Friday, December 3, 2010

सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त

मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है

मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की
सी है

दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।











सतपाल ख़याल

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो

दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो

मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।

17 comments:

Anonymous said...

Dil Khush ho gaya...Janab. Wah.. Anees

Navneet Sharma said...

ख्‍याल साहब, बहुत अच्‍छी ग़ज़ल। अब समझ में आया कि आपने वो अपनी ग़ज़ल के कुछ और अश्‍आर जो मुझे फोन पर सुनाए थे (मुझे अच्‍छे भी लगे थे )उन्‍हें इस ग़ज़ल में शामिल क्‍यों शामिल नहीं किया। भाई, ग़ज़ब के अश्‍आर कहे हैं।

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

बहुत अच्‍छी गिरह लगी है इसमें :

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

daanish said...

हम क्या थे, क्या हैं, क्या होंगे
थोड़ी ख़ाक उठा कर देखो ..

ज़िंदगी के क़ीमती फलसफे को
बयान करता हुआ कामयाब शेर कह लेने पर
बहुत बहुत मुबारकबाद .
आपके अपने नायाब अंदाज़ को दर्शाती हुई
बहुत अच्छी ग़ज़ल
पढ़ते -पढ़ते मन में उतर रही है ... वाह !!

दिपाली "आब" said...

हम क्या थे ? क्या हैं ? क्या होंगे ?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो

Khoobsurat sher.. Daad

प्रदीप कांत said...

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

बहुत अच्‍छी ग़ज़ल।

Rajeev Bharol said...

सतपाल जी, बहुत ही अच्छे अशआर..बधाई.

नीरज गोस्वामी said...

सतपाल भाई, सबसे पहले इस कामयाब तरही मुशायरे के लिए तहे दिल से दाद कबूल करो...आज कल बहुत कम लोग हैं जो दूसरों के कलाम और शख्शियत की तारीफ़ करते हैं अक्सर लोगों को अपने अलावा दूसरे की और देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती और अगर मिलती भी है तो उसे दूसरे में सिर्फ खामियां ही नज़र आती हैं...इस लिहाज़ से आपके ब्लॉग की जितनी तारीफ़ की जाए कम है....आपने अपनी सोच की खिडकी को खुला रखा है इसीलिए ताज़ा हवा के झोंकों की तरह आपके अशआर गज़ल में खुशगवार बना देते हैं...

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

बेहतरीन और हासिले मुशायरा शेर है और ये शेर इस बात का सबूत है के आप अब उस्ताद हो गए हैं...ऐसे शेर कहने में कितनी मशक्कत करनी पड़ती है मैं जानता हूँ बल्कि मेरा मानना है के ऐसे शेर कोई रूहानी ताकत हमसे कहलवाती है, सोच कर कोई ऐसे शेर नहीं कह सकता...

एक बार फिर भरपूर दाद के साथ मेरा सलाम कबूल फरमाएं.

नीरज

सतपाल ख़याल said...

शुक्रिया नीरज जी,

गुरूबानी का एक शब्द याद आ गया-

करै करावै आपे सोई
तिस का किया सब किछ होई..

रब राखा..

तिलक राज कपूर said...

इसमें कोई शक नहीं कि ग़ज़ल, जो कहन की विधा है, में कहन ऐसी होनी चाहिये कि अंदर डुबकी लगाने को आमंत्रित करे, अश'आर की गिनती बेमायने है।

अंधियारे का दर्द कभी तो
उसके दिल तक जाकर देखो।

शायर की कल्‍पना खुद से बाहर निकल कर आगे बढ़ती है तो बढ़ते बढ़ते रूहानी दिशा में पहुँच ही जाती है और अपनी मंजिल पा लेती है।
मुकम्‍मल ग़ज़ल पर बधाई।

निर्मला कपिला said...

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो
वाह कमाल की शुरूआत तो यहीं से हो गयी\

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो
मुझे लगता है इस बहर पर जितनी भी गज़लें पढी हैं ये शेर सब के ऊपर भारी पड रहा है। बधाई इस लाजवाब गज़ल के लिये।

शारदा अरोरा said...

bahut khoobsoorat hai gazal

chandrabhan bhardwaj said...

Satpal Bhai,
achchhi ghazal kahi hai badhai
kya kya jism ke sath jala hai
ab tum rakh utha kar dekho
khoobsoorat sher
Abhi kafi dinon se bahar gaya hua tha aaj hi mail dekha aur apka sandesh pada.
punah badhai.

Devi Nangrani said...

हम क्या थे, क्या हैं, क्या होंगे
थोड़ी ख़ाक उठा कर देखो ..

Wwah
Yoon tarasha hai usko shilpi ne
Jaan si pad gayi shiaaoon mein. Satpal ji har sher apne aap mein mukamil aur arthpoorn
Daad ke saath

Purshottam Abbi 'Azer' said...

नीला पानी गहरा सागर
तल में उसके जा कर देखो

अमित कुमार सिंह said...

तब्दील कैसे होती है बर्फ पानी मे
कभी खुद को धूप मे पिघला कर देखो

कोशिश की है सर

अमित कुमार सिंह said...

तब्दील होती है कैसे बर्फ पानी मे
कभी खुद धूप मे आकर देखो

अमित कुमार सिंह said...

तब्दील होती है कैसे बर्फ पानी मे
कभी खुद धूप मे आकर देखो