Wednesday, May 19, 2010
पाँचवीं क़िस्त - कौन चला बनवास रे जोगी
पाँचवीं क़िस्त की ये तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
बाबा कानपुरी
रहता नित उपवास रे जोगी
मन में अति उल्लास रे जोगी
कुछ तो है जो कसक रहा है
क्या मन में संत्रास रे जोगी
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
लेना एक न देना दो पर
नित करता अभ्यास रे जोगी.
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
तेरे आने से छाया है
हर सू इक उल्लास रे जोगी
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
मन में है सो पा जाऊँगा
क्याँ छोडूँ मैं आस रे जोगी
दो पल की फुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
ये ही तुझ को खुश कर दे तो
चल मैं तेरा दास रे जोगी
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
चंद्रभान भारद्वाज
कर सूना हर वास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
फैली 'भारद्वाज'उसी की
कण कण बीच सुवास रे जोगी
अज़ीज दोस्तो!
मैं अपनी बात बड़ी हलीमी से रख रहा हूँ, कोई भी इसे अन्यथा न ले । बहस या संवाद किसी नतीजे तक न पहुँचे तो क्या फ़ायदा। बात शुरू हुई थी नास और नाश को लेकर और आदरणीय राजेन्द्र जी ने ही देशज शब्द का इस्तेमाल टिप्पणी में किया। देशज या देशी या देसी शायद एक ही अर्थ के शब्द हों । देशज,वो शब्द जो बिना किसी आधार के (तदभव, तत्सम ,गृहित,अनुकरण) विकसित हो गए हों। जिनकी पैदाइश कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं हो जैसे- घूँट, घपला पेड़,चूहा ठेस, ठेठ, धब्बा पेठा कबड्डी आदि
और आम हिंदी भाषा में तकरीबन 80% तद्भव, 15% तत्सम 13% विदेशी और 2% देशज शब्द इस्तेमाल होते हैं। शब्दकोश में नास का अर्थ है-वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। सूँघना या नसवार, सुँघनी ।
लेकिन ’देशज शब्द’ शब्दकोशों में नहीं मिलते पर अब धीरे-धीरे शामिल किए जा रहे हैं।
नाश यानि नष्ट और अब नास शब्द के कुछ प्रयोग देखें-
जबहिं नाम ह्रदय धरा,भया पाप का नास
मानों चिनगी आग की,परी पुरानी घास ..कबीर
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं .... सूरदास
अब शब्दकोश के लिहाज से ये तो यहाँ नास का प्रयोग ग़लत है या यूँ कहो कि घास’ के साथ तुक मिलाने के लिए कबीर ने नास लिख दिया। लेकिन उन्होंने इसे लिखा वो गुणी और गुरूजन ही हैं हमारे लिए। तुलसी की भाषा को हम क्या कहेंगे कि वो ग़लत है या फिर कबीर ग़लत हैं।
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
शे’र में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है सब जानते हैं , लेकिन इस शब्द के प्रयोग को हम किस आधार पर ग़लत कहेंगे। मेरा ये प्रशन सिर्फ़ राजेन्द्र जी से नहीं है बल्कि सब से है। मैं आप सब से जानना चाहता हूँ ताकि कुछ हम सब सीख सकें।क्या कबीर का ’नास’ कुछ और है? क्या नास तदभव रूप नहीं है या फिर ये देशी है,क्या है? इसे संवाद तक ही सीमित रखें विवाद न समझें और न ही विवाद का रूप दें। ग़ज़ल कहने वाले तो हर बात सलीक़े और अदब से ही कहते हैं और ये मंच है ही ग़ज़ल के लिए।
बात जोगी की हो रही है तो क्यों न लता की आवाज़ में ये गीत-
जाओ रे ! जोगी तुम जाओ रे ...सुना जाए।
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15 comments:
बाबा कानपुरी के शेर,
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
...अति सुन्दर.
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
... क्या शेर निकाल लाये हैं. बहुत खूब.
तिलक जी के अशआर तो बिलकुल नए दृश्य उत्पन्न कर रहे हैं.
