
एक अगस्त 1934 मे जन्मे अख़ग़र पानीपती जी एक वरिष्ठ शायर हैं.अब तक इनके तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.उजालों का सफर उर्दू में, अर्पण हिंदी में,अक्षर नतमस्तक हैं हिंदी में.
आप पानीपत रत्न से नवाज़े जा चुके हैं और आप मुशायरों व कवि सम्मेलनों में शिरकत करते रहते हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आप सब के लिए:
ग़ज़ल

हज़ार ज़ख़मों का आईना था
गुलाब सा जो खिला हुआ था
मेरी नज़र से तेरी नज़र तक
कईं सवालों का फासला था
खुलूस की ये भी इक अदा थी
करीब से वो गुज़र गया था
हमारे घर हैं सराये फ़ानी
ये साफ दीवार पर लिखा था
टटोल कर लोग चल रहे थे
ये चांदनी शब का वाक़या था
तलाश में किस हसीं ग़ज़ल की
रवां ख़यालों का काफिला था
वो इक चरागे-वफ़ा था अख़ग़र
जो तेज आंधी में जल रहा था
बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन
121 22 121 22
ग़ज़ल:

दीवारों ने आंगन बांटा
उतरा-उतरा धूप का चेहरा
एक ज़रा सी बात से टूटा
कितना नाजुक प्यार का रिश्ता
वो है अगर इक बहता दरिया
फिर क्यूं रहता प्यासा-प्यासा
तू किस दुनिया का मतवाला
सबकी अपनी-अपनी दुनिया
अब लगता है भाई-भाई
इक-दूजे के खून का प्यासा
आवारा-आवारा डोले
अंबर पर बादल का टुकड़ा
चेहरा तो है चांद सा रौशन
दामन मैला है अलबत्ता
सच्चाई के साथ न कोई
झूठ-कपट के संग ज़माना
ये भी इन्सां वो भी इन्सां
एक अंधेरा एक उजाला
गुरबत इक अभिशाप है यारो
सच्चा बन जाता है झूठा
कुत्तों को भरपेट है रोटी
भूखा इक खुद्दार का बच्चा
अंधों की इस भीड़ में अख़ग़र
किस से पूछें घर का रस्ता
(आठ फ़ेलुन)
ग़ज़ल:

हिसारे-ज़ात से निकला नहीं है
बशर खुद को अभी समझा नहीं है
किसी को भी पता मेरा नहीं है
जहां मैं हूं मेरा साया नहीं है
नज़र की हद से आगे भी है दुनिया
जिसे तुमने कभी देखा नहीं है
कमी शायद है अपनी जुस्तजू में
वो घर में है मगर मिलता नहीं है
खयालों की भी क्या दुनिया है यारों
कि इसकी कोई भी सीमा नहीं है
जो सब लोगों में खुशियां बांटता था
उसे हंसते कभी देखा नहीं है
जिसे देखो लगे है इक फरिश्ता
मगर इन में कोई बंदा नहीं है
उजालों का नगर है पास बिल्कुल
पहुंचने का मगर रस्ता नहीं है
लगाव हर किसी को है किसी से
जहां में कोई भी तन्हा नहीं है
तुम्हारी जा़ते-अक़दस पर भरोसा
खुदा रक्खे कभी टूटा नहीं है
रवां किन रास्तों पर हूं मैं अख़ग़र
कि पेड़ों का यहां साया नहीं है
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.