Wednesday, August 10, 2011

अनवारे इस्लाम


1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक मासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं, जिन्हें पढ़कर ये समझा जा सकता है कि गज़लीयत क्या होती है। बहुत ही आदर के साथ ये ग़ज़ले मैं शाया कर रहा हूँ-


ख़यालों के समंदर में उतर जाता हूँ
मैं तेरी ज़ुल्फ़ की मानिंद बिखर जाता हूँ

वक़्त की इतनी ख़राशें हैं मेरे चेहरे पर
आईना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ

लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या- क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ

कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों ओर
रोशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ

टूटने की मेरे आवाज़ नहीं हो पाती
अपने एहसास में ख़ामोश बिखर जाता हूँ

पार जाना है तो तूफ़ान से डरना कैसा
कश्तियाँ तोड़ के दरिया में उतर जाता हूँ


पने जज़्बात वो ऐसे भी बता देते हैं
जब कोई हाथ मिलाता है दबा देते हैं

ख़त तो लिखते हैं अज़ीज़ों को बहुत खुश होकर
और बातों में कुछ आँसू भी मिला देते हैं

बैठ जाते हैं जो शाखों पे परिंदे आकर
पेड़ को फूलने -फलने की दुआ देते हैं

तुमने देखी ही नहीं उनकी करिश्मा साज़ी
नाव काग़ज़ की जो पानी पे चला देते हैं

रास्ते मैं तो बनाता हूँ कि पहुँचूं उन तक
और वो राह को दीवार बना देते हैं

देखते हैं जो दरख्तों पे फलों का आना
हम भी अपना सरे -तस्लीम झुका देते हैं

दोनों ग़ज़लें बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल में कहीं गईं हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

शायर का पता-
ईमेल :sukhanwar12@gmail.com
मोबाइल :09893663536



11 comments:

नीरज गोस्वामी said...

वक्त की इतनी खराशें हैं मेरे चेहरे पर
आइना सामने आ जाय तो डर जाता हूँ
***
लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ
***
कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों और
रौशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ
****
बैठ जाते हैं जो शाखों पे परिंदे आ कर
पेड़ को फूलने फलने की दुआ देते हैं
***
देखते हैं जो दरख्तों पे फलों का आना
हम भी अपना सरे-तस्लीम झुका देते हैं

सुभान अल्लाह...क्या ताज़गी लिए हुए अशआर हैं...वाह...दोनों ग़ज़लें कमाल की हैं , ऐसी लाजवाब ग़ज़लें हम तक पहुँचाने का तहे दिल से शुक्रिया सतपाल भाई...हमारी अनवारे इस्लाम भाई की शायरी पढने की प्यास अभी बुझी नहीं और भी पढ़वाइये ...

नीरज

Purshottam Abbi 'Azer' said...

फ़ाइलातुन, फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन ,फ़ालुन
2 12 2 1 1 2 2 1 1 2 2 2 2
गजलें दोनों हैं बहुत उम्दा मुबारक तुमको
शेर आमद के यूँ तस्वीर बना देते हैं

Devi Nangrani said...

वक़्त की इतनी ख़राशें हैं मेरे चेहरे पर
आईना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ
Satpal ji Bahut hi umda ghazal padhwane ke liye dhanywaad. Amware saheb ko padhna ek sykhad anubhav hai..unke har sher mein ek tazgi hai...
Shubhkanon ke saath

daanish said...

वक्त की इतनी खराशें हैं मेरे चेहरे पर
आइना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ

यह शेर सिर्फ एक अदायगी ना होकर इक मुकम्मल फलसफा है
इसी तरह के कई पुख्ता और शाईस्ता खयालात को
अपनी खूबसूरत शाईरी के हवाले से हम सब तक
पहुंचाने वाले अज़ीम फनकार , अदब-शनास शख्सियत
जनाबे अनवारे इस्लाम साहब को पढ़ना, हमेशा ही
इक नया और मालूमाती तज्रबा रहता है.......
'ख़याल' साहब को इस सबक़ आमोज़ पेशकश के लिए
ढेरों मुबारकबाद !

Purshottam Abbi 'Azer' said...
This comment has been removed by the author.
Purshottam Abbi 'Azer' said...

जनाब अनवारे इस्लाम साहिब लगभग १५ वर्ष पूर्व एक ग़ज़ल कही थी जिसका एक शेर पेश-ए-खिदमत है

चेहरे के दाग़ एसे तो आते नहीं नज़र
दरपन के रु-ब-रु ज़रा नज़रें मिला के देख
आज़र

तिलक राज कपूर said...

उम्‍दा ग़ज़लों के क्षेत्र में अनवार-ए-इस्‍लाम साहब का नाम स्‍थापित है और उसी स्‍थापित स्‍तर पर हैं दोनों ग़ज़ल।
ग़ज़ल में तसव्‍वुर और अंदाज़-ए-बयॉं के मेल से जो प्रभाव पैदा होना चाहिये उसे पैदा करने में दोनों ग़ज़लों का हर शेर सक्षम है।

शारदा अरोरा said...

behad khoobsoorati se bayaan kiya hai ...
ख़त तो लिखते हैं अज़ीज़ों को बहुत खुश होकर
और बातों में कुछ आँसू भी मिला देते हैं
bahut achchha laga ..

kavi kulwant said...

excellent
kulwant

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai Satpal ji
anwaare Islam ji ki donon hi ghazalen behad khoobsurat hain. Aisi sunder ghazalen pad waane ke liye apko hardik badhai.

Navneet Sharma said...

भाई सतपाल जी,
अनवारे इस्‍लाम साहब की ग़ज़लें पढ़ कर मज़ा नहीं आया, अंदर बेचैनी हुई। इन अश्‍आर पे ताली बजाने की जगह मनोभाव उद्वेलित हो जाते हैं। यकीनन हर पाठक के लिए अच्‍छे शे'र का मतलब अलग-अलग हो सकता है। मुझे ये तीन अश्‍आर ख़ास तौर पर अच्‍छे लगे क्‍योंकि इनमें ग़मेदौरां और गमे जानां एक होकर श्रोता या पाठक तक मार और गहरी मार करते हैं।

वक्त की इतनी खराशें हैं मेरे चेहरे पर
आइना सामने आ जाय तो डर जाता हूँ

लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ

कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों और
रौशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ

आप आजकल फेसबुक पर भी कुछ चुने हुए कलाम देते हैं, यह अच्‍छा है, पैगाम जहां तक पहुंचे। अनवारे इस्‍लाम साहब तक आदाब पहुंचा दें।
आपका
नवनीत