धीरज आमेटा 'धीर' राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले हैं. महज़ 26 साल की उम्र मे उम्दा ग़ज़लें कहते हैं .गुड़ग़ाव में एक हार्डवेयर कम्पनी में काम कर रहे हैं. जनाब सरवर आलम राज़ 'सरवर' के शागिर्द हैं .पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें.
ग़ज़ल
उमीदें जब भी दुनिया से लगाता है,
दिल ए नादाँ फ़क़त धोखे ही खाता है!
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,
ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!
जो पैराहन तले नश्तर छिपाता है,
लहू इक दिन वो अपना ही बहाता है!
जो बचपन में तुझे उंगली थमाता था,
उसे तू आज बैसाखी थमाता है ?
जुदा है क़ाफ़िले से रहगुज़र जिस की,
वो ही इक दिन नया रस्ता दिखाता है!
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
हजज़
(1222 x3)
ग़ज़ल
कोई गुंचा टूट के गिर गया, कोई शाख गुल की लचक गयी,
कहीं हिज्र आया नसीब में, कहीं ज़ुल्फ़ ए वस्ल महक गयी!
जो अज़ीयतों की शराब थी, वो ही कागज़ों पे छलक गयी,
मेरे शेर ओ नग्में मचल उठे, मेरी शायरी ही बहक गयी!
कभी शम्स है तो क़मर कभी, कभी याद मर्ज़, कभी दवा,
कभी फूल बन के महक गयी, कभी आग बन के दहक गयी!
भले तीर दिल में चुभे रहें, मगर होँठ फिर भी सिले रहे,
न सही गयी तो क़लम के रस्ते,ख़लिश जिगर की झलक गयी!
तुझे कोई रन्ज-ओ-मलाल था, कि तेरी नज़र में सवाल था,
तेरे होँठ जिस को न कह सके,तेरी आँख फिर भी छलक गयी!
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!
सर-ए-शाम घर को ये वापसी मेरे हम-नफ़स की ही देन है,
मुझे आते देखा तो राह तकती निगाह कैसी चमक गयी!
(11212 x4)
मुतफ़ाइलुन x4
comments:
seema gupta said...
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!" सुंदर प्रस्तुती, दिले नादाँ की बात ही अजब है , कभी जरा सी बात पे दरिया बहता है और कभी हजारों गम चुपचाप सह जाता है....गज़ल अच्छी लगी"regards
January 12, 2009 3:02 AM
रंजन गोरखपुरी said...
बेहद उम्दा!! इन मुश्किल बहरों पे इतनी सहजता से सजी दोनों ग़ज़ल आपके फन को साफ़ दर्शाती है! धीर साहब की लाजवाब शायरी से पहले भी रूबरू हुए हैं और उनके ये शेर तो आज भी ज़हन में बिलकुल ताजा है:
नमी बाकी रहे आँखों में दामन तर नहीं करना,
रहे गौहर समंदर में उस बेघर नहीं करना
रसोई में रखे बर्तन तो ज़ाहिर है की खनकेंगे,
ज़रा सी बात पे हाल-ए-वतन बद्तर नहीं करना
(बिना इजाज़त पेश करने की गुस्ताखी के लिए मुआफी चाहता हूँ पर अपने आप को रोक नहीं पाया :) )बेशक धीर साहब आने वाले दौर के अनमोल गौहर हैं!! खुदा आपकी अर्शिया कलम को और बरक़त अता करे!!
January 12, 2009 3:18 AM
"अर्श" said...
पहली दफा ही इस ब्लॉग पे आया हूँ और धीर भाई की बेहतरीन ग़ज़लों को पढ़ने का मौका मिला ,उम्दा लेखा है बहोत खूब लिखा है इन्होने ढेरो बधाई कुबूल करें...अर्श
January 12, 2009 5:44 AM
श्रद्धा जैन said...
Dheer ki gazlen hamesha hi padi haishayad hi koi gazal ho jo padi nahi homagar inke gazlen bolne ka andaaz gazal ko chaar chand laga deta haiguzarish hai ki inki hi aawaz main inke pasand ke kuch sher sunaye jaaye dono hi gazal bhaut shaandaar rahi khaskar ye sherतुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
January 12, 2009 6:24 AM
Abhishek Krishnan said...
Indeed its very nice "Ghazal". I don't know much urdu but I always appreciate/understand when he explained his "Ghazals" to me. Keep writing..
January 12, 2009 7:17 AM
नीरज गोस्वामी said...
सुभान अल्लाह....इस उम्र में ये तेवर...खुदा नजरे बद से बचाए...कमाल की शायरी...नीरज
January 12, 2009 8:49 AM
Manish Kumar said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!bahut khoob likha hai dheer ne
January 12, 2009 8:50 AM
गौतम राजरिशी said...
