Friday, May 8, 2009
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है- दूसरी किश्त
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1.ग़ज़ल: नवनीत शर्मा
न जान बाकरार है, न कोई ग़मगुसार है
दुकान-ए-इश्क़ का मियाँ ये आम कारोबार है
जो ज़र्दियों के कारवाँ की धूल शहसवार है
तुम्हें भी बादलो कहो, सदा का इंतजार है
ज़मीन ग़मगुसार है, पहाड़ अश्कबार है
निगाह-ए-ख़ुश्क को यहाँ किसी का इंतजार है
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
निज़ाम आपका अजब, जिरह दलील कुछ नहीं
जो क़त्ल करके चल दिया वो ऊँट बेमुहार है
निगाह साफ़ थी मेरी, तेरी नज़र भी पाक थी
हमारे सामने मगर, कहाँ का ये ग़ुबार है
ये हाल ज़ात का मेरी, तलाश है मुझे मेरी
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ख़िज़ाँ में जज़्ब हो के अपने ख़ात्मे की देर थी
ये सब ने कह दिया कि अब बहार ही बहार है
कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है
तुम्हीं हो उसकी सोच में, तुम्हीं हो जान बेटियो
उदास है पिता बहुत कि हाँफता कहार है
जहाँ भी रोशनी दिखे, वहीं पे तीरगी मिले
कहूँ मैं क्या कि सामने ये कौन सा दयार है
जो रंग पैरहन का है वही है रंग जिस्म का
बता ही देंगी बारिशें कि वो रंगा सियार है
2.ग़ज़ल: जगदीश रावतानी
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ग़ुरुर टूटने पे ही समझ सका सचाई को
जो है तो बस ख़ुदा को ज़िन्दगी पे इख़्तियार है
मेरे लबों पे भी ज़रूर आएगी हँसी कभी
न जाने कब से मेरे आईने को इंतज़ार है
मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है
मैं तेरी याद दफ़न भी करूँ तो तू बता कहाँ
कि तू ही तू फ़क़त हरेक शक्ल में शुमार है
अभी तो हाथ जोड़ कर जो कह रहा है वोट दो
अवाम को पता है ख़ुदगरज़ वो होशियार है
डगर-डगर नगर-नगर मैं भागता रहा मगर
सुकूँ नहीं मिला कहीं न मिल सका करार है
वो क्यों यूँ तुल गया है अपनी जान देने के लिए
दुखी है जग से या जुड़ा ख़ुदा से उसका तार है
कभी तो आएँगी मेरी हयात में उदासियाँ
बहुत दिनों से दोस्तों को इसका इंतज़ार है
3.ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस
कली-कली संवर गयी , फ़िज़ा भी ख़ुशगवार है
मेरी तरह इन्हें भी तो तुम्हारा इंतज़ार है
अजब ये दौरे-कशमकश , अजब-सा ये दयार है
यक़ीन है किसी पे अब , न ख़ुद पे ऐतबार है
जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है
क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम
मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
मुक़ाबिला कड़ा है , कैसे जीत पाऊँगा भला ?
तेरी यही तो सोच तेरी जिंदगी की हार है
किसे सुनाऊँ दास्तान , हाले-दिल कहूँ किसे
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बे-करार है
रदीफ़ो-क़ाफ़िया तो इस दफ़ा भी बस में हैं, मगर
अरूज़ो-बह्र सख़्त है , ज़मीन ख़ारज़ार है
सुख़नवरों में हो रहा है जिसका ज़िक्र आजकल
अदब-नवाज़ , ‘मुफ़्लिस’-ए-अज़ीज़ , ख़ाक़सार है
4. ग़ज़ल - कवि कुलवंत
ये क्या हुआ मुझे न आज ख़ुद पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मेरे तो रोम-रोम में बसा उसी का प्यार है
किया है प्यार दिल ने तो वही क़ुसूरवार है
भुला के उसने प्यार को ग़ुरूर हुस्न का किया
हमें तो इक सदी से बस उसी का इंतज़ार है
महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है
है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है
हवा दहक उठी मिला जो संग आफताब का
नियम ये सृष्टि का जो समझे हर जगह शुमार है.
5.ग़ज़ल :अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी
करम का उनके सिलसिला यह मुझपे बार बार है
सुकूने-दिल पे अब कहाँ किसी को इख़्तियार है
चली है बादे-सुबह जो ख़ेराम-ए-नाज़ से अभी
महक उठी कली-कली गुलों पे भी निखार है
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है
हसद का नाम भी न ले खिज़ाँ का ज़िक्र भी न कर
मेरे चमन में हर तरफ बहार ही बहार है
खिज़ां नसीब तू मेरे चमन में क्यूँ ठहर गई
शबे- फ़िराक़ जा तुझे सलाम बार बार है
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11 comments:
एक से बढ़ कर............अलग अलग रंगों के अंदाज़ से खिली है ये ग़ज़लों की बगिया..............
और सतपाल जी ने माली का रोल बाखूबी अंजाम दिया है..............लाजवाब
सतपाल जी बहुत कामयाब रहा ये तरही मुशायरा....सभी शायरों ने बहुत खूबसूरत शेर कहें हैं, मेरी तहे दिल से मुबारक बाद...ये शेर मुझे खास तौर पर बहुत पसंद आये और मुफलिस साहेब का "शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा...." वाला शेर तो बरसों मेरे साथ ही रहने वाला है...जनाब सामने होते तो उनको सजदा करता....
