Wednesday, January 13, 2010

विलास पंडित-ग़ज़लें और परिचय













1965 में जन्में विलास पंडित "मुसाफ़िर" बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और अब तक तीन किताबें परस्तिश,संगम और आईना भी छाया हो चुकी हैं। कई गायकों ने इनके लिखे गीतों को आवाज़ भी दी है। पिछले 25 सालों से साहित्य की सेवा कर रहे हैं।

आज की ग़ज़ल पर इनकी तीन ग़ज़लें हाज़िर हैं- नीचे दिए गए संगीत के लिंक को आन कर लें ग़ज़लों का मज़ा दूना हो जाएगा।

एक

वो यक़ीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रह के जी गया

झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यों मेरा दामन कोई कर सी गया

उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझ कर पी गया

चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
वार जब सैय्याद का खाली गया

लौट कर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया

कोई रहबर है न है मंज़िल कोई
वो "मुसाफ़िर" लौट कर आ ही गया

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन


दो

भूल गया है खुशियों की मुस्कान शहर
पत्थर जैसे चहरों की पहचान शहर

बाशिंदे भी अब तक न पहचान सके
ज़िंदा भी है या कि है बेजान शहर

सोच ले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर

ज़िंदा है गाँवो में अब तक सच्चाई
दो और दो को पाँच करे *मीज़ान शहर

उसकी नज़रों में जो "मुसाफ़िर" शायर है
बस ख्वाबों की दुनिया का उनवान शहर

*मीज़ान-पैमाना (scale)

पाँच फ़ेलुन+1 फ़े

तीन

किसी का जहाँ में सहारा नहीं है
ग़मों की नदी का किनारा नहीं है

है अफसोस मुझको मुकद्दर में मेरे
चमकता हुआ कोई तारा नहीं है

ख़ुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ हो
जिसे आसमाँ से उतारा नहीं है

जो चाहो तो चाहत का इज़हार कर दो
अभी मैंने हसरत को मारा नहीं है

यूँ कहने को तो ज़िंदगी है हमारी
मगर एक पल भी हमारा नहीं है

ऐ ! मंज़िल तू ख़ुद क्यूँ करीब आ रही है
अभी वो "मुसाफिर" तो हारा नहीं है

मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम
चार फ़ऊलुन

संगीत और शायरी एक दूसरे के पूरक हैं तो सोचा क्यों न हर पोस्ट के साथ कुछ रुहानी ख़ुराक परोसी जाए । लीजिए सुनिए हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी और विलास जी की ग़ज़लें पढ़ते रहिए-



शायर का पता-
301, स्वर्ण प्लाज़ा ,प्लाट न.-1109
स्कीम न.114-1,ए.बी रोड
इन्दौर
099260 99019
0731-4245859

15 comments:

Anonymous said...

वो यक़ीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रह के जी गया
wahwa!! bahut khoobsurat she'r

राकेश खंडेलवाल said...

तीनों गज़लें सुन्दर.

पढ़वाने का शुक्रिया

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

विलास पंडित की ग़ज़लें अच्छी लगीं । सादगी और सरलता क़ाबिले-तारीफ़ है ।

Yogesh Verma Swapn said...

behatareen, aabhaar.

Arvind sharma said...

wah, vilas ji aakhir aapne gumnami ke andhro se bahar aakar hume gazal se roshan kar hi diya.

Arvind said...

Afreen, Vilas ji aapne akhir gumnami ke andhero se bahar aakar hume gazal se roshan se kar hi diya.

कडुवासच said...

... बेहद प्रभावशाली गजलें हैं,बधाईंया!!!!!

योगेन्द्र मौदगिल said...

wah...behtreen gazalen ...wah

Pushpendra Singh "Pushp" said...

बेहतरीन ग़ज़लें
बहुत बहुत आभार

Vilas Pandit said...

wah janaab, aapke naye andaz ne dil ko chu liya. jitni taref karein kam hai.

siddharth

तिलक राज कपूर said...

झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यों मेरा दामन कोई कर सी गया
भाई बहुत अच्‍छा आर्ब्‍जवेशन है। तीनों ग़ज़लें अच्‍छी पर शेर तो दत्स्‍तावेज है।
बधाई

गौतम राजऋषि said...

बहुत अच्छी ग़ज़लें। पहली ग़ज़ल का मतला तो गज़ब का है...।

कुछ अशआर जो बेहद भाये:-
लौट कर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया

सोच ले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर

ख़ुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ हो
जिसे आसमाँ से उतारा नहीं है

...उधर पहली ग़ज़ल के बहर में एक फ़ाइलातुन का जिक्र अतिरिक्त रुप से हो गया है, सतपाल भाई।

सतपाल ख़याल said...

muaafii chahta hooN gautam ji ghalatii ke liye ek faailaatun ka kar dia hai...

kavi kulwant said...

yun kahane ko to zindagi hai hamarai.
ek pal bhi magar hamara nahi hai..
khoobsurat gazalen..

अशोक रावत said...

कहन के स्तर पर सभी ग़ज़लं अति साधारण.