Tuesday, November 3, 2009

बलवीर राठी की ग़ज़लें और परिचय











उर्दू अदब को जाने बिना ग़ज़ल कहना बैसा ही है जैसे कबीर को पढ़े बिना दोहा लिखना।गा़लिब से परिचित हुए बगैर कोई ग़ज़ल नहीं कह सकता है। खै़र,आज हम ग़ज़लें पेश कर रहे हैं,1934 में हरियाणा में जन्में बलवीर राठी की, जिनके अब तक ३ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।बज़ुर्ग शायर हैं और बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और हरियाणा साहित्य अकादमी से सम्मान हासिल कर चुके हैं।

एक

गो पुरानी हो चुकी अब होश में आने की बात
लोग फिर भी कर रहे हैं मुझको समझाने की बात

रफ़्ता-रफ़्ता ढल गई है सैंकड़ों नग़मात में
ए दिले-मासूम तेरे एक अफ़साने कि बात

अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग
कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात

ज़िंदगी उलझी हुई है और ही जंजाल में
अब कहां वो साग़रो-मीना की, मयखाने की बात

अजनबी माहौल में अपने तो लब खुलते नहीं
तुम ही छेड़ो आज इस रंगीन अफ़साने की बात

(रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल)

दो

तेज़ लपटों में ढल गया हूँ मैं
कोई सूरज निगल गया हूँ मैं

कितने राहत-फ़िज़ा थे अंगारे
बर्फ लगते ही जल गया हूँ मैं

तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे
उन हदों से निकल गया हूँ मैं

हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं

मत बुलंदी की बात कर "राठी"
अब वहां से फिसल गया हूँ मैं

(बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

तीन

हमें साथ मिल तो गया था किसी का
मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का

कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का

वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है
कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का

अगर साथ होते वो इन रास्तों पर
तो क्या हाल होता मेरी आगही का

मेरे हाल पर मुस्करा कर गए हैं
चलो हक़ अदा हो गया दोस्ती का

बहरे-मुतका़रिब मसम्मन सालिम
(चार फ़ऊलुन )122x4


शायर का पता-
3836 अरबन इस्टेट
जींद- हरियाणा
फोन-01681-247351

9 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का


बढ़िया प्रस्तुति.....आनंद आ गया ...

daanish said...

अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग
कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात

हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं

राठी साहब की शायरी से अच्छी तरह से वाक़िफ़ हूँ
उनकी अपनी इन्फ्रादियत है...अपना मुक़ाम है
एक अछे इंसान और अछे शायर का हर लफ्ज़
कोई न कोई पैगाम ही दे जाता है
मुबारकबाद

Yogesh Verma Swapn said...

कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का

teenon gazal behatareen/

निर्मला कपिला said...

ustad shayaron ke liye kuch kahane kee meri hasti nahin hai magar aur gazalon kaa lutf khoob uthhaaya> roman me comment dena achha nahin lag raha magar aaj hindi typing tool chala nahin is laajavaab prastuti ke liye dhanyavaad

Ahmad Ali Barqi Azmi said...

है नेहायत दिलनशीँ बलवीर राठी का कलाम
क्योँ न हो बज़्म-ए-सुख़न मेँ आज रोशन उनका नाम

उनके फ़िक्रो फन मेँ है रंग-ए- तग़ज़्ज़ल का निखार
पेश करता है उनहेँ अहमद अली बर्क़ी सलाम
अहमद अली बर्क़ी आज़मी
नई दिल्ली

Sanjay Grover said...

rawaangi hai ! sheriyat hai.

aur ye do sher to lagta hi nahiN kisi buzurg shayar ne likhe haiN, jawaN zehan, jawaaN soch !

तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे
उन हदों से निकल गया हूँ मैं

हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं

unse mafi maangkar maiN neeche waale sher ko thorha-sa hi badalta :-
JURM, AI WAQT, MERA ITNA HAI,
TUJHSE AAGE NIKAL GAYA HUn MAIn.

Devi Nangrani said...

राठी साहब की शायरी पढ़कर मन को सुकून मिलता है. दर हकीकत ज़िन्दगी के हर लम्हे को जिया हुआ दर्शन हासिल होता है.

वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है
कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का

सतपाल जी इस पेशगी के लिए आपको भी मुबारक
देवी नागरानी

Kavi Kulwant said...

bahut Khoob...Rathi Ji ko padh kar bahut achcha laga..

गौतम राजऋषि said...

राठी साब को खूब पढ़ने का मौका मिला है....

शुक्रिया सतपाल जी!

तरही अपनी कल शाम तक सौंप रहा हूँ...