Monday, May 17, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी-चौथी क़िस्त
नवनीत जी की इस अरदास-
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
के साथ और राजेन्द्र स्वर्णकार के इस अनूठे और सुंदर शे’र-
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
के साथ हाज़िर है ये चौथी कि़स्त-
नवनीत शर्मा
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
जोग भी मन की ही इच्छा है
तू इच्छा का दास रे जोगी
हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी
काश वो आएँ जिनको सौंपे
पल छिन घड़ियाँ मास रे जोगी
जिनको भूख से रोज उलझना
मजबूरी उपवास रे जोगी
गाँव-नगर जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
सूखीं सपनों की धाराएँ
जैसे दरिया ब्यास रे जोगी
तू माहिर दुनियादारी में
किसको था आभास रे जोगी
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
उससे कहो पहले बन ढूँढे
कौन चला बनवास रे जोगी
राजेन्द्र स्वर्णकार(बीकानेर से)
मन है बहुत उदास रे जोगी
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
पूछ न प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी
अब सम्हाले संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी
पी'मन में रम-रच गया,जैसे
पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी
कौन पराया-अपना है रे
क्या घर और प्रवास रे जोगी
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
छोड़ हमें ’राजेन्द्र’ अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
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आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...
23 comments:
इस चौथी किस्त में तो अशआर की जो बारिश हुई, ठंडक मिली है.
आज की ग़ज़ल में पहली बार आया हूं ,
प्रवेश - स्वीकृति देने के लिए आभार !
… लेकिन मैं नहीं जानता कि मेरी ग़ज़ल के ये तीन शे'र क्यों छपने से रह गए ?
मूल ग़ज़ल में नंबर 3 -
जी घुटता है ; बाहर चलती
लाख पवन उनचास रे जोगी !
मूल ग़ज़ल में नंबर 6 -
प्रेम - अगन में जलने का तो
हमको था अभ्यास रे जोगी !
मूल ग़ज़ल में नंबर 7 -
किंतु विरह - धूनी तपने का
है पहला आभास रे जोगी !
पुनः साधुवाद !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
नवनीत जी को पहली बार पढ़ा है।
कोई मोटा गणित बता दे, बाकी कितने श्वास रे जोगी तथा जोग भी मन की ही इच्छा है, तू इच्छा का दास रे जोगी का फलसफ़ा और सांझ ढले सब घर को लौटें, अपनी ये अरदास रे जोगी की अरदास और फिर उससे कहो पहले बन ढूँढे, कौन चला बनवास रे जोगी का व्यंग्य बहुत अच्छा कहा।
मन है बहुत उदास रे जोगी, आज नहीं प्रिय पास रे जोगी और पूछ न प्रीत का दीप जला कर, कौन चला बनवास रे जोगी की विरह; अब सम्हाले संभल न पाती, श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी की निराशा और पी'मन में रम-रच गया, जैसे, पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी का संयोग, धार लिया तूने तो डर कर, इस जग से सन्यास रे जोगी का व्यंग्य, प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है, और सिद्धि संत्रास रे जोगी का फलसफ़ा लिये ’राजेन्द्र’ जी के शेर।
आनंद आ गया।
नवनीत जी ने बहुत अच्छे शे'र दिए हैं -
बहुत नया और अछूता बिंब लिया है इस शे'र में -
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
लेकिन…
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
नास से तात्पर्य स्पष्ट नहीं हुआ । नष्ट होने से आशय है तब सही शब्द नाश होने के कारण क़ाफ़िया प्रभावित नहीं हुआ क्या ?
गुणियों की महफ़िल में ही शंका - समाधान की संभावना मानते हुए बात रखी है ।
नवनीतजी के गुण का तो पहले ही कायल हो चुका हूं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
behtareen...
sabhi kistey padhin..
