Thursday, August 29, 2013

सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी की एक ग़ज़ल

ग़ज़ल

तमाम उम्र मेरी ज़िंदगी से कुछ न हुआ
हुआ अगर भी तो मेरी ख़ुशी से कुछ न हुआ

कई थे लोग किनारों से देखने वाले
मगर मैं डूब गया था, किसी से कुछ न हुआ

हमें ये फ़िक्र के मिट्टी के हैं मकां अपने
उन्हें ये रंज कि बहती नदी से कुछ न हुआ

रहे वो क़ैद किसी ग़ैर के ख़यालों में
यही वजह कि मेरी बेरुख़ी से कुछ न हुआ

लगी जो आग तो सोचा उदास जंगल ने
हवा के साथ रही दोस्ती से कुछ न हुआ

मुझे मलाल बहुत टूटने का है लेकिन
करूँ मैं किससे गिला जब मुझी से कुछ न हुआ

8 comments:

yashoda Agrawal said...

अत्यन्त हर्ष के साथ सूचित कर रही हूँ कि
आपकी इस बेहतरीन रचना की चर्चा शुक्रवार 30-08-2013 के .....राज कोई खुला या खुली बात की : चर्चा मंच 1353 ....शुक्रवारीय अंक.... पर भी होगी!
सादर...!

अशोक सलूजा said...

खुबसूरत ख्याल ....

Neeraj Neer said...

बहुत खूब

रश्मि शर्मा said...

लगी जो आग तो सोचा उदास जंगल ने
हवा के साथ रही दोस्ती से कुछ न हुआ...waah

parshuram chauhan said...

great...........

parshuram chauhan said...

great...........

Anand murthy said...

bahut sunder gazal.....

visit here plz

www.anandkriti007.blogspot.com

Anand murthy said...

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khoobsurat gazal badhaaii sreemaan