Monday, July 13, 2009
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-पहली किश्त
मिसरा-ए-तरह "सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है" पर पहली चार ग़ज़लें.
एक: डॉ दरवेश भारती
इक दूजे का ही तो सहारा वक़्त पे काम आ जाता है
वक़्त पडा जब भी मैं दिल को, दिल मुझ को बहलाता है
राहे-वफ़ा में जाने-वफ़ा का साथ न जब मिल पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
जिनके सहारे बीत रहा है ये संघर्ष भरा जीवन
लम्हा-लम्हा उन यादों का ही मन को महकाता है
चाहे जितनी अंध-गुफाओं में हम क़ैद रहे लेकिन
ध्यान किसी का जब आता है अँधियारा छट जाता है
जीवन और मरण से लड़ने बीच भँवर जो छोड़ गया
क्या देखा मुझमें अब मेरी सिम्त वो हाथ बढाता है
कोई जोगी हो या भोगी या कोई संन्यासी हो
खिंचता चला आता है जब भी मन्मथ ध्वज फेहराता है
जिस इन्सां की जितनी होती है औकात यहाँ 'दरवेश'
वो भी उस पर उतना ही तो रहमो-करम बरसाता है
दो: जोगेश्वर गर्ग
बहला-फुसला कर वह मुझको कुछ ऐसे भरमाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
अंधियारी काली रातों में उल्लू जब जब गाता है
अनहोनी की आशंका से अपना जी घबराता है
सपने देखो फिर जिद करके पूरे कर डालो लेकिन
उनसे बचना जिनको केवल स्वप्न दिखाना आता है
उलझी तो है खूब पहेली लेकिन बाद में सुलझाना
पहले सब मिल ढूंढो यारों कौन इसे उलझाता है
रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है
पलक झपकने भर का अवसर मिल जाए तो काफी है
वो बाजीगर जादूगर वो क्या क्या खेल दिखाता है
क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है
हर होनी अनहोनी से वह करता रहता रखवाली
ईश्वर तब भी जगता है जब "जोगेश्वर" सो जाता है
तीन: अहमद अली बर्क़ी आज़मी
तुझ से बिछड़ जाने का तसव्वुर ज़हन में जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
शब-ए-जुदाई हिज्र में तेरे कैसे गुज़रती है हमदम
दिल में ख़लिश सी उठती है और सोज़े-दुरूँ बढ जाता है
एक अनजाना ख़ौफ सा तारी हो जाता है शबे-फ़िराक़
जाने तू किस हाल में होगा सोच के दिल धबराता है
कैफो सुरूरो-मस्ती से सरशार है मेरा ख़ान-ए-दिल
मेरी समझ में कुछ नहीं आता तुझसे कैसा नाता है
है तेरी तसवीरे-तसव्वुर कितनी हसीं हमदम मत पूछ
आजा मुजस्सम सामने मेरे क्यूँ मुझको तरसाता है
तेरे दिल में मेरे लिए है कोई न कोई गोशा-ए-नर्म
यही वजह है देख के मुझको तू अक्सर शरमाता है
इसकी ग़ज़लों में होता है एक तसलसुल इसी लिए
रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल अहमद अली बर्क़ी का सब को भाता है
चार: डी. के. मुफ़लिस
सब की नज़रों में सच्चा इंसान वही कहलाता है
जो जीवन में दर्द पराये भी हँस कर सह जाता है
जब उसकी यादों का आँचल आँखों में लहराता है
जिस्म से रूह तलक फिर सब कुछ खुशबु से भर जाता है
पौष की रातें जम जाती हैं जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है
मन आँगन की रंगोली में रंग नए भर जाता है
पहले-पहले प्यार का जादू ख्वाब कई दिखलाता है
रिमझिम-रिमझिम, रुनझुन-रुनझुन बरसें बूंदें सावन की
पी-पी बोल पपीहा मन को पी की याद दिलाता है
व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है
जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है
माना ! रात के अंधेरों में सपने गुम हो जाते हैं
सूरज रोज़ सवेरे फिर से आस के दीप जलाता है
आज यहाँ, कल कौन ठिकाना होगा कुछ मालूम नहीं
जग है एक मुसाफिरखाना, इक आता इक जाता है
मर जाते हैं लोग कई दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है
हों बेहद कमज़ोर इरादे जिनके बस उन लोगों का
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है
वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है
धूप अगर है छाँव भी होगी, ऐसा भी घबराना क्या
हर पल उसको फ़िक्र हमारा जो हम सब का दाता है
हँस दोगे तो हँस देंगे सब रोता कोई साथ नहीं
आस जहाँ से रखकर 'मुफ़लिस' क्यूं खुद को तड़पाता है
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11 comments:
D. K. Muflis ji ko padh kar bahut mazaa aaya..
चाहे जितनी अंध-गुफाओं में हम क़ैद रहे लेकिन
ध्यान किसी का जब आता है अँधियारा छट जाता है
रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है
तेरे दिल में मेरे लिए है कोई न कोई गोशा-ए-नर्म
यही वजह है देख के मुझको तू अक्सर शरमाता है
व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है
सतपाल जी............ ये आपके बस की ही बात है इतने सारे दिग्गजों को एक मंच पर एक मिसरे पर ,,,,,,,,,,, अपनी अपनी अनोखी बात को अपने नए नए अंदाज़ में कहने के लिए एकत्रित करना.......... हर किसी शाएर का अंदाज जुदा है......... सोच अलग है..... भाव अलग हैं पर फिर भी माला में अलग रंग के फूल होते हुवे भी एक ही लड़ी है ...........
