Friday, December 19, 2008
पूर्णिमा वर्मन की ग़ज़लें और परिचय
जन्म :27 जून 1955
शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों मे जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आज तक इनके साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।
संप्रति: पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह ( "वक्त के साथ" जो वेब पर उपलब्ध)
मझे बहुत खुशी हो रही है उनकी ग़ज़लें यहाँ पेश करते हुए. साहित्य की सेवा जो उन्होंने अनुभुति और अभिव्यक्ति द्वारा की है वो सराहनीय है और आने वाले कल का सरमाया है.उनकी नई रचनाएँ इस चिठ्ठे पर यहाँ पढ़ें
ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com
पेश है उनकी तीन ग़ज़लें:
ग़ज़ल:
खुद को जला रहा था सूरज
दुनिया सजा रहा था सूरज
दिनभर के लंबे दौरे से
थक कर नहा रहा था सूरज
केसर का चरणामृत पीकर
दोना बहा रहा था सूरज
दिन सलवट सलवट बिखरा था
कोना तहा रहा था सूरज
शांत नगर का धीरे धीरे
होना बता रहा था सूरज
लेने वाला कोई नहीं था
सोना बहा रहा था सूरज
ग़ज़ल
शब्दों का जंजाल है दुनिया
मीठा एक ख़याल है दुनिया
फूल कली दूब और क्यारी
रंग-रंगीला थाल है दुनिया
हाथ विदा का रेशम रेशम
लहराता रूमाल है दुनिया
कभी दर्द है कभी सर्द है
मौसम बड़ा निहाल है दुनिया
अपनों की गोदी में सोई
सपनों का अहवाल है दुनिया
खुशियों में तितली सी उड़ती
दुख में खड़ा बवाल है दुनिया
जंगल में है मोर नाचता
घर में रोटी दाल है दुनिया
रोज़ रोज़ की हड़तालों में
गुमी हुई पड़ताल है दुनिया
भीड़ भड़क्का आना जाना
हलचल हालचाल है दुनिया
रेशम के ताने बाने में
उलझा हुआ सवाल है दुनिया
तुझे फूँकने ले जाएगी
लकड़ी वाली टाल है दुनिया
(वज़्न है: आठ गुरु)
ग़ज़ल
बाँधकर ढोया नहीं था आसमाँ
हमने पर खोया नहीं था आसमाँ
राह में तारे बहुत टूटे मगर
दर्द से रोया नहीं था आसमाँ
हाथ थामे चल रहा था रात दिन
थक के भी सोया नहीं था आसमाँ
फिर ज़मीं समझा रही थी रौब से
क्लास में गोया नहीं था आसमाँ
चाह थी हर एक को उसकी मगर
खेत में बोया नहीं था आसमाँ
किस तरह बूँदें गिरी ये दूब पर
रात ने धोया नहीं था आसमां
बहेर-रमल(2122 2122 212 )
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22 comments:
बहुत सुन्दर ग़ज़लें हैं
अपने आसपास के अनुभव संसार को ख़ुद में संजोए हुए पूर्णिमा जी की यह ग़ज़लें इस लिए भी अच्छी लगीं कि यह ग़ज़ल की बनी बनाई दुनिया से कुछ अलग हटकर एक नई ताज़गी का एहसास कराती हैं
देव मणि पांडे
केसर का चरणामृत पीकर
दोना बहा रहा था सूरज
bahut hi umda she'r..ek sukoon aur taazgi bharaa.
hume lagta hai ki pornima ji ne hi 1980 ke dasak me amrit prabhat me mere mahila sangthan manushi ke bare me likha tha.yedi ve vahi hai to aaj padh kar kafi khushi hui.
बड़े नायब और चमकते शेर...
वाह
Ek nayaa naam gazal kee dunia mein
aur vo bhee internet mein vikhyaat
Purnima Verman jee kaa.Bahut khoob.
swaagat hai unkaa.Achchhe ashaar
kahen hain unhone.Badhaaee.Satpal
jee kaa dhanyavaad.Unkee badaulat
Purnima jee kee chand gazlen padhne
kaa saubhaagya prapt hua hai hamen.
पूर्णिमा दी जैसी अच्छी कवियित्री और एक बहुत अच्छी इंसान का सान्निध्य पाना, मैं बहुत खुशनसीब समझती हूँ अपने आप को। मेरा थोड़ा भी कुछ लिखने में आज, उनके प्रोत्साहन का बहुत बड़ा हाथ रहा है। मैं उनकी रचनाओं की तरीफ़ क्या करूँ, बस नायाब लिखती हैं वो तो।
पूर्णिमा जी के नाम से कौन साहित्य प्रेमी वाकिफ नहीं होगा? अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों इंटर नेट पर अच्छी रचनाओं को पढने के ठौर बन चुके हैं...उनकी तीनो ग़ज़लें बेहतरीन लगीं...शुक्रिया आप का सतपाल जी.
नीरज
पूर्णिमा जी ने अभिव्यक्ति और अनुभूति के द्वारा अनगिनित नए लेखकों और कवियों को विश्व-मंच पर लाने से बड़ा प्रोत्साहन मिला है। आज पूर्णिमा जी की ही बदौलत अभिव्यक्ति और अनुभुति के लेखक हिंदी साहित्य में अपना विशेष स्थान बना पाए हैं।
पूर्णिमा की रचनाओं पर टिप्पणी लिखना सूरज को चराग़ दिखाने वाली बात लगती है लेकिन फिर भी पढ़ने पर उदगार निकल ही जाते हैं। सारे ही शे'र बहुत अच्छे हैं।
हर विधा में समय के साथ साथ बदलाव आए हैं, वर्ना कविता सामंती युग के दरबारों में घुटती रहती।
आज पूर्णिमा जी ने ग़ज़ल विधा में एक नया मोड़ दिया है जो आज की आवाज़ है।
सतपाल जी हम आपके आभारी हैं कि पूर्णिमा जी की ग़ज़लें पढ़ने का सौभाग्य मिला।
पूर्णिमा जी को मेरी बहुत शुभकामनाएँ ...
