Tuesday, August 2, 2011
नवीन सी चतुर्वेदी
नवीन सी चतुर्वेदी की एक ग़ज़ल
तरक्क़ी किस तरह आये भला उस मुल्क़ में प्यारे
परिश्रम को जहाँ उस की सही क़ीमत नहीं मिलती
ग़ज़ल
आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
यूँ उजालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी
मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी
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43 comments:
बहुत अच्छी, शायद अब तक की सबसे अच्छी गज़ल है ये नवीन भाई. बधाई.
आप के दिल की बात मेरे लिए आशीर्वाद समान है मान्यवर तिवारी जी|
गज़ल क्या है, इन्सान के अस्तित्व का दर्द है।
नवीन जी, ला-जवाब है यह अभिव्यक्ति!!
बहुत सुन्दर . आज के समय का बहुत सही चित्रण .
नेकनीयत से अदावत कर रही हैं नीतियाँ |
ठीक चीनी सी बनावट ढो रही हैं चीटियाँ ||
आदमी की ताकत को सिजदा |
कोई जामवंत आएगा
हनुमत को जगायेगा
शापित हनुमान
शीघ्र पहचान ||
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी....
loktantra par ho rahe hamle ke khilaf khadi hai yah gazal.. bahut sundar... bahut prabhavshali
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
भाई नवीन जी! इस बेहतरीन ग़ज़ल के माध्यम से आपने आज सी सच्चाई बयां कर दी है ! लाज़वाब ! आपको इस हेतु बहुत-बहुत मुबारकबाद !
//जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी//
//सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी.//
अपने दौर पर संजीदा सोचने वालों की कलम तो वैसे ही धारदार चलती रही है. आपकी कलम की खुसूसियत, नवीनभाई, है कि ये बातज़हीब भी चलती है. इसके अंदाज़ और इसकी कहन को सलाम.
आप बने रहें अपने मिजाज़ के साथ.
--सौरभ पाण्डॆय (इलाहाबाद)
//आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
रोशनाई की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी//
सुन्दर मतला कहा है नवीन भाई !
//सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी//
वाह वाह वाह - इस शेअर के तेवर दिल को छू लेने वाले हैं !
//छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी//
बहुत खूब !
//जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी //
अय हय हय हय - दबे हुए लावे की बात कह दी इस शेअर में - बहुत खूब !
//सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी//
हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर - क्या सच्चाई बयां कर दी भाई, वाह वाह वाह !
//मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी//
बिलकुल सत्य कहा भाई, शहर की खामोशिया वो गुमशुदा जज्बा हर बात से घाफिल हो जाने की आदत - बहुत ही खूबसूरती से अलफ़ाज़ दिए हैं इन सब को - बहुत आला ! इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद कबूल करें बंधुवर !
हिंदी-उर्दू लफ़्ज़ों के सुंदर समन्वय और कथ्य के नयेपन के लिए नवीन चतुर्वेदी की इस ग़ज़ल का स्वागत होना चाहिए।
वाह! वाह! बहुत खूब!! नवीन भाईसाब ! ,
आज के समय में हर इन्सान के शायद यही जज्बात हों , जिन्हें आपने बड़ी सुन्दरता से कहा है इस ग़ज़ल में | बहुत खूब !!
हम आपसे सीख रहे हैं !!!!
बेमिसाल, लाजवाब गज़ल है नवीन जी ! हर शेर अपने आप में पूरी गज़ल का दमखम रखता है !
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
इन अशआरों के अंदाज़ का क्या कहना ! वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह सामयिक एवं प्रासंगिक इस गज़ल के लिये आपको बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें !
हर शेर सच्चाई की खुशबू से तरबतर है !
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें !
ये ग़ज़ल वास्तव में आज की ग़ज़ल है। हुस्न औ इश्क के मिज़ाज़ से बाहर आते ही ग़ज़ल का हुस्न कुछ और निखर आता है।
पैरहन, इक आसरा, दो वक्त की रोटी मिले
या खुदा, तुझसे ये(य) चाहत कर रहा है आदमी।
SAAF ZABAAN AUR UMDAA KHYAAL
GAZAL KEE KHOOBSOORTEE KO CHAR
CHAAND LAGAA RAHE HAIN .BAHUT
KHOOB !