पढ़ कर बस उफ़-उफ़ किये जा रहा हूं...पहली बार पढ़ रहा हूं धीर जी कोदूसरी गज़ल तो खास कर-एक-एक शेर कहर ढ़ाता हुआ है...और पढ़वायें इनको सतपाल जीदुसरी गज़ल के बहर पर कुछ जानना चाहता था.क्या यही "रज़ज" भी है २२१२ वाली?
January 12, 2009 9:40 AM
Udan Tashtari said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!--वाह!! बहुत बेहतरीन!
January 12, 2009 4:14 PM
NirjharNeer said...
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
bahot khoob dheer bhaini:sandeh khoobsurat bayangii kabil-e-daad
January 12, 2009 9:05 PM
सतपाल said...
गौतम जी,ये बहरे-कामिल है..एक मशहूर ग़ज़ल आपने सुनी होगी..वो जो हममे तुम मे करार था, तुझे याद हो कि न याद हो..इसी बहर मे है.बहुत खूबसूरत बहर है.
January 12, 2009 9:26 PM
सतपाल said...
Gautam ji,aapne jo savaal poocha hai us ka samadhaan bahut zaroori hai, ki kya rajaz(2212) or behre-kaamil(11212)ke arkaan alag hai lekin agar hum kahen ke 2 laghu ki jagah ek guru ka istemaal ho sakta hai to phir kya 2212 or (11)212 barabar nahiN haiN.ye ghalat paRaya jata hai ki do laghu ki jagah ek guru lete haiN, ye shoot kissi -kissi bahar me hai, koii niyam nahi. agar ye nizam hota to bahre-kaamil ki kya zaroorat thee. Pran ji ne sahity shilpi par samjhane ke liye faailaatun ko 21211 likh dia tha maine vahaN savaal bhi uthaya tha.mai phir kahta hooN ki do laghu ki jagah guru ki छoot har behr me nahi hai. jiska udahran aapke saamne hai. ab aap khud dekheN..ye misra paRiye..vo jo ham me tum me karaar tha tujhe yaad ho ki na yaad ho( kaamil)...iske baad ise paRen..ye dil ye paagal dil mera kyon bujh gya aawargee..( rajaz)dono ki lay me farq se sab zaahir ho jata hai.
January 13, 2009 1:28 AM
18 comments:
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,
ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!
" सुंदर प्रस्तुती, दिले नादाँ की बात ही अजब है , कभी जरा सी बात पे दरिया बहता है और कभी हजारों गम चुपचाप सह जाता है....गज़ल अच्छी लगी"
regards
बेहद उम्दा!! इन मुश्किल बहरों पे इतनी सहजता से सजी दोनों ग़ज़ल आपके फन को साफ़ दर्शाती है!
धीर साहब की लाजवाब शायरी से पहले भी रूबरू हुए हैं और उनके ये शेर तो आज भी ज़हन में बिलकुल ताजा है:
नमी बाकी रहे आँखों में दामन तर नहीं करना,
रहे गौहर समंदर में उस बेघर नहीं करना
रसोई में रखे बर्तन तो ज़ाहिर है की खनकेंगे,
ज़रा सी बात पे हाल-ए-वतन बद्तर नहीं करना
(बिना इजाज़त पेश करने की गुस्ताखी के लिए मुआफी चाहता हूँ पर अपने आप को रोक नहीं पाया :) )
बेशक धीर साहब आने वाले दौर के अनमोल गौहर हैं!! खुदा आपकी अर्शिया कलम को और बरक़त अता करे!!
पहली दफा ही इस ब्लॉग पे आया हूँ और धीर भाई की बेहतरीन ग़ज़लों को पढ़ने का मौका मिला ,उम्दा लेखा है बहोत खूब लिखा है इन्होने ढेरो बधाई कुबूल करें...
अर्श
Dheer ki gazlen hamesha hi padi hai
shayad hi koi gazal ho jo padi nahi ho
magar inke gazlen bolne ka andaaz gazal ko chaar chand laga deta hai
guzarish hai ki inki hi aawaz main inke pasand ke kuch sher sunaye jaaye
dono hi gazal bhaut shaandaar rahi
khaskar ye sher
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
Indeed its very nice "Ghazal". I don't know much urdu but I always appreciate/understand when he explained his "Ghazals" to me. Keep writing..
सुभान अल्लाह....इस उम्र में ये तेवर...खुदा नजरे बद से बचाए...कमाल की शायरी...
नीरज
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!
bahut khoob likha hai dheer ne
पढ़ कर बस उफ़-उफ़ किये जा रहा हूं...पहली बार पढ़ रहा हूं धीर जी को
दूसरी गज़ल तो खास कर-एक-एक शेर कहर ढ़ाता हुआ है...
