपे कोई 'पर' नहीं रहने देता
ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता
उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता
हादिसों का ही धुँधलका–सा 'द्विज' आँखों में मेरी
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता.
ग़ज़ल
न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
ज़मीं पे रह के ज़मीं पर कहाँ हैं सब के सब
कोई भी अब तो किसी की मुख़ाल्फ़त में नहीं
अब एक-दूसरे के राज़दाँ हैं सब के सब
क़दम-कदम पे अँधेरे सवाल करते हैं
ये कैसे नूर का तर्ज़े-बयाँ हैं सब के सब
वो बोलते हैं मगर बात रख नहीं पाते
ज़बान रखते हैं पर बेज़बाँ हैं सब के सब
सुई के गिरने की आहट से गूँज उठते हैं
गिरफ़्त-ए-खौफ़ में ख़ाली मकाँ हैं सब के सब
झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के
'द्विज',ऐसा लगता है वो बेज़बाँ हैं सब के सब.
मजत्तस की एक सूरत:
मुफ़ायलुन,फ़िइलातुन,मुफ़ायलुन,फ़िइलुन
I212,1122,1212,112
आप के विचारों का इंतजा़र रहेगा.
आपका द्विज.
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14 comments:
सराहनीय प्रयास. शुभकामनाएं.
thank you very much ravi jii.
Ghazal acchi lagi Dwij Ji
प्रिय भाई,
आपका ब्लॉग देखा और पढ़ा . आपने उचित विधा का चयन करके ब्लॉग बनाया है. मैं गज़लें या कविताएं नहीं लिखता. ब्लॉग के लिए बधाई.
चन्देल
Nahut khoob. Bahut sundar prayaas hai |
Shubhkaamanayen
Avaneesh
sabhi gajale tarif-e-kaabil hain, par rahne nahi deta jyaada pasand aayee....
or nayi gajals ka intezar rahega..
dhanyawaad
बहुत अच्छा लगा आप के ब्लाग पर आकर..
गजलों को एक जगह लाने का प्र्यास अच्छा है..
मेरी बधाई स्वीकारें..
पहली गज़ल पढ़ी.. बहुत अच्छी लगी..कुछ शब्द भारी हैं...
hi satpal ji.
I also respect Dwij sir very much. He was our English teacher at Hamirpur.
I appreciate your valuable work for the improvement of Hindi GAZALS by using most effective communication medium i,e,internet
Best of luck
y.s.rana
सब पाठकों का ध्न्यावाद. मैं द्विज जी से विनती करूंगा कि वो भी दो शब्द कहें.
भाई सतपाल जी,ग़ज़ल विधा के लिये एक अलग ब्लॉग बना कर आपने महत्वपूर्ण काम किया है। दरअसल हिन्दी में ग़ज़ल अभी तक अपने पांव जमाने का प्रयास कर रही है। उर्दू-दां लोग अभी भी हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू की बहर और मीटर से जांचते हैं। आपके गुरू जी ने काफ़िया मिलाने में ख़ासी आधुनिक अप्रोच दिखाई है। ख़ामियां, सुर्खियां, टोपियां, दिहाड़ियां, सर्दियां, तल्ख़ियां, उदासियां, बस्तियां, खिड़कियां न तो वज़न में बराबर हैं और न ही बहर में। किन्तु आपके गुरू जी ने नये प्रयोग किये हैं। ठीक इसी तरह डा. भारद्वाज ने भी सीधा, ताज़ा, कोरा, घोड़ा, शीशा, अपना, क्या-क्या जैसा काफ़िया इस्तेमाल करके आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल का नया स्वरूप दिखाने की कोशिश की है। यहां लन्दन में अभी भी परंपरागत ग़ज़ल लिखी जाती है। इस ख़ूबसूरत ब्लॉग के लिये आपको ढेर सी बधाइयां। इस ब्लॉग के माध्यम से हमें शीघ्र ही भारत के शिखर ग़ज़लकारों की ग़ज़लें पढ़ने को मिलेंगी। - तेजेन्द्र शर्मा - लन्दन
आदरणीय तेजिन्द्र जी ,
आप ग़ज़ल की बहर और उस के काफ़ियों को तोलने के लिये जिन बटों को इस्तेमाल करते हैं हमें भी बताने की मिह्र्बानी करें.यह भी बताएं कि ये गज़लें किस तरह वज़्न से बाहर हैं ?
सादर,
द्विजेन्द्र द्विज
ग़ज़ल की बहर, वज़्न, काफ़िया के बारे में तेजेन्द्र जी की जानकारी कितनी है, यह उनकी ग़ज़लें पढ़ कर मुझे समझ आ गया है. मुझे उनसे अब कोई शिकायत भी नहीं रही. मैं रचना से प्रभावित होता हूँ, प्रोफ़ाइल से नहीं. जिस परम्परागत ग़ज़ल की बात वे कर रहे हैं, उर्दू ग़ज़ल भी उससे बहुत आगे निकल आई है. तेजेन्द्र जी, आप पहले अपनी गज़लों को तोलिये, हम अपने ब्लाग में आपकी ग़ज़लें नमूने के तौर पर छापेंगे ,लेकिन पहले यह बताइए कि इनकी बहरें कौन— कौन सी हैं.
Satpalji
aapka yeh prayas apne aap mein bemissal hai. Navodit gazal karon ke liye ek anubhuti, jo ek sthan par kai gazal pad payenge. Kadi se nit nayi kadi judti rahi isi shubhkamna ke saath
Devi Nangrani
Dwij ki tazgi se bharpoor navneetam gazals, naye kafia aur radeefon ke saath kuch naya likhne ke liye protsahit karti hai..
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