कब याद में तेरा साथ नहीं कब हाथ में तेरा हाथ(हात) नहीं
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं
फ़ैज़ साहब के शे’र के साथ शुरू कर रहा हूँ ताकि नाश और नास के इस्तेमाल पर उठाए एतराज़ को
justify कर सकूँ। ऐसा बहुत शायरों ने किया है और सही भी है। कबीर तो छंद निभाने के लिए अपना
नाम तक तोड़ देते हैं, खु़द को कबिरा तक कह देते हैं लेकिन छंद महत्वपूर्ण है।सत्यानाश और सत्यनास,
श्वास और स्वास आदि इस्तेमाल होते हैं।
बाक़ी जो शे’र काटने की बात है वो बतौर संपादक कई बार न चाहते हुए भी करना पड़ता है और उसका
कारण चर्चा करना कई बार संभव नहीं होता
प्रेम - अगन में जलने का तो
हमको था अभ्यास रे जोगी
किंतु विरह - धूनी तपने का
है पहला आभास रे जोगी
इन दो शेरों को ध्यान से देखें पहले शेर में शायर कह रहा है कि हमें प्रेम आग में जलने का अभ्यास तो था
उसे और फिर दूसरे शे’र में इस अधूरी बात को पूरा कर रहा कि- किंतु विरह धूनी में तपने का ये पहला आभास है।
अब ग़ज़ल में हर बात एक ही शे’र में पूरी करनी होती है उसे बचाकर दूसरे में नहीं पूरा करते।इसलिए ये शे’र काटे थे और इस शे’र-
जी घुटता है ; बाहर चलती
लाख पवन उनचास रे जोगी
में लाख-उनचास का मेल समझ नहीं आया जो राजेन्द्र स्वर्णकार जी खोल कर बताएँ तो आभारी रहूँगा।
और राजेन्द्र स्वर्णकार जी के इस शे’र ने दिल लूट लिया
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है !
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
बधाई स्वीकरें।
एक से बढ़ कर एक खूबसूरत भाव आ रहे हैं..
सुंदर गज़लें...
सुलभ सतरंगी जी, तिलकराज कपूर जी और पारुल जी, आप सभी को अश्आर पसंद आए जिसके लिए आभार। यह किसी भी शायर के लिए महत्वपूर्ण होता है कि उसका लिखा लोगों तक पहुंचे और उन्हें पसंद भी आए।
भाई राजेंद्र स्वर्णकार जी को बधाई एक कालजयी शे'र के लिए ....और सिद्धि संत्रास रे जोगी। उन्हें पहली बार पढ़ा और अच्छा लगा। जहां तक उनकी मेरे शे'र को लेकर शंका के निवारण की बात है मुझे यही कहना है कि अंचल या क्षेत्र विशेष के अनुरूप भाषा और शब्द भी प्रारूप बदलते हैं। सत्यानाश सत्यानास हो जाता है और इतनी बारंबारता के साथ इस्तेमाल होता है कि हिंदी से बाबस्ता लोगों को बुरा नहीं लगता। क्योंकि ये तद्भव रूप हैं शब्दों के। फिर भी राजेंद्र जी को बुरा लगा है तो यह मेरे लिए आत्ममंथन का बिंदु है जिसे मैं सहर्ष स्वीकार भी करता हूं। राजेंद्र जी भी मान रहे हैं कि सही शब्द नाश है...और इससे काफिया भंग होता। इसीलिए तो नाश नहीं नास लिखा गया है और मैं अपने ज्ञान अर्जन के लिए वह व्यवस्था देखना चाहूंगा जहां नास शब्द इस्तेमाल नहीं करने की ताकीद की गई हो। मैं मानता हूं कि भाषा हो साहित्य किसी का कहा या लिखा गया कोई भी शब्द अंतिम शब्द नहीं हो सकता है। इसलिए नास शब्द पर और विद्वान भी चर्चा कर सकते हैं। ग़ज़ल ऐसी विधा है जिसमें हर कोई मरते दम तक छात्र ही रहे तो अधिक सीख सकता है। मैं भी सीख रहा हूं। ....नियरे रह कर राजेंद्र जी ने जो खोट देखा है उसके लिए आभार।
@राजेन्द्र स्वर्णकार जी @नवनीत शर्मा जी