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुकूमत कर रहा है आदमी '
........................सच्चा शेर नवीन जी
..................उम्दा ग़ज़ल ,हर शेर अर्थपूर्ण
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
नवीन भाई !! बहुत खूबसूरत गज़ल कही है – विशेष रूप से भाषा बहुत प्रासंगिक है – सम्प्रेषणीय और समर्थ – बाक़ी आप सामाजिक चेतना पर लिखते ही हैं । सभी विषय समकालीन समस्याओ और विडम्बनाओं पर हैं – बहुत बहुत शुभकामनायें – ये क़लम ऐसे ही गतिशील और प्रगतिशील पथ पर निरंतर सक्रिय रहे ।
--मयंक अवस्थी
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
आपकी ग़ज़ल वाकई बहुत अच्छी है. निम्न विशेष हैं--
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
एम. सी. गुप्ता 'खलिश'
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
आ० नवीन जी,
धमाकेदार ग़ज़ल के साथ आपका इकाविता पर स्वागत है |
निम्न शे'र बड़ा पसंद आया | दाद कबूल हो |
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी
सादर
कमल
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
आदरणीय नवीन जी, एक बेहद शानदार और तेजस्वी रचना. ये पंक्तियाँ सच्चे, नेक लोगों के सब्र का जीवंत खाका हैं......और सदा के लिए मन पर अंकित हो जाने वाली हैं !!
अशेष सराहना और भरपूर बधाई !
सादर,
दीप्ति
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
आ. नवीन जी,
बहुत खूब!
"सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
वाह!
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
दादर(पूर्व), मुंबई
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
आदरणीय नवीन जी,
वर्तमान स्थिति का सजीव चित्रण करती हुई एक ओजपूर्ण रचना | सभी शेर लाज़बाब हैं, जीवंत है |आप को अनेकानेक बधाईयां |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
ई मेल पर प्राप्त कमेंट:-
सिर्फ ये पूछा-भला क्या अर्थ है अधिकार का ,
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी ।
- नवीन जी ! आज का यथार्थ इस शेर मे आपने बख़ूबी व्यक्त कर दिया है ।
सुधाकर अदीब
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी
इंसान और इंसानियत ही आपकी इस ग़ज़ल की बुनियादी लय है, ...
छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी
मामूली सी बात भी आपकी ग़ज़ल में ख़ास हो जाती है। आपकी खासियत को बयान करने लगूं तो उसका अंत नहीं है। बस समझिए कि ये ग़ज़ल बेजोड़ है, और बहुत ही पसंद आई।
इस ग़ज़ल को वर्तमान दौर की एक श्रेष्ठ ग़ज़ल कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
शासक और शासित- दोनों किरदारों का चित्र बखूबी अंकित किया गया है।
सिर्फ ये पूछा भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
इतनी गहरी बात और कितनी आसानी से बयां कर दी आपने...वाह !!
बधाई, नवीन जी, बहुत-बहुत बधाई।
एक एक अशआर इस गज़लमाला का खुद में एक नगमा बन मुखरित है आज के हालात का हमारे समय का आईना है यह ग़ज़ल .किसे याद रख्खूँ किसे भूल जाऊं ?
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी....
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
//जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी//
//आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
रोशनाई की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी///छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी//र पर लिख लिया था ,फिर ई -मेल बोक्स में गया तब हाथ आया ,आपने पढवाया मन गदगद है .सभावित हूँ .
यकीन मानिए नवीन जी आधा घंटे से ढूंढ रहा था वह लिंक ,मैंने कैलेण्डर पर लिख लिया था फिर ई मेल पर गया तब हाथ आया यह नगमा -ए - ग़ज़ल.
कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.com/http://sb.samwaad.com/
http://sb.samwaad.com/
नवीन भाई सबसे पहले इस निहायत खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल करें. आज ही ईरान से लौटा हूँ और आपकी ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ...हीरों से तराशे आपका हर एक शेर अपनी चमक से चकाचौंध कर रहा है...किसी एक शेर को अलग से कोट करने की गुस्ताखी नहीं कर पाउँगा क्यूँ की हर शेर अपने आपमें मुकम्मल और अनूठा है...अशआरों में साफ़ बयानी और नयापन इस ग़ज़ल को एक अलग मुकाम पर खड़ा कर देते हैं. भाई कमाल किया है आपने...बार बार पढता हूँ और आपकी कलम की शान में सजदा करता हूँ...ऊपर वाले की मेहरबानी आप पर सदा यूँ ही बनी रहे ये ही मेरी तहे दिल से दुआ है...आपकी काफिया बंदी यकीनन काबिले गौर है...
नीरज
नवीन जी!
नमस्कार
ग़ज़ल के माध्यम से आपने आज सी सच्चाई बयां कर दी है
....बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें !
सामयिक विषय और आज की त्रासदी पर बेहद उम्दा तरीके से गजल लिखी है नवीन जी ने कि भावनायें बहुत सहज रूप में दिल पर उतर गयी... आज का इंसान इन विडंबनाओं के नीचे तिल तिल घुट रहा है...नवीन जी का आभार ..ऐसी सुन्दर रचनाओं को हम तक पहुचाने केलिए..
मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी
वाह! क्या गज़ब की सच्ची बात, वाह!
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी.
-बहुत शानदार....अद्भुत गज़ल!! बधाई.
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है नवीन भईया...
सादर बधाई....
ख़ूब सूरत गज़ल , बेहतरीन मतला बधाई नवीन भाई।
ख़ूब सूरत गज़ल , बेहतरीन मतला बधाई नवीन भाई।
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
यूँ उज़ालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी
वाह वाऽऽह … ! क्या मत्ला है !
नवीन जी
योगराज प्रभाकर जी , नीरज जी के कहने के बाद कुछ कहना शेष नहीं रहता … :)
हमारे राजस्थान में एक कहावत चलती है जिसका अर्थ है कि - ऊंट के चर लेने के बाद बकरियों के चरने के लिए कुछ नहीं बचता … :)
बस यही कहूंगा कि
शानदार रवां-दवां ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आपकी ग़ज़ल अच्छी लगी . इसे ब्लॉगर्स मीट वीकली में HBFI पर पेश किया जायेगा . आप सादर आमंत्रित हैं.
"ब्लॉगर्स मीट वीकली में सभी ब्लॉगर्स का हार्दिक स्वागत है"
Waah kya khoob gazal kahi hai.. maza aa gaya .. khas kar ye sher .. wo samjh baithe bagawat kar raha hai aadmi.. waah waah...aap isi tarah nirantar bahut umda likhte rahe yahi dua hai..
नवीन जी की रचनाएँ मुझे वैसे भी बहती हैं यहाँ इतनी प्यारी ग़ज़ल पोस्ट करने का आभार.
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी
---
बहुत खूब शेर हुए हैं नवीन जी! बिलकुल सामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर केन्द्रित.... ज़ात की चर्चा कम कायनात की ज्यादा....बधाई स्वीकार करें
जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी
सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी
behad khoobsoorat ghazal hai.
aabhaar!!
सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी
बहुत उम्दा नवीन जी ,
बहुत ख़ूब !!!
आपकी पोस्ट "ब्लोगर्स मीट वीकली {३}" के मंच पर शामिल की गई है /आप वहां आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/ हमारी कामना है कि आप हिंदी की सेवा यूं ही करते रहें। कल सोमवार०८/०८/11 को
ब्लॉगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित
नवीन जी आपका लिखा हमेशा ही प्रभावित करता है .. ग़ज़ल, छंद, कविता ... आप हर फन के माहिर हैं ... मज़ा आ गया इस ग़ज़ल को पढ़ के ...
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