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
और
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
रास के दोनों अर्थों को खोल कर रक्खे हैं.
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
....सुन्दर !
भारद्वाज जी के ये दो शे'र बेहद ख़ास लगे
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
..क्या बात कही आपने.
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी... बहुत बढ़िया!
--
सतपाल जी, बिलकुल यह मंच उपयोगी संवाद का है. जरुरी बात कल हो चुकी थी.
यह तो हमारी विरासत है, शब्दों को आंचलिक बोली में घोलकर कहना सुनना अच्छा लगता है. जहाँ अर्थ स्पष्ट है और शब्द ग्राह्य है वहाँ दोष ढूंढना उचित नहीं. राजेन्द्र जी चूँकि स्वयं अपनी ग़ज़लों और अन्य रचनाओं में देसी बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करते हैं और बहुत से रचनाकार कर रहे हैं. ये सुखद है.
क्या बात है सिर्फ एक मिसरा और इतने ख्याल, निश्चित ही सभी शायर बधाई के पात्र हैं,बहुत खूब .......वाह
vilas pandit "musafir"
आह उम्दा गज़लें..
बहुत खूब...
कुछ तो है जो कसक रहा है की प्रश्न और व्यसनों की चादर में छिपा व्यंग्य बहुत खूब है। सूनी-सूनी दसों दिशाएं में तरही मिसरा बहुत खूब बॉंधा है। बाबा जोगीमय हो गये।
चंद्रभान भारद्वाज जी की ग़ज़ल से बाकी अब बिरहिन की पूँजी का विरह, तोड़ा है पत्थर का दर्द, क्या मंदिर मस्जिद का ज्ञान देखने लायक है।
वाह-वाह
बाबा कानपुरी साहब:
‘झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी’
बहुत ही मार्मिक लगा
और मक़्ता:
रीता का रीता है ‘बाबा’
सब कुछ उसके पास रे जोगी
‘बाबा’ साहब ने तो आधुनिकतम भौतिकतावाद की सारी त्रासदी ही इसमें समेट दी है।
और ‘राही‘ ग्वालियरी साहब:
आपकी ग़ज़ल का मतला और मक़्ता भी बेहद ख़ूबसूरत हैं।
‘बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का अहसास रे जोगी’
तेरा मेरा सोच न राही
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
आज के दौर की एक और त्रासदी:
दो पल की फ़ुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
बहुत ही बढ़िया. बधाई।
भाई चन्द्रभान भारद्वाज जिन्होंने राहत साहब द्वारा ‘विधवा’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति की थी, भी बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल लेकर आए हैं और ख़ूबसूरत बात यह भी है कि सारे काफ़िये उन्होंने ‘वास’ से स्माप्त होने वाले शब्दों के लिए हैं और बहुत सुन्दर शेर भी दिए हैं।बधाई.
अज़ीज़ सतपाल ‘ख़्याल‘ साहब के ख़यालात के बाद ‘नास’ और ‘नाश’ के प्रयोग पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं रह जानी चाहिए। वैसे वे शे‘र काटने का सम्पादकीय अधिकार तो रखते ही हैं । कमेंट माडरेशन का अधिकार भी रखें । ताकि जब शर्मा से सर्मा और स्वर्णकार से ‘श्वर्णकार’ होता दिखाई दे तो ऐसे कमेंट्स को छाप कर ब्लाग की गरिमा को ठेस पहुँचाए बिना इशारों और ठोस सबूतों के साथ असुन्तष्ट धड़े की जिज्ञासा शांत की जाए जैसा कि आपने आज किया है। उस्ताद क़मर बरतर ग्वालियरी साहब शायर का नाम लिए बिना उसके शे‘रों की त्रुटियाँ गिना देते है। आप भी कुछ ऐसा ही कीजिए।
इस बार की कड़ी में भी
बहुत अच्छी गज़लें आईं हैं ...
"बाबा" कानपुरी जी का शेर
रीता का रीता है 'बाबा'
सब कुछ उसके पास रे जोगी
मन की किसी भी तरह की व्यथा को परिभाषित
कर पाने में सक्षम है .....वाह
"राही" साहब ने खूब कहा है ...