तद्भव रूप की बात करने से पहले एक बात और है जो महत्वपूर्ण है, जिसपर सतपाल जी ने भी ध्यान दिलाया है। हर भाषा की अपनी सीमायें होती हैं और विशेषतायें भी। उर्दू शाइर अक्सर इस तरह की छूट अक्सर लेते हैं त और ट के काफि़ये की, श और स के काफि़ये की, ष तो उर्दू में होता ही नहीं। होता ये है कि जब कोई शब्द आप अन्य भाषा से आयात कर रहे हों तो वो आपकी अपनी भाषा के शब्दकोष में नहीं होने का लाभ लिया जाता है। स्थानीय भाषा में ग़ज़ल कहते समय स्थानीय तद्भव रूप लिये जा सकते हैं लेकिन शुद्ध रूप तो वही रहता है जो शब्दकोष में अनुमत्य हो। शब्दकोष से बाहर के शब्दों पर विवाद की संभावनायें तो बनी ही रहती हैं।
मेरा यह मानना है कि अगर अर्थ स्पष्ट हो रहा है एवं बदल नहीं रहा है तो इस प्रकार के विवाद से बचना ही ठीक रहता
तरही सिलसिले में इस बार भी अच्छी गज़लें पढने को मिली हैं
नवनीत जी का ये शेर कहीं भी चर्चा का विषय बन जाने में समर्थ है
"कोई मोटा गणित बता दे
बाक़ी कितने श्वास रे जोगी " .....
और
"हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी "
शेर में 'आवास' की उपयोगिता तर्कसंगत बन पडी है
राजेंद्र जी का ये मिसरा
"आज नहीं प्रिय पास रे जोगी..."
ग़ज़ल की भावना को आकार दे रहा है ,, उत्तम ....
और
"प्रणय विनोद नहीं है, तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी"
एक अलग ही मनोभाव को परिभाषित करने का प्रयास है
दोनों ग़ज़ल कारों को बधाई .
वाह ! वाह !! वाह !!!
नगर-ग्राम जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
(नवनीत शर्मा)
प्रणय विनोद नहीं रे तप है
सिद्धि नहीं संत्रास रे जोगी
(राजेन्द्रजी स्वर्णकार)
संत्रास के दो भिन्न प्रयोग सचमुच आनंददायक !
rajendra swarnakar aur navaneet ne achchhe sher kahe hai. rajendra bhai ke kuchh sher chhapne se rah gaye hai.sampadak ko chhoot dee jani chahiye, kai baar jagah ki bhi samasyaa rahati hai. rajendra ji ke sher 'hindi prakriti' ke hai. लाख पवन उनचास रे जोगी yah deshaj muhavaraa-sa hai shayad. rajendra ji ise spasht kar den. mujhe har sher pasand aaye. pahali baar ek aur sambhavanaasheel kavi-shayar se parichit huaa hoon.
- "लाख जतन कर हारी…"
- "चाहे लाख तूफ़ां आए…"
- "मैंने लाखों के बोल सहे…"
- "लाख जलता रहे ये ज़माना…"
बोलचाल में "लाख" को लाख संख्या की गिनती की तरह नहीं ,
अपितु आवृति के प्रतीक की तरह आम लोग
और कवि-शायर जैसे काम लेते हैं , उससे अलग तो मैंने नहीं किया ।
हां, इसके साथ के देशज मुहावरे "उनचास पवन" में भी
संख्यासूचक शब्द होने मात्र से "लाख" शब्द को अपनी बात
कहने के लिए बलाघात की तरह प्रयोग करने में लाख-उनचास के मेल में मैंने कोई वर्जना नहीं मानी ।
फिर भी … आप अधिक गुणी हैं , साथ ही गुणियों के संपर्क में रहने का सौभाग्य रखते हैं ; आप गुरु भाव से समझादें , मैं शिष्य भाव से सहमत हो जाऊंगा … । लेकिन, पहले हर हाल में स्पष्टतः समझना चाहूंगा , अंधानुकरण न कर पाने का "गुनहगार" मुझे माना जाता रहा है , लेकिन मैं अपनी जिज्ञासा - प्रवृति कभी नहीं छोड़ता , कहीं नहीं छोड़ता ।
गुणियों की महफ़िल में ही शंका - समाधान की संभावना मानते हुए बात रखी थी … । कृपया , मेरी पूर्व दोनों टिप्पणियों में कोई भी गुणी ऐसी पंक्ति , ऐसा शब्द रेखांकित करे जिसके कारण इन तेवरों के साथ जवाब की उम्मीद की जाए ।
आपके संपादकीय अधिकार से असहमति - सहमति की भी मैंने तो कहीं बात नहीं की थी ।
नवनीत सर्माजी का भी आभार !