और पढ़वायें इनको सतपाल जी
दुसरी गज़ल के बहर पर कुछ जानना चाहता था.क्या यही "रज़ज" भी है २२१२ वाली?
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!
--वाह!! बहुत बेहतरीन!
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
bahot khoob dheer bhai
ni:sandeh khoobsurat bayangii
kabil-e-daad
गौतम जी,
ये बहरे-कामिल है..एक मशहूर ग़ज़ल आपने सुनी होगी..
वो जो हममे तुम मे करार था, तुझे याद हो कि न याद हो..इसी बहर मे है.बहुत खूबसूरत बहर है.
Gautam ji,
aapne jo savaal poocha hai us ka samadhaan bahut zaroori hai, ki kya rajaz(2212) or behre-kaamil(11212)ke arkaan alag hai lekin agar hum kahen ke 2 laghu ki jagah ek guru ka istemaal ho sakta hai to phir kya 2212 or (11)212 barabar nahiN haiN.ye ghalat paRaya jata hai ki do laghu ki jagah ek guru lete haiN, ye shoot kissi -kissi bahar me hai, koii niyam nahi. agar ye nizam hota to bahre-kaamil ki kya zaroorat thee. Pran ji ne sahity shilpi par samjhane ke liye faailaatun ko 21211 likh dia tha maine vahaN savaal bhi uthaya tha.
mai phir kahta hooN ki do laghu ki jagah guru ki छoot har behr me nahi hai. jiska udahran aapke saamne hai. ab aap khud dekheN..
ye misra paRiye..
vo jo ham me tum me karaar tha tujhe yaad ho ki na yaad ho( kaamil)...
iske baad ise paRen..
ye dil ye paagal dil mera kyon bujh gya aawargee..( rajaz)
dono ki lay me farq se sab zaahir ho jata hai.
सभी मित्रो को धीर का नमस्ते और आदाब!!
मैं आप सभी का तह ए दिल से शुक्रिया अदा करता हुँ कि आपने नाचीज़ के सादे से कलामों को अपनी दाद ओ तह्सीन से नवाज़ा! ये मन्च अपने आप में बहुत खूब है! इस से जुड़ना मेरे लिये सौभाग्य की बात है!
ग़ौतम साहेब! दाद के लिए शुक्रिया! सतपाल जी की बात को ही आगे बढ़ाते हुए सिर्फ़ इतना कहना चाहता हुँ कि सिर्फ़ २-१ या लघु और गुरू की तकती से ही मिसरें बहर में आ जाये ये ज़रूरी नहीं है! तकती के साथ साथ रवानी का होना बेहद ज़रूरी है (पढ़ते वक़्त ज़बान का न अटकना). और अगर शेर रवाँ है तो हरूफ़ गिराने की और गुरु को दो लघु में तोड़ने की इजाज़त होती है अन्यथा नहीं!
आप सभी को नव वर्श की शुभ्कामनायें!!
धीर
सतपाल जी और धीर जी को कोटिशः धन्यवाद.
धीर जी की कोई किताब भी आई हुई है क्या ...कोई गज़ल-संग्रह?
और सतपाल जी आपका आभारी हूं कि आपने मेरा नाम इस बेमिसाल पत्रिका संग जोड़ा है.एक निवेदन था.मेरे नाम में "राजरिशी" ही है न कि "ऋषि".
गौतम साहब! नमस्ते!
कलम थामे हुए मुझे अभी मह्ज़ २-३ साल हुए है! सो अभी सन्ग्रह प्रकाशित करने का सोचा भी नहीं और उतनी ग़ज़लें हुई भी नहीं!
शुक्रिया!
Dheer
http://dheer.webs.com
धीर की ग़ज़लेँ हैँ यह बर्की नेहायत दिलनशीँ
उनका अंदाज़े बयां है रूह परवर और हसीँ
उम्र के गुजरे हैं उनकी सिर्फ अभी छब्बीस साल
बौद्धिक छमता मगर इस से ज़यादा है कहीँ
ख़ूब फरमाया है नीरज गोस्वामी ने यहाँ
है बहुत आनंददायक उनकी ग़ज़लोँ की जमीँ
उनका है अहमद अली बर्क़ी बहुत उज्जवल भविष्य
कोई माने या न माने है मुझे इसका यक़ीँ
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
Dheer saheb ki maqbool gazal kisi tareef ki mohtaz nahi hain. unka kalaam gazal ke shaukeeno ke liye khule dil se tareef karne ka bahana ban jaya karti hain..
Lab marhaba keh uth te hain aur dil ko agle kalam ka intezaar ho jata hai.. ye do gazlein bhi unke do gauhar hain .. aur beshak behtareen shairee ki misaal hain.
'KHAK'
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
क्या खूब कहा है............
हर शेर बार बार पढने को दिल चाहता है, दोनों ही गलें एक से बढ़ कर एक हैं
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