Friday, November 13, 2009

तरही की दूसरी क़िस्त














मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गिरीश पंकज

मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं

मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं

मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं

कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता यहाँ पंकज
वो सब हो जाता है पूरा अगर हम ठान लेते हैं

चंद्रभान भारद्वाज

हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

उदासी से घिरा चेहरा तेरा अच्छा नहीं लगता
तुझे खुश देखने को बात तेरी मान लेते हैं

न कोई जान लेते हैं न लेते माल ही कोई
फकत वे आदमी का आजकल ईमान लेते हैं

हज़ारों बार आई द्वार तक हर बार लौटा दी
बचाने ज़िन्दगी को मौत का अहसान लेते हैं

सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं

15 comments:

नीरज गोस्वामी said...

गिरीश पंकज जी के ये शेर :

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं

और चंद्रभान भारद्वाज जी के ये शेर :

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

इस लाजवाब तरही मुशायरे को नयी बुलंदियों पर ले जाते हैं...वाह वाह...जितनी तारीफ़ की जाये कम है...बहुत बहुत शुक्रिया सतपाल जी इन खूबसूरत अशारों को पढ़वाने के लिए...
नीरज

"अर्श" said...

PANKAJ JI KE YE SHE'R....

मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं

मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं

AUR JANAAB BHARDWAJ JI KE YE SHE'R WAKAI KAMAAL KE BAN PADE HAI... JO APNE AAP ME USTADANA SHAYARI HAI..

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

SATPAAL JI JIS MEHNAT SE AAP IS TARAHI KO MUKAMMAL ANJAAM DE RAHE HAIN IN KHUBSURAT ASH'AARON KO PADHWAAKAR WO APNE AAP ME KAMAAL KI BAAT HAI BAHUT BAHUT BADHAAYEE


ARSH

daanish said...

मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है

सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख "भारद्वाज" उड़ना ठान लेते हैं

जनाब गिरीश पंकज और जनाब चन्द्र भान की
गज़लें पढ़ कर बहुत ख़ुशी हुई ....
ख़ास तौर पर ऊपर लिखे अश`आर
बहुत ज्यादा पसंद आये ...
और.....
जब नीरज गोस्वामी जैसे
आलिम फ़ाज़िल शख्सियत का तब्सिरा
आ चुका हो तो मेरे पास अल्फाज़
कहाँ रह जाते हैं कुछ कहने को भला !!
खैर....
बधाई के असली हक़दार तो सतपाल जी
आप ही हैं ....मुबारकबाद

Asha Joglekar said...

बहुत सुंदर बात चलाई है आपने मिसरा देकर पूरी गज़ल लिखवाने की । दोनो गजलें बहुत ही खूबसूरत ।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

गिरीश पंकज जी, चंद्रभान भारद्वाज जी की गज़ल दिल को छू गयी
अलबत्ता>>>>
सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख>> 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं???
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

वाह वाह !! बहुत खूब !!
दोनों ग़ज़लों के शेर उम्दा हैं..

- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'

daanish said...

ह्म्म्म्म .....
"भारद्वाज" को
"भारदवाज" की तरह इस्तेमाल
किया गया है
खालिक़ ने ये छूट शायद
जान बूझ कर ली है .......
खैर,,, शेर अछा है ...असर छोड़ता है

और
सम्पादक का निर्णय अंतिम
और .....सर्वमान्य ......(:

सतपाल ख़याल said...

aadaab muflis ji,

aapne sahi farmaya
सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं
yahan par भारद्वाज ko भारदवाज kaha gaya hai Bh'ra'dwa'ja nahi.I think it pronounced like भारदवाज isliye. CHotee se flexibility shayar le sakta hai I think, shabd bhale Toot jaye par bahar na Toote, ye baat aksar Dwij ji batate rahte haiN.Baaki bhardwaj ji batayen ki doosree jagah vo ise kis vazn me lete haiN..

dhanyavaad

सतपाल ख़याल said...

छोड़ अब 'भारद्वाज' अपने,
चेहरे पर नकाब रखना।
yahan par 2121 bha'ra'dwaa'ja
and I think this is right

भूख 'भारद्वाज' आकर फँस गई है जाल में,
घोंसले से तो चली थी चार दानों के लिए।
shayar 'भारद्वाज'ko 2221 ke vazn me le raha hai aur.
baaki over to chanderbhan bhardwaj ji....

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

जनाब सतपाल 'ख्याल' जी
यूं कहा जाये तो ज्यादा मुनासिब होगा कि जहां इस्तेमाल किया गया, वहां 'भारद्वाज' के बजाय 'भारद वाज' या 'भारी द्वाज' वज़न दरकार है.
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

गौतम राजऋषि said...

दोनों ही तरही लाजवाब हैं....गिरीश जी और भारद्वाज जी को बधाई...

बाकि भारद्वाज जी के कमेंट का इंतजार है कि शाहिद साब और सतपाल भाई के उठाये प्रश्नों का जवाब के लिये जिससे हम छात्रगण कुछ सीख पाये...

chandrabhan bhardwaj said...

भाई मुफलिस जी व भाई सतपाल जी, नमस्कार
इस गज़ल में मेरे नाम 'भारद्वाज' के विषय में जो बात उठाई है उसके बारे में
में स्पष्टीकरण दे रहा हूँ। मैं बहर में अपने नाम का प्रयोग दो प्रकार से करता हूँ।
'भारद्वाज' और 'भरद्वाज' ये दोनों ही सही हैं। लेकिन इन दोनों शब्दों के उच्चारण
बहर की आवश्यकता के अनुसार तीन प्रकार से उच्चारित होते हैं।
(1) भारद्वाज = 2121
(2)भारदवाज = 2221
(3)भरद वाज =भरद्वाज =1221
ये तीनों उच्चारण भी बहर की आवश्यकता के अनुसार सही हैं। वर्तमान गज़ल में (2)
के अनुसार उच्चारण किया जाना है जैसा कि भाई सतपाल जी ने स्पष्ट किया है
तभी बहर सही होगी।
चन्द्रभान भारद्वाज

तिलक राज कपूर said...

ज्ञानियों के बीच टिप्‍पणी से मैं बहुत डरता हूँ क्‍योंकि ज्ञानियों में बात मानने की सहजता का अभाव रहता है फिर भी यह मुद्दा निकल ही चला है तो यहॉं यह देखना जरूरी है कि द्व स्‍वयं में एक संयुक्‍ताक्षर है जो आधे द तथा व तो इस प्रकार भारद्वाज हुआ भा रद् वाज । इससे आगे की समझ मुझमें नहीं है लेकिन मुझे लगता है इसका वज्‍़न 2221 ही बनेगा।
बाकी, ज्ञानियों की राय सर'माथे पर।
तिलक राज कपूर

blackboyfriend said...

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं -बहुत उम्दा शे‘र बधाई

मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं
मुझे ये या सब करें तो बेहतअर रहेगा
हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको[ तुमको क्योंकि अगले में हमको है जो बहुवचन्सूचक है
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

बहुत अच्छा लगा, ऐसे आयोजन तो चलते रहने चाहिए भाई