क्षमा करें , अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण हर बात का अक्षरशः जवाब नहीं दे रहा हूं । फिर भी आपका आदेश हुआ तो हाज़िर हो जाऊंगा ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
आदरणीय भाई राजेंद्र श्वर्णकार जी, मुझे आपकी और गजलें देखने की इच्छा है आपके ब्लाग पर आऊंगा।
राजेन्द्र स्वर्णकार जी
मैं मुआफ़ी चाहता हूँ कि मेरे शब्दों से आपको ठेस पहुँची। बाक़ी मैं कोई बहुत बड़ा गुणी या गुरू नहीं हूँ। आपकी तरह ही या यूँ कहो आप से भी छोटा हूँ।
हो सकता है कि आप सही हों और मैं ग़लत होऊं।
लेकिन आपको जान-बूझकर शर्मा जी को सर्मा जी और फिर उसे बोल्ड करके लिखना शोभा नहीं देता। आप देशज की बात भी करते हैं और इस तरह भी कह रहे हैं।
""अंधानुकरण न कर पाने का "गुनहगार" मुझे माना जाता रहा है""
आप अंधानुकरण न करें । हो सकता है आप सही हों और मैं ग़लत।आपके सही होने की ज़्यादा गुंज़ाइश है। आप अपनी ग़ज़ल पर किसी बज़ुर्ग शायर से इस्लाह ले लें जिसे आप गुरू समान मानते हों। हम तो ठहरे शाग्रिद जो कभी गुरू नहीं बनेंगे और न बनना चाहेंगे ही।
बाक़ी गुरू सरीखे पाठकों से अनुरोध है कि वो कुछ कहें।
स्नेह सहित
ख़याल
(Rajendra Swarnkar said...
नवनीत सर्माजी का भी आभार !
Blogger navneet sharma said...
आदरणीय भाई राजेंद्र श्वर्णकार जी,)
शिष्टाचार ,
विनम्रता ,
शालीनता ,
विद्वता ....
इन गुणों से भरपूर सज्जन-साहित्यकार
और ...
यहाँ तक पहुँचने की चेष्ठा ...!!
लगता है सब आवेश-वश ही हो गया है
हमें हर हाल में
साहित्य की गरिमा को ठेस नहीं पहुँचने देना है
हमें ही ....
हम सब को ही ....
मुझे लगता है कि प्रश्न ग़ज़लगोई से व्यक्तिगत अहम् की ओर बढ़ चुका है जो कि निरर्थक है। अच्छी शाइरी के लिये खुद को खारिज करना आना जरूरी है। जिस शाइर ने खुद को खारिज करना नहीं सीखा वह कहन में ठहर जाता है। विकास के लिये जरूरी है कि विपरीत टिप्पणियों का भी खुले दिल से स्वागत किया जाये और अगर टिप्पणी से असहमति हो तो उसे प्रबल तर्क के साथ लेकिन शालीनता से रखा जाये। साहित्य सृजन में अवरोध-विरोध-गतिरोध सबका सामना होता है और ऐसे में पूर्ण सहजता व शालीनता का साथ नहीं छोड़ना चाहिये।
एक बात और है कि शायद 20 वर्ष पहले मैं ऐसा नहीं कहता, इसका ध्यान रखते हुए विवादग्रस्त मित्र अपने अनुभव में 20 वर्ष चाहें तो अभी जोड़ लें या फिर इंतज़ार करें।
Rajendra ji or navneet ji. aap dono ki maine rachnaye dekhi. dono guni hai isme sandeh nahi. par jahan tak mera maan na hai rajendraji ne naam bold karke sirf yahi saaf kiya hai ki sahi likhne par hi baat spast hoti hai. or jaise apna naam galat likhe hone par navneet ji ko bura laga. matlab galat to galat hi laga na? kgair wakai rachnaye or tippaniyo dono hi me majha aa gaya. t
आदरणीय सतपाल भाटियाजी ,मु्फ़्लिसजी और अन्य समस्त गुणीजनों - गुरुजनों को वंदन !