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
ऐसा ही परम एहसास उनके इस शेर से भी मिल रहा है
और...रास में तो अच्छी रास रचाई है जनाब ने
जनाब भारद्वाज जी की ग़ज़ल की बुनावट तो लाजवाब , बे-मिसाल ...
रचनावली की किसी भी मुश्किल को
आसानी और खूबसूरती से हल करना तो
उनकी लेखनी के आदेश से ही हो जाता है
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे का विश्वास रे जोगी
बहुत खूब .
तिलक की जा ये शे’र दिए गए
मिसरे पे मुझे सब से अच्छा लगा--
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी प्रयास भी अच्छे हैं !
--मधुर
कल और आज व्यस्तता और सफ़र के कारण नेट नहीं संभाल पाया ।
…अभी अभी लौटा हूं , पुनः चार घंटे उलझ जाऊंगा ।
समय का अभाव है , लेकिन तीन तीन वरिष्ठ ग़ज़लकारों की रचनाएं पढ़ने से स्वयं को रोकना भी अपने साथ ज़्यादती होगी ।
संक्षेप में………
बाबा कानपुरी जी को पहली बार ही पढ़ा है
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
मक़्ता क्या है नायाब हीरा है ।
***********************
तिलक राज जी कपूर 'राही' ग्वालियरी साहब में तो वह चुंबक है
…पढ़ते ही रहते हैं ,गुरुत्व-गुण से भरपूर रचनाकार !
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
मत्ला ही बड़ा शानदार है ! …और गिरह भी ख़ूब बांधी है आपने
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
***********
चंद्रभान भारद्वाजजीका यह शे'र विशेष प्रभावशाली लगा
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
**********************
तीनों वरिष्ठजनों को बहुत बहुत बधाई !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बाबा कानपुरी साहब का बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आभार :
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
अश्आर खासतौर पर भाये।
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी साहब का कलाम भी ग़ज़ब का है।
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
अश्आर अच्छे लगे।
चंद्रभान भारद्वाज
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
बहुत खूब।
सतपाल जी का आभार अच्छे शायरों का कलाम पढ़वाने के लिए।
तीनों वरिष्ठ शायरों की गज़लों ने इस तरही मुशायरे की रंगत को और बढ़ा दिया है।
श्रद्धेय द्विज की टिप्पणी के बाद इस मसले पे और कुछ कहने को शेष नहीं रह जाता।
सभी की गज़लें एक से बढ़ कर एक , बाबा कानपुरी को पहली दफा पढ़ रहा हूँ , और सच मनो तो मज़ा आगया.. सारे ही शे'र कमाल के बने हैं ... तिलक साहब के शे'र भी कमाल के हैं ... सारे के सारे मगर काफिये के दुहराह को समझ नहीं पाया ... चन्द्रभान साहब को बहुत पहले से पढता आया हूँ जिस तरह सादगी से ये लिखते हैं वो खुद में कामयाब शायरी की जमानत है... भाई सतपाल जी को बहुत बहुत बधाई इस मुशायरे के लिए ...
अर्श
अर्श ने एक अच्छा प्रश्न उठाया है काफिये के दुहराव का। शाईर से अपेक्षा की जाती है कि वह किसी भी ग़ज़ल में किसी काफिये पर जो सर्वोत्तम कह सकता है एक ही शेर में कह दे। इस नजरिये से सामान्यतय: किसी भी काफिये का दुहराव कुछ उस्ताद अच्छा नहीं मानते। लेकिन इसीका दूसरा पक्ष भी है कि हर शेर चूँकि एक स्वतंत्र कविता है शाईर का अधिकार है कि वह एक ही काफिये का उपयोग एक से अधिक विचार को प्रस्तुत करने के लिये कर सके। ऐसा विशेषकर उन परिस्थितियों में हो सकता है जहॉं एक ही शब्द अनेकार्थक हो जैसा कि प्रस्तुत ग़ज़ल में है। यहॉं दोनों 'रास' परस्पर भिन्न अर्थ में हैं।
आह उम्दा गज़लें..
बहुत खूब...
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