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
:नवनीत शर्मा
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है
:जगदीश रावतानी
जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
:डी.के. मुफ़लिस
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है
:अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी
नीरज
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
aapne sahi kaha Neeraj ji muflis ji ke is she'r ki apnee kaifiyat hai.Aur isi kaifiyat ki aajkal ki ghazalon me kami hai.
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
नवनीत शर्मा
navneet ji painee nazar rakhte hain, unka apna ek khaas andaz hai jo unki har ghazal me nazar aata hai.ye she'r bhi usee andaz ka hai.Aur bahut khoob hai
वाह सतपाल जी आपकी कोशिश से ये तरही में खब मजे आरहे है खूब लुत्फ़ लिया जा रहा है ...
एक से बढ़के एक शाईर और उसका कलाम... नवनीत भाई साहिब का ये शे'र सच में जां निसार करने के लिए है ..
कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है
....
रतलाम साहिब का ये शे'र बेहद प्रभाव शाली है ....
मैं तेरी याद दफ़न भी करूँ तो तू बता कहाँ
कि तू ही तू फ़क़त हरेक शक्ल में शुमार है....
मुफलिस साहिब के तो हम पहले सही मुरीद है ... और जां निछावर कर दिए ...
क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम
मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है...
हालाकि मैं ने कभी कुलवंत साहिब को इतना नहीं पढा मगर ये शे'र और उनके तेवर के क्या कहने... कबीले दाद है ...
महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है
और आखिर में फैज साहिब का ये शे'र तो बस उफ्फ्फ ...
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है...
बहोत रही आज की तरही में शामिल सभी शाईर के शे'र ... ढेरो बधाई इनको मगर आपको विशेष रूप से ....
अर्श
ये हाल ज़ात का मेरी, तलाश है मुझे मेरी
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
(नवनीत शर्मा)
मेरे लबों पे भी ज़रूर आएगी हँसी कभी
न जाने कब से मेरे आईने को इंतज़ार है
(जगदीश रावतानी)
है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है
(कवीकुलवंत)
चली है बादे-सुबह जो ख़ेराम-ए-नाज़ से अभी
महक उठी कली-कली गुलों पे भी निखार है
(अबुल फैज़ अज़्म)
बहुत ही अच्छे और दिलकश कलाम और अश`आर
से महफिल सजी हुई मिली है .....
खुदावंद से दुआ करता हूँ कि hm sb ki apni बज़्म "आज की ग़ज़ल" यूं ही हमेशा तरक्की की मंजिलें तय करती रहे
और ये बगिया यूं ही खुशबू फैलातीरहे ...आमीन !
आप सब को सादर अभिवादन .
---मुफलिस---
satpaal is mushaire ke ayojan ke liye badhai sweekaren, jiske kaaran ek se badhkar ek umda gazalen padhne ko milin, shukriya.
NAVNEET SHARMA,JAGDISH RAAVTANI,
D.K.MUFLIS,KAVI KULWANT AUR ABDUL
FAIZ AZAM SAHARYAAVEE SABHEE KEE
GAZALEN ACHCHHEE LAGEE HAIN.SABKO
MEREE TARAF SE BADHAAEE.
देखते-देखते एक शेर मुझको भी हो गया:-
तख़्ती नकद की है लगी, उधार कारोबार है-
घर को सजाके क्या करुं, दीवारों में दरार है!
दूसरों के जो पसंद आए:-
1.ग़ज़ल: नवनीत शर्मा
न जान बाकरार है, न कोई ग़मगुसार है
दुकान-ए-इश्क़ का मियाँ ये आम कारोबार है
जो रंग पैरहन का है वही है रंग जिस्म का
बता ही देंगी बारिशें कि वो रंगा सियार है
2.ग़ज़ल: जगदीश रावतानी
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
कभी तो आएँगी मेरी हयात में उदासियाँ
बहुत दिनों से दोस्तों को इसका इंतज़ार है
3.ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस
रदीफ़ो-क़ाफ़िया तो इस दफ़ा भी बस में हैं, मगर
अरूज़ो-बह्र सख़्त है , ज़मीन ख़ारज़ार है
महकती ग़ज़लों का सुंदरतम गुलदस्ता वाह सतपाल जी वाह
वाह! मजा आ गया सतपाल भाई...एक-से-बढ़कर एक उस्तादों के इन मुख्तलिफ अदाज़े-बयां देख कर
नवनीत साब की ये अदा तो "कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई/ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है" बस हाय रेsssss... अद्भुत शेर
और मुफ़लिस जी के इन शेरों पे तो तारीफ़ भी तारीफ़ कर रही हैं "क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम/मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है" और "शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा/उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है"
....ग़ज़ल को फिर से नाजुकी की तरफ़ लौटते देखने का दुर्लभ मौका...
सब आपका करम सतपाल भाई
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है
नवनीत शर्मा
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है
जगदीश रावतानी
महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है
है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है
कवीकुलवंत
जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
डी.के. मुफ़लिस
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है
अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी
wah itne shaandaar sher , sab ek se badhkar ek ....
navneet ji ko pahli baar padhne ka avsar mila
muflis ji aur kavi kulvant ji ki kalam ki to shuru se hi loha maan rahi hoon
bahut hi achha laga aur is tarah ke mushyare se likhne ka dour phir chale khoob chale yahi dua hai
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