मैंने आदरणीय नवनीत शर्माजी की टिप्पणी देखने के बाद जो मेल भेजी थी , हूबहू नीचे पेस्ट कर रहा हूं …
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कृपया मन में ग्रंथि मत पालिएगा ।
प्रिय नवनीत शर्माजी ,
नमस्कार !
देखिए,अखर गया ना ?
हम रचनाकारों से आमजन सही-ग़लत शब्द का अंतर समझते-सीखते हैं ।
मैंने कहीं श को स बनाने की ज़िद नहीं की । यहां तक कि मेरी राजस्थानी भाषा के रचनाकार भोलेपन में श को स ही लिखते हैं ,लेकिन
मैं राजस्थानी में भी हिंदी के साथ ही समीपता रखता हूं ।
मेरा उद्देश्य आपको ठेस पहुंचाना नहीं था,श्वर्णकार लिख कर आपको अवश्य संतुष्टि मिली होगी ।
कृपया मन में ग्रंथि मत पालिएगा ।
आपका स्वागत है मेरे ब्लॉग पर ।
मैं भी आपके तीनों ब्लॉगों की सैर कर आया …लेकिन अभी वहां पढ़ने को आपने शायद कुछ डाला नहीं है ।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपका ही
राजेन्द्र स्वर्णकार
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पुनः कहूंगा - "मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था , फिर भी पहुंची हो तो मुक्त हृदय से क्षमा करदें ।
किसी सकारात्मक निष्कर्ष के लिए चर्चा जारी रहे तो अवश्य पुनः हाज़िर हो जाऊंगा , विवाद मेरी ओर से समाप्त समझें ।
राजेन्द्र स्वर्णकार
आदरणीय भाई राजेंद्र स्वर्णकार जी,
आप मेरी रचनाएं sharmanavneet.blogspot.com पर भी देख सकते हैं। जहां तक बहस को विराम देने की बात है मैं पहले ही दे चुका था। बाल की खाल क्यों निकाली जाए। एनानिमस महोदय की टिप्पणी पर भी कुछ नहीं कहूंगा। सच मानें तो श्वर्णकार लिख कर दुख हुआ था कि मैं भी उसी रास्ते पर चल पड़ा। मुझे दुख है कि मैं ऐसा भी हो गया।
दो बेहतरीन ग़ज़लें पढ़ लेने के बाद जब टिप्पणियां पढ़ने आया तो मन किरकिरा हो गया...
सतपाल जी, आपका दिल से आभार कि आपने जिज्ञासा शांत की...
नवनीत जी और राजेन्द्र जी- दोनों की ग़ज़लों का मैं शुरू से प्रशंसक हूं।
खैर अंत भला तो सब भला...
Waah waah kya baat abni hai i kafion se...atpal ji ke safal prayas se.
Navneet sharma ji ka yeh sher bahut acha laga aur dil ko chta hu...badhayi
सांझ ढले सब घर को लौटें,
अपनी ये अरदास रे जोगी
abhubhut karta yeh sher bahut acha laga..kamnamay
मन है बहुत उदास रे जोगी,
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
Rajendraji ki adayagi bahut hi sarlata se apne sher ki sadagi barkarar rakh payi hai...kisi ke paas n hone ke karan udass hona acha aagaz raha.
Chnadrabhan BHardwaaj ka yeh sher mujhe birhan ke man ki awastha se wakif karata hua chal pada..
aur kuch nahin:
Baqi ab birhan ki poonji
aas aur vishwas re jogi..
aas aur vishwas donon kafiae sang sang suhane lag rahe hai..Shabdon se khelna padta hai jab bhi chote bahar ki gazal darpesh aati hai....
shubhkamanon sahit
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