नये युग मेँ नई विधा को
कम्प्युटर के माध्यम से
हिन्दी भाषा को गौरव दीलवाने मेँ जिन्हेँ याद किया जायेगा,
वहाँ पूर्णिमा जी की उपस्थिति होगी ..
उनकी गज़ल पढवाने के लिये आपका आभार -
- लावण्या
पूर्णिमा जी
बहुत मुबारक हो इस पेज पर आने के लिये जिनका श्रेय सतपाल जी को भी जाता है.
राह में तारे बहुत टूटे मगर
दर्द से रोया नहीं था आसमां
अनछुआ ख़्याल, सोच की उड़ान!! वाह
ये कसावट और बिनावट लफ़्ज़ों की
खुब बांधे है समाँ अबके ग़ज़ल
देवी नागरानी
Bhai Satpal ji, aapne Poornimaji ki itni bajandaar ghazalon ko 'Aaj ki ghazal'men padwaya iske liye aapko dhanyawaad. Poornimaji ko bahut bahut badhai bahut sunder ghazalen likhi hain men to unhen pahali baar pad raha hoon.'Resham ke taane baane men uljha hua sawal hai duniya' 'raah men taare bahut toote magar dard se roya nahin tha aasman' kitane suder aur lajabaab sher hain.Poornimaji punah Bahut bahut badhai aapko.
Purima ji ki gazalen padh kar achcha laga..
Thanks to all
बहुत बहुत शुक्रिया, आप सब मेरी इन रचनाओं को गज़ल कहा यह आपका बड़प्पन है। सतपाल जी ने इनमें कहीं बहर और वज़न ढूँढा वह उनकी मेहरबानी है। सच तो आप सब जानते हैं कि न तो गीतों में और न ही ग़ज़लों में मैंने कहीं छंद का अनुसरण किया है। महावीर जी, प्राण साहब जो ग़ज़ल के दिग्गज हैं, देवी नागरानी, नीरज जी और खुद सतपाल जी गज़ल के पारखी हैं, बाकी जिनसे मेरा परिचय नहीं भी है आप सबने कमियों को नज़रंदाज़ करते हुए रचनाओं की प्रशंसा की इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
और हाँ बड़ी बहन लावण्या और छोटी बहन मानोशी को कैसे भूल सकती हूँ जो हर काम में सदा साथ रहती हैं। कमेंट लिखने का शुक्रिया बहना :-)
पुर्णिमा जी, मै आपकी इमानदारी और सचब्यानी का कायल हूँ. एक बात बड़े मज़े की है कि कोई भी ये नही कह पाया कि ग़ज़ले बहर से खारिज़ हैं. हा! हा ! हा!
ये सब आपके कद के वज़ह से है.ग़ज़लें बाकई खूबसूरत हैं इअसमे कोई दोराये नही है.
सादर
ख्याल
पूर्णिमा वर्मन मोहतरमा ने सीधी सादी गँगा जमनी
ज़बान का इस्तेमाल किया है ख़याल में इज़हारे जमाल है
पूर्णिमा वर्मन का आकाश तारे टूटने पर भी नही कराहता
उसके तस्सुवर की दुनिया एक लहराते हुए रुमाल की मानिंद है
शायरा के एहसास का सूरज कश्मीर से जाफरान उठाता है और
कन्या कुमारी की मांग में केसर भर देता है
अल्लाह करे ज़ोरे कलम और जियादा
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
खुद को जला रहा था सूरज
दुनिया सजा रहा था सूरज
दिनभर के लंबे दौरे से
थक कर नहा रहा था सूरज
केसर का चरणामृत पीकर
दोना बहा रहा था सूरज
दिन सलवट सलवट बिखरा था
कोना तहा रहा था सूरज
शांत नगर का धीरे धीरे
होना बता रहा था सूरज
लेने वाला कोई नहीं था
सोना बहा रहा था सूरज
पूर्णिमा जी की बहुत सी अन्य रचनाओं की तरह इन रचनाओं की सबसे बडी ख़ूबी है एक के बाद एक कर के बनने और उभरने वाले भाव चित्र...
सूर्योदय से सूर्यास्त तक की समस्त चित्रावलियाँ ... वाह वाह और वो भी शेरों में ! अत्यंत अभिनव.
बहुत बधाई
.
सतपाल जी इतनी हसीन और दिलकश ग़ज़लें इनायत करने कि लिए दाद और शुक्रिया क़ुबूल कीजिए। जनाब 'क़ैस' साहिब की ग़ज़लों पर बस एक ही लफ़्ज़ बार बार निकलता हैः 'वाह!!'
ऐसी ग़ज़लों को तो आज तरसते हैं।
'देख तेरे दीवाने की अब जान पे क्या बन आई है
चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है.'
'आसमाँ' रदीफ़ वाली ग़ज़ल बेहद सुंदर है. एक एक शेर नायाब है. पर 'क्लास में गोया नहीं था आसमाँ' में 'क्लास' शब्द जचता नहीं है. क्लास की जगह ध्यान होता तो?
प्रेमचंद सहजवाला
खुद को जला रहा था सूरज
दुनिया सजा रहा था सूरज
दिनभर के लंबे दौरे से
थक कर नहा रहा था सूरज
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ये ग़ज़लें सीधा असर करती हैं ।
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