बहुत सुन्दर गज़लों के लिये सभी गज़लकारोम को बधाई और आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
तर`ही मिसरे की ग़ज़लों के एक और
खुश-नुमा मुशायरे में आ कर बड़ी कैफियत महसूस हो रही है
डॉ 'दरवेश' भारती जी का ये
सच्चा शेर
"जिस इन्सां की जितनी होती है औकात यहाँ 'दरवेश'
वो भी उस पर उतना ही तो
रहमो-करम बरसाता है.."..... वाह
और... जोगेश्वरजी का सटीक कथन......लाजवाब
"क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है"
जनाब बर्की साहब की राए से तो हर कोई
इत्तेफ़ाक़ करता है
"इस की ग़ज़लों में होता है
एक तसलसुल इसी लिए
रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल अहमद अली बर्क़ी का
सब को भाता है..."
बाक़ी ग़ज़लें कब शाए कर रहे हैं जनाब !!
मुश्ताक़ . . . . .
---मुफलिस---
बाप रे !!!, हम तो इतने बड़े-बड़े शायरों की महफ़िल में कोने में दुबके हुए चन्द सुनने वालों में से हैं, जो दूसरों को देख देख कर ताली बजाते रहते हैं, हमारी औकात कहाँ की हम कुछ भी बोले... बस सुनते हैं ... मेरा मतलब है पढ़ते हैं......
जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है
कितनी सच्चाई है इन बातों में...
जिस इन्सां की जितनी होती है औकात यहाँ 'दरवेश'
वो भी उस पर उतना ही तो रहमो-करम बरसाता है
क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है
हर होनी अनहोनी से वह करता रहता रखवाली
ईश्वर तब भी जगता है जब "जोगेश्वर" सो जाता है
इसकी ग़ज़लों में होता है एक तसलसुल इसी लिए
रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल अहमद अली बर्क़ी का सब को भाता है
और मुफलिस साहब की गजल का हर शेर पसंद आया
वीनस केसरी
ज़ौ फ़ेगन सत्पाल की है महफ़िल-ए-शेरो सुख़न
चार शायर हैँ जहाँ बर्क़ी शरीक-ए- अंजुमन
हर सुख़नवर अपने अपने रंग मेँ ह मुनफ़रिद
जिनकी ग़ज़लोँ से नुमायाँ है शउर-ए-फ़क्रो फन
डी के मुफलिस गर्ग और दरवेश के अशआर से
जलवा गर अहमद अली बर्क़ी है मेयार-ए-सुख़न
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
"आज की ग़ज़ल" एप एक और बेमिसाल मुशायरे का आगाज़...वाह!
और शुरूआत में ही एक-से-एक शायर के अद्भुत शेर...
दरवेश भारती जी को पढ़ना तो हमेशा से ट्रीट रहा है हम जैसों के लिये...
गर्ग साब का ये शेर बहुत अच्छा लगा "उलझी तो है खूब पहेली लेकिन बाद में सुलझाना
पहले सब मिल ढूंढो यारों कौन इसे उलझाता है"
और अहमद अली जी के ल्गभग हर शेर विशेष कर " तेरी तसवीरे-तसव्वुर कितनी हसीं हमदम मत पूछ
आजा मुजस्सम सामने मेरे क्यूँ मुझको तरसाता है"
और मुफ़लिस जी का वो लाजवाब शेर "पौष की रातें जम जाती हैं जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है" पहले ही उनकी कृपा से सुन चुका था और अलग से खूब दाद दे दी थी उनको। यहाँ हुस्ने-मतला पढ़ कए मजा आ गया और ये दो शेर "मर जाते हैं लोग कई दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है"
और "वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है"
और मक्ता तो अलग से दाद माँग रहा है...
बहुत खूब ...
एक से बढ़कर एक गज़लें पढने को मिलीं हैं...मजा आ गया...
और खुद पर...शर्म भी....
:)
इस बार हमसे कोई शे'र नहीं हो पाया....पर दाद देने...तालियाँ बजाने चले आये...
:)
कुछ तो पूरा महीना ही द्विज भाई की (" कभी हाँ कभी ना ") में बीता है...
::::::::::)))))))
satpaal jee adab
is baar bhee aap ne ek KhoobSoorat maHfil sajaae,y hai ek se baRh kar ek shoa'rah ne shirkat kee GhazaleN paRh kar khoob mazaa aayaa. meree jaanib se mubaarak baad qubool farmaae,N
is baar maiN shirkat nah kar sakaa aai,Ndah insha Allah sahreek huNgaa
regards
Khurshidul Hasan